मंगलवार, 31 दिसंबर 2024

पौराणिक काल में भी था एआई?

आज कल एआई यानि आर्टिफिषियल इंटेलिजेंस का बोलबाला है। चैट जीपीटी व जैमिनी इसका व्यापक प्रसार कर रहे हैं। हर क्षेत्र में इसका उपयोग हो रहा है। यह वाकई किसी चमत्कार से कम नहीं है। लेकिन गहराई से विचार करने पर लगता है कि एआई बहुत पहले से था। आज सिर्फ उसका नामकरण किया गया है। पहले जो एआई था, वह दूसरे रूप में था। उसे अतीन्द्रिय बुद्धिमत्ता की संज्ञा दी जा सकती है। असल में एआई आज जिस मुकाम पर है, वह एक लंबी प्रक्रिया की परिणति है। और अब भी लगातार विकसित हो रहा है। 

इसे समझने की कोषिष करते हैं। कहते हैं न कि आज जो विमान है, उसका आयाम कुछ और है, वैज्ञानिक। रामायण काल में पुश्पक विमान था, वह भी आज जैसा विमान रहा होगा, बस फर्क इतना है कि उसका आयाम और था, आध्यात्मिक। उसकी तकनीक, उसकी कीमिया कुछ और थी। आज जिसे हम परमाणु बम कहते हैं, वह पहले ब्रह्मास्त्र के रूप में था। आज टीवी के जरिए हम दूरदराज की घटना हाथोंहाथ देख रहे हैं, ठीक वैसी दिव्य दृश्टि महाभारत के संजय के पास थी, जिसका उपयोग कर वे धृतराश्ट को युद्ध का वर्णन कर रहे थे। आज सर्जरी के जरिए हार्ट टांसप्लांट हो रहा है, किडनी का टांसप्लांट हो रहा है, ठीक उसी तरह किसी काल में षिव जी ने हाथी का सिर गणेष जी पर लगा दिया था। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। इस परिप्रेक्ष्य में विचार करें तो आज जिसे हम एआई कह रहे हैं, उसी से मिलती जुलती विधा प्राचीन काल में रही होगी। आपको ज्ञात होगा कि जैन दर्षन पूर्णतः विज्ञान आधारित है, तभी तो तीर्थंकरों के बारे में पहले से संकेत मिलते थे। वह उस जमाने की एआई का कमाल था। पुराणों में वर्णित प्रसंगों में आने वाले समय व युग में होने वाली घटनाओं का जिक्र स्पश्टतः एआई की तरह की ही कीमिया है। उसे भले ही ज्योतिशीय गणना माना जाए, मगर सारे युगों के बारे में विस्तार से जिस विधा से जाना गया, वह एआई जैसी ही रही होगी। कलयुग में भगवान विश्णु के अंतिम अवतार कल्कि के बारे में पहले से जान लिया गया तो वह अतीन्द्रिय बुद्धिमत्ता की वजह से ही संभव हुआ होगा। आपकी जानकारी में होगा कि पिरामिड इतने बडे पत्थरों से बने हैं, जिन्हे क्रेन से भी नहीं उठाया जा सकता। उस जमाने में क्रेन नहीं थी, तो फिर उन्हें कैसे उठाया गया। इसी प्रकार पहाडियों पर मंदिर निर्माण के लिए बडे बडे पत्थर कैसे पहुंचाए जा सके? जाहिर है ऐसा एआई जैसी विधा से ही संभव हो पाया होगा।

वैसे एआई अर्थात कृत्रिम बुद्धिमत्ता का इतिहास भी कुछ पुराना है। इसका आरंभिक विकास 1950 के दशक में हुआ, जब शोधकर्ताओं ने यह समझना शुरू किया कि कंप्यूटर को सोचने और निर्णय लेने जैसी क्षमताओं के लिए प्रोग्राम किया जा सकता है। 1950 के दशक में

एलन ट्यूरिंग ने ट्यूरिंग टेस्ट का प्रस्ताव दिया, जो यह जांचने के लिए था कि क्या कोई मशीन इंसानों की तरह बौद्धिक व्यवहार कर सकती है।

1956 में डार्टमाउथ सम्मेलन में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस शब्द पहली बार गढ़ा गया। इसे एआई शोध का औपचारिक आरंभ माना जाता है।

