रविवार, 28 जून 2020

अखबार के दफ्तर को छूकर बन गया खबरनवीस!

पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाती है। यह सरकार व आमजन के बीच सेतु का काम करती हैं। न केवल जमीनी हकीकत से सत्ता को रूबरू कराती है, अपितु उसे आइना दिखाने का भी काम करती है। ऐसे में इसने एक शक्ति केन्द्र का रूप अख्तियार कर लिया है। पत्रकार को प्रशासन व सोसायटी में अतिरिक्त सम्मान मिलता है। यानि के पत्रकार ग्लेमर्स लाइफ जीता है। किसी जमाने में पत्रकारिता एक मिशन थी, मगर अब ये केरियर भी बन गई। इन्हीं दो कारणों से इसके प्रति क्रेज बढ़ता जा रहा है।
जहां तक केरियर का सवाल है, सिर्फ वे ही पिं्रट व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में टिक पाते हैं या स्थान बना पाते हैं, जो एकेडमिक बेस रखते हैं, इसके प्रति गंभीर होते हैं और प्रोफेशनल एटीट्यूड रखते हैं। बाकी के केवल रुतबा बनाने के लिए घुस गए हैं। वे जहां-तहां से आई कार्ड हासिल कर लेते हैं और उसे लेकर इठलाते हैं। उन्हें न तो इससे कुछ खास आय होती है और न ही उसकी दरकार है। ये ही फर्जी पत्रकार माने जाते हैं। मगर कुछ ऐसे भी हैं, जिन्होंने इसे आजीविका का जरिया समझ लिया है। न तो उन्हें कुछ आता-जाता है और न ही उनको नियमित आय होती है। ऐसे में वे ब्लैकमेलिंग करके गुजारा करते हैं।
ज्ञातव्य है कि जैसे ही सरकार व प्रशासन के संज्ञान में आया है कि फर्जी व ब्लेकमेलर पत्रकारों की एक जमात खड़ी हो गई है, उसने पर इन अंकुश लगाने की कोशिश भी शुरू कर दी है। पत्रकारों के संगठन भी इनको लेकर चिंतित हैं, क्योंकि इस जमात ने पत्रकारिता को बहुत बदनाम किया है।
लंबे समय तक पत्रकारिता करने के चलते मुझे इस पूरे गड़बड़झाले की बारीक जानकारी हो गई है। उस पर फिर कभी विस्तार से चर्चा करेंगे। आज एक ऐसा उदाहरण पेश कर रहा हूं, जो कि फर्जी पत्रकारिता की पराकाष्ठा है।
हुआ यूं कि कुछ साल पहले दैनिक न्याय घराने के श्री ऋषिराज शर्मा ने न्याय सबके लिए के नाम से नया अखबार शुरू किया। उन्होंने स्टाफ की भर्ती के लिए आवेदन मांगे। मुझे बुला लिया इंटरव्यू के लिए। छोटी-मोटी कई रोचक घटनाएं हुईं, मगर उनमें से सबसे ज्यादा दिलचस्प वाकया बताता हूं। एक युवक आया कि मुझे रिपोर्टर बनना है। असल में उसे कोई अनुभव नहीं था। बिलकुल फ्रैश था। मैने उससे कहा कि ऐसा करो, पहले कुछ छोटा-मोटा लेख या समाचार बना कर आओ, ताकि यह पता लग सके कि आपको ठीक से हिंदी आती भी है या नहीं। उसने कहा कि ठीक है, कल आता हूं। वह नहीं आया। यानि कि वह अखबार के दफ्तर को छूकर गया। मैं भी भूल-भाल गया। कोई छह बाद अज्ञात नंबर से एक फोन आया। उसने अपना नाम बताते हुए कहा कि आपको याद है कि मैं आपके पास पत्रकार बनने आया था। मैंने दिमाग पर जोर लगाया, तो याद आया कि इस नाम का एक युवक आया तो था। उसने बड़े विनती भरे अंदाज में कहा कि प्लीज मेरी मदद कीजिए। मैने पूछा-बोलो। उसने कहा कि वह क्लॉक टॉवर पुलिस थाने में खड़ा है। मोटरसाइकिल के कागजात नहीं होने के कारण उसे पकड़ लिया है। उसने पुलिस से कहा है कि वह पत्रकार है। पुलिस ने उसे वेरिफिकेशन कराने को कहा तो उसने कह दिया कि वे न्यास सबके लिए का पत्रकार है। प्लीज, आप उनसे कह दीजिए कि मैं आपके अखबार में काम करता हूं। ओह, ऐसा सुनते ही मेरा तो दिमाग घनचक्कर हो गया। खैर, मैने उसे न केवल डांटा, बल्कि साफ कह दिया कि मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता। आप कल्पना कर सकते हैं कि ये मामला तो उसके पकडे जाने का है, न जाने उसने कितनी जगह अपने आपको पत्रकार के रूप में पेश किया होगा। बाद में सोचने लगा कि कैसा जमाना आ गया है। जिसने पत्रकारिता का कक्का भी नहीं सीखा, वह पत्रकार बन कर घूम रहा है। जो किसी अखबार की बिल्डिंग को मात्र छू कर आ गया, वही पत्रकार कहलाने लगा है। फर्जीवाड़े की इससे ज्यादा पराकाष्ठा नहीं हो सकती।
यह तो महज एक उदाहरण है। इस किस्म के कई पत्रकार हैं शहर में, जो किसी पत्रकार के मित्र हैं और मौका देखते ही पत्रकार बन जाते हैं। होता ये है कि वे पत्रकारिता तो बिलकुल नहीं जानते, मगर पत्रकारिता जगत के बारे में पूरी जानकारी रखते हैं। इस कारण किसी से बात करते हुए यह इम्प्रेशन देते हैं कि वे पत्रकार हैं। ऐसे पत्रकार भी हैं, जिन्होंने महिना-दो महिना या साल-दो साल शौकिया पत्रकारिता की, उसका फायदा उठाया और अब कुछ और धंधा करते हैं, मगर अब भी पत्रकार कहलाते हैं। इस किस्म के पत्रकारों की जमात ने न केवल पत्रकारिता के स्तर का सत्यानाश किया है, अपितु बदनाम भी बहुत किया है।
सोशल मीडिया के जमाने में जमाने में पत्रकारिता टाइप की एक नई शाखा फूट पड़ी है। यह कोरोना की तरह एक वायरस है, जो यूट्यूब, फेसबुक, वाट्स ऐप पर वायरल हो गया है। ब्लॉगिंग तो फिर भी और बात है, मगर यह खेप दो-चार पैरे लिख कर मन की भड़ास निकाल रही है। कई नए यूट्यूब न्यूज चैनल शुरू हो चुके हैं। इन्हीं की वैधानिकता पर सवाल उठ रहे हैं। पत्रकार संगठनों को समझ नहीं आ रहा कि इन्हें पत्रकार माने या नहीं, चूंकि वे कर तो पत्रकारिता ही रहे हैं, अधिकृत या अनधिकृत, यह बहस का विषय है। प्रशासन ने तो इन्हें मानने से इंकार कर ही दिया है। इसकी बारीक पड़ताल फिर कभी।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शनिवार, 27 जून 2020

