वस्तुतः एआई जनित प्रचार सामग्री चुनाव आयोग के लिए एक बड़ी नई चुनौती बनकर उभर रही है। एआई की मदद से उम्मीदवारों या नेताओं की नकली आवाज और चेहरे वाले वीडियो आसानी से बनाए जा सकते हैं, जिन्हें आम जनता वास्तविक मान लेती है। चुनाव आयोग के लिए यह तय करना मुश्किल होता है कि कौन-सा वीडियो असली है और कौन सा एआई से तैयार किया गया है। एआई टूल्स बड़ी मात्रा में झूठे या आधे-सच वाले संदेश, पोस्ट और ग्राफिक्स तैयार कर सकते हैं। सोशल मीडिया पर इन सामग्रियों को रोकना लगभग असंभव हो जाता है, जिससे मतदाताओं की राय प्रभावित होती है। एआई मतदाताओं के ऑनलाइन व्यवहार और डेटा के आधार पर पर्सनलाइज्ड संदेश बना सकता है। इससे चुनाव की निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं क्योंकि यह मतदाताओं की सोच को छिपे तरीके से प्रभावित करता है। वर्तमान कानूनों में एआई-जनित सामग्री के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं हैं। चुनाव आयोग को तय करना पड़ता है कि क्या ‘एआई प्रचार’ स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अंतर्गत आता है या यह आचार संहिता का उल्लंघन है। एआई सामग्री इतनी तेजी से बनती और फैलती है कि आयोग के पास मौजूद तकनीकी संसाधन उसे तुरंत सत्यापित नहीं कर पाते। वास्तविकता जांच और नियंत्रण में समय लग जाता है। अधिकतर मतदाता एआई जनित सामग्री और असली सामग्री में फर्क नहीं कर पाते।
इससे गलत जानकारी के आधार पर वोटिंग निर्णय लिए जा सकते हैं।
कुल मिला कर एआई जनित प्रचार सामग्री चुनाव की निष्पक्षता, पारदर्शिता और विश्वसनीयता, तीनों के लिए गंभीर खतरा है। इससे निपटने के लिए चुनाव आयोग को चाहिए कि वह एआई सामग्री की पहचान के लिए तकनीकी सेल बनाए, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के साथ रीयल-टाइम मॉनिटरिंग करे, और जनता में डिजिटल साक्षरता अभियान चलाए।
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