1960-70 के दशक में प्रारंभिक एआई प्रोग्राम जैसे चौटबॉट और शृंखला-आधारित विशेषज्ञ सिस्टम बनाए गए। एआई का उपयोग मुख्य रूप से गणितीय प्रमेयों को हल करने और तर्कसंगत समस्याओं को सुलझाने के लिए किया गया।

1980 के दशक में एक्सपर्ट सिस्टम का विकास हुआ, जो विशेष ज्ञान-आधारित निर्णय लेने में सक्षम था। मशीन लर्निंग और न्यूरल नेटवर्क्स पर नए शोध सामने आए।

1990 के दशक में डीप ब्लू नामक कंप्यूटर ने 1997 में शतरंज चैंपियन गैरी कास्पारोव को हराया। इसने साबित किया कि कंप्यूटर जटिल निर्णय लेने और रणनीति बनाने में भी सक्षम हैं।

2000 के बाद के युग में मशीन लर्निंग और डीप लर्निंग ने एआई को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। सिरी, एलेक्सा और गूगल असिस्टेंट जैसे वॉयस असिस्टेंट्स एआई को रोजमर्रा के जीवन में लाए। अब एआई लगभग हर क्षेत्र में मौजूद है, यथा स्वास्थ्य, शिक्षा, मनोरंजन, परिवहन, और उद्योग। कुल जमा एआई न केवल समस्याओं को हल कर रहा है, बल्कि नई संभावनाओं को भी उत्पन्न कर रहा है, जैसे रचनात्मक लेखन, संगीत निर्माण, वैज्ञानिक अनुसंधान आदि।


शनिवार, 28 दिसंबर 2024

यह नर्क, पृथ्वी कोई और है?

महान युग पुरूश गुरू नानक साहब संसार की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि नानक दुखिया सब संसार। अर्थात दुनिया में सभी दुखी हैं। सुखी कोई भी नहीं। गरीब तो दुखी है है, अमीर भी दुखी है। अमीर के पास चाहे कितनी सुख सुविधा हो, मगर वह भी दुखी है। साधन संपन्न भी भांति भांति के दुखों से घिरा हुआ है। उसे भी किसी न किसी प्रकार की तकलीफ है। गुरु नानक जी ने इस सत्य को समझाया कि लोग अपने जीवन में सुख और शांति पाने की कोशिश करते हैं, लेकिन सांसारिक मोह, इच्छाओं और अहंकार के कारण वे दुखों से घिर जाते हैं। हमें भी दिखाई देता है कि चहुं ओर कितनी पीडा, तकलीफ, परेषानी और कश्ट भोग रहे हैं लोग। अन्य दार्षनिक भी इस दुनिया को दुखमय मानते हैं और दुख से निवृत्ति के उपाय बताते हैं। यानि कि एक अर्थ में यह संसार ही नर्क है। कहा भी जाता है न कि यह धरती भोग भूमि है। यहां आदमी कर्मानुसार भोग भोगने आता है। ऐसे में ख्याल आता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस भोग भूमि को हम पृथ्वी कहते हैं, वह असल में नर्क है, नर्क कहीं और नहीं है और पृथ्वी कोई और है। कदाचित आप इसे नकारात्मक चित्त की अभिव्यक्ति कह सकते हैं, मगर सच्चाई यही है कि जिसे हम सुख मानते हैं, वह अनित्य और क्षण भंगुर है।

मंगलवार, 24 दिसंबर 2024

माताश्री को हुआ था मृत्यु का पूर्वाभास

मृत्यु का पूर्वाभास होने की अनेक घटनाएं आपने सुनी होंगी। कुछ पूर्ण सत्य हो सकती हैं तो कुछ आंशिक सत्य। कोई ऐसी घटनाओं को मात्र संयोग मानते हैं तो कोई वास्तविक। मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना।

मेरी माताश्री ने देहावसान से पहले जिस तरह के संकेत दिए, वे ऐसा आभास देते हैं कि मृत्यु का पूर्वाभास होता है। उन्होंने अपने पास जो भी जमा राशि थी, वह सब अपनी औलादों व उनके बेटे-बेटियों को बांट दी। कदाचित उन्हें पूर्वाभास था कि चंद माह में उनका निधन हो जाएगा, इसलिए जीते-जी जमा राशि बांट दी जाए। मृत्यु से तीन दिन पहले उन्होंने एक सपने का जिक्र किया था। वो यह कि उन्होंने सपने में देखा है कि मेरे पिताश्री ने स्नेहपूर्वक उनके कंधे पर हाथ रखा है। इस पर उन्होंने उन्हें टोका कि यह क्या कर रहे हो, सामने ही बेटा खड़ा है। पिताश्री ने कहा कि कोई बात नहीं। उन्होंने बताया कि आज भले ही पति-पत्नि आपस में चिपक कर खड़े हो जाते हैं, पति-पत्नी एक दूसरे के कंधे पर हाथ रख कर फोटो खिंचवाते हैं और उसे फेसबुक तक पर सार्वजनिक कर देते हैं, मगर पुराने समय में ऐसा कत्तई नहीं किया जाता था। न तो ऐसी मुद्रा में अपनी संतान के सामने खड़े होते थे और न ही माता-पिता के सामने।