लानत है हम पर...

लानत है हम पर कि तकरीबन ढ़ाई माह तक लॉक डाउन की पीड़ा भुगतने के बाद भी हमें सुधारने के लिए सरकार को मास्क व सोशल डिस्टेंसिंग की पालना का जागरूकता अभियान चलाना पड़ रहा है।
असल में लॉक डाउन एक मजबूरी थी, जिसने काफी हद तक कोरोना महामारी को रोकने की कोशिश की। रोका भी। यह बात दीगर है कि लॉक डाउन लागू करने के समय, उसके तरीके को लेकर विवाद है, जिससे कि पूरी अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है। एक समय तक तो लॉक डाउन बढ़ाया जाता रहा, मगर उससे हुए आर्थिक संकट और मानसिक पीड़ा ने अंतत: उसे समाप्त करने को मजबूर कर दिया। अब जबकि चरणबद्ध तरीके से लॉक डाउन समाप्त किया जा रहा है, हमारी लापरवाही के कारण महामारी और तेजी से बढ़ रही है। अर्थात लॉक डाउन के दौरान हुई भारी परेशानी के बाद भी हम सोशल डिस्टेंसिंग व मास्क की अनिवार्यता को नहीं समझ पाए। क्या हमें अपनी जान की परवाह तक नहीं, वह भी सरकार ही करे। अब जब कि सरकार दुबारा लॉक डाउन नहीं लगा सकती, ऐसे में ये हमारी जिम्मेदारी है कि किस प्रकार अपनी सुरक्षा करें। सरकार के हाथ में अब सिर्फ इतना ही है कि वह कैसे अधिक से अधिक स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवाए। मगर जब सरकार ने देखा कि आम लोग