खैर, उन्होंने सपने में दिखाई दिए जिस प्रसंग का जिक्र किया, वह इस बात का संकेत था कि जल्द ही वे प्रस्थान करने वाली हैं। इस प्रकार का हवाला शास्त्रों में भी आया है कि यदि आपका कोई बहुत निकट संबंधी सपने में आपके बिलकुल करीब आ जाए तो उसका अर्थ ये होता है कि देह त्यागने और उसके साथ जाने का समय आ गया है। मुझे नहीं पता कि उन्होंने सपने का जिक्र इस तथ्य को जानते हुए किया अथवा सहज भाव से, मगर शास्त्रानुसार उन्होंने इशारा कर दिया था कि अब वे छोड़ कर जाने वाली हैं। वैसे वे पहले भी कई बार पिताश्री के सपने में आने का जिक्र करती रहीं। कई बार कहा कि पिताश्री को अमुक चीज खाने की इच्छा है। हम उनकी सपने की बात सुन कर वह चीज बना कर कन्या अथवा गाय को खिला दिया करते थे। पिताश्री उन्हें परिवार में कोई शुभ कार्य होने की भी पूर्व सूचना दिया करते थे।

एक और महत्वपूर्ण बात। वे मृत्यु से एक दिन पूर्व पूर्ण स्वस्थ थीं। खुद का सारा काम खुद ही किया। रात में उनक तबियत कुछ खराब हुई। तकरीबन साढ़े तीन बजे उन्होंने भूख लगने की बात कही। मैंने उन्हें उनकी पसंदीदा खिचड़ी व दही खाने को दी। उन्होंने बाकायदा पालथी मार कर थाली में चम्मच से उसे पूरा खाया। उसके बाद दो-तीन बार पानी भी मांगा। सुबह तबियत ज्यादा खराब होने पर उन्हें अस्पताल ले गए, जहां ऑक्सीजन लेवल कम होने के कारण उनका निधन हो गया। इसका जिक्र मैने अपने मित्र वरिष्ठ पत्रकार श्री सुरेश कासलीवाल से किया तो उन्होंने कहा कि आपको उनके खाना मांगने पर ही समझ जाना चाहिए था। इस सिलसिले में उन्होंने अपने पिताश्री व अन्य के अनेक प्रसंगों का जिक्र किया। इस बारे में अन्य जानकारों से पूछा तो उन्होंने भी यह बताया कि शुद्धात्माएं खाली पेट देह नहीं छोड़तीं। अर्थात तृप्त हो कर ही प्रस्थान करती हैं।

बहरहाल, इन चंद घटनाओं से मुझे ये आभास होता है कि मृत्यु से पूर्व उसका आभास होता है, किसी को कम, किसी को ज्यादा।


धरने-प्रदर्शनों में खाये धक्के

पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान एक रैली निकालने की तैयारी हो रही थी। श्रीनगर रोड स्थित सुख सदन पर नेताओं व कार्यकर्ताओं का जमावड़ा हो रखा था। मैं भी वहीं खड़ा था। अचानक मेरे एक फोटोग्राफर मित्र मेरे पास आए, जो कि दैनिक भास्कर में साथ काम किया करते थे। वे बोले मैं आपकी ये हालत देख कर अफसोस में हूं। ऐसा कहते-कहते उनकी आंखें नम हो गईं। वे बोले- एक जमाना था कि जब ये नेता आपके पैर छुआ करते थे। कांग्रेस के हों या भाजपा के, आपसे मिलने के लिए उनको प्रेस के बाहर इंतजार करना पड़ता था। क्या रुतबा था। मैं उस वक्त का चश्मदीदी गवाह हूं। अपनी खबर व फोटो छपवाने के लिए आपसे कितनी अनुनय-विनय किया करते थे। और आज ये ही धरने-प्रदर्शन के दौरान फोटो खिंचवाने के चक्कर में आपको धक्का देकर आगे निकलने की कोशिश करते हैं। नेता क्या, कार्यकर्ता तक ये नहीं देखते कि वे किसे धक्का दे रहे हैं। आप क्यों चले आए राजनीति में? 

मेरे मित्र का ऑब्जर्वेशन सही है। उनका सवाल भी वाजिब है। पता मुझे भी था कि राजनीति में जाने पर मुझे क्या खोना पड़ सकता है। पत्रकारिता में जिसने सदैव निष्पक्षता का ख्याल रखने की कोशिश की हो, वह बिना किसी पॉलिटिकल बैक ग्राउंड व आर्थिक संपन्नता के राजनीति में कैसे और क्यों आ गया, इस पर तफसील से फिर कभी बात करेंगे। जरूर करेंगे। करनी ही है। मगर फिलहाल इतना कि पिछले दोनों विधानसभा चुनावों में अजमेर उत्तर से मेरी प्रबल दावेदारी थी। मैं जानता था कि जो लोग मुझे एक पत्रकार के नाते सम्मान दे रहे हैं, वे ही बाद में कंधे से कंधा भिड़ाएंगे। फिश प्लेटें भी गायब करने की कोशिश करेंगे। बेशक मेरी भी गरज रही, इस कारण गम खाने को तैयार रहा। दोनों बार जिन भी वजहों से टिकट नहीं मिला, उस पर फिर चर्चा करेंगे, लेकिन कुछ लोगों ने जिस प्रकार अपनी असली औकात दिखाई तो थोड़ा मलाल हुआ। हालांकि मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं, मगर इस बहाने संबंधों की हकीकत का पर्दाफाश हो गया। मुझे मेरे धर्म से मतलब, उन्होंने जो किया, वो उनका धर्म था। उनका क्या, राजनीति का यही धर्म है। वे अपनी जगह ठीक ही थे। मैं उनका शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने मुझे जमीनी हकीकत से रूबरू कराया। खुदा हाफिज।


रविवार, 22 दिसंबर 2024

उकडू बैठ कर भोजन करना बहुत फायदेमंद

दोस्तो, नमस्कार। हालांकि आजकल डाइनिंग सेट पर भोजन करने का चलन है। बफे सिस्टम में खडे हो कर या टेबल कुर्सी पर बैठ कर भोजन किया जाता है, लेकिन आज भी अनेक परंपरावादी मुसलमान उकड़ू बैठ कर भोजन करते है। उकडू यानि वीर हनुमान की गदा लेकर बैठने की मुद्रा। जिसमें एक घुटना जमीन पर और दूसरा पेट से सटा हुआ। इस्लाम में इस तरह बैठ कर भोजन करने की परंपरा का संबंध इस्लामिक शिक्षाओं, स्वास्थ्य लाभों और सांस्कृतिक आदतों से जुड़ा है। इस्लाम में पैगंबर मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपने जीवन में जो आचरण अपनाए, उन्हें सुन्नत कहा जाता है। उकड़ू बैठ कर भोजन करना पैगंबर साहब की सुन्नतों में से एक है। इसकी जानकारी मुझे अरसे पहले तत्कालीन दरगाह नाजिम षकील अहमद ने दी थी। उन्होंने मुझे दावत पर बुलाया था। जब देखा कि वे उकडू बैठ कर भोजन कर रहे हैं, तो मैने जिज्ञासावष इसका सबब पूछा। उन्होंने बताया कि उकडू बैठने से आमाषय कुछ संकुचित होता है, जिससे जरूरत या भूख से कुछ कम भोजन किया जा सकता है। आयुर्वेद भी कहता है कि आमाषय को पूरा भोजन से नहीं भर लेना चाहिए। आमाषय में आधा हिस्सा भोजन, एक चौथाई हिस्सा पानी के लिए और दूसरा चौथाई हवा के लिए होना चाहिए। इससे भोजन अच्छी तरह से पचता है। अन्यथा अधिक भोजन के कारण बदहजमी होती है। उकड़ू बैठने से रीढ़ की हड्डी सीधी रहती है, जो षरीर के लिए लाभदायक है। प्रसंगवष बता दें कि सुन्नत के मुताबिक पानी बैठ कर एक एक घूंट करके पीने की परंपरा है, जो स्वास्थ्य के लिए अच्छा है।


मंगलवार, 3 दिसंबर 2024

अंतिम संस्कार में भी शॉर्टकट

हम षॉर्टकट के आदी होने लगे हैं। हर जगह षॉर्टकट तलाष लेते हैं। आपको ख्याल में होगा कि हमारे यहां किसी व्यक्ति के अंतिम संस्कार के दौरान लकडी देने की परंपरा है। अंतिम संस्कार के आखीर में ष्मषान स्थल पर आए सभी षुभचिंतक चिता की अग्नि में लकडी का टुकडा डालते हैं। यह श्रद्धा को अभिव्यक्त करने का एक तरीका है। अंतिम संस्कार में अपनी भागीदारी, अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने का एक तरीका है। आजकल ऐसा देखने में आया है कि छोटी-छोटी लकडियों के अभाव में अथवा षॉर्टकट अपनाते हुए एक व्यक्ति लकडी का टुकडा ले कर उसको सभी षुभचिंतकों के हाथ छुआ लेता है और चिताग्नि को समर्पित कर देता है। सुविधा के लिहाज से सभी को यह षॉर्टकट ठीक प्रतीत होता है। इसमें समय की बचत तो होती ही है, लकडियां भी कम लगती हैं। षॉर्टकट में कुछ लोग लकडी समर्पित करने वाले का हाथ छूकर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। यह तरीका कितना सही है, पता नहीं, मगर ठीक इसलिए मान सकते हैं कि वस्तु की नहीं बल्कि भाव की महत्ता है।


रविवार, 1 दिसंबर 2024

नेताओं को अफसरों पर गुस्सा क्यों आता है?

राजनीति व अफसरषाही के बीच बिगडी केमेस्टी की वजह से षासन-प्रषासन की पेषानी पर चिंता की रेखाएं उभर आई हैं। ताजा कुछ घटनाओं ने इस बहस को जन्म दिया है कि अफसरषाही से त्रस्त नेता क्यों मर्यादा लांघने को आमादा हैं? पहले विधायक श्रीमती अनिता भदेल का आक्रोश सामने आया तो फिर विधानसभा उपचुनाव में प्रत्याषी नरेष मीणा ने एक अफसर को थप्पड ही जड दिया। जाहिर तौर पर नेताओं के इस रवैये की कडी मजम्मत हुई। होना स्वाभाविक भी है। नेताओं का आक्रोश जायज हो सकता है, मगर उसकी अभिव्यक्ति जिस रूप में फूट रही है, वह सिस्टम पर सवाल खडे कर रही है। इसी कडी में हाल ही अजमेर में गांधी भवन पर कांग्रेस पार्शदों के धरने के दौरान कांग्रेस के बिंदास नेता कैलाष झालीवाल बयान चर्चा में आ गया है। वे यह कहते सुनाई दे रहे हैं कि जो नरेष मीणा ने किया, वह हाल करेंगे। बेषक, नेताओं के जहरीले षब्द बाणों की आलोचना होनी ही है, हो भी रही है, मगर असल मुद्दा यह है सरकार को चलाने वाले दो अहम पहियों नेता व अफसरों के बीच तालमेल क्यों बिगड रहा है? प्रषासन के षीर्श तंत्र के लिए यह चिंता का विशय है। तंत्र यदि ठीक से काम करे तो नेता को इस तरह बिफरने का मौका ही नहीं मिले। इस मामले में मुख्यमंत्री व मुख्य सचिव को जल्द विचार करना होगा कि इस तरह का टकराव कैसे रोका जाए। अगर लापरवाही बरती गई तो न केवल हम अराजकता की ओर बढ जाएंगे, अपितु विकास भी बाधित होगा। विकास के लिए नेता व अफसरों के बीच बेहतर तालमेल, बेहतर सामंजस्य जरूरी है। बेहतर यह रहेगा कि ऐसी घटनाओं पर कानूनी कार्यवाही मात्र करने की बजाय उनकी पुनरावृत्ति न होने को सुनिष्चित किया जाए। उन कारणों को भी तलाषा जाए, साथ ही उनका निराकरण भी हो, जिनकी वजह से नेता बेकाबू हो जाते हैं।


संपादक के भीतर का लेखक मर जाता है?

एक पारंगत संपादक अच्छा लेखक नहीं हो सकता। उसके भीतर मौजूद लेखक लगभग मर जाता है। यह बात तकरीबन तीस साल पहले एक बार बातचीत के दौरान राजस्थान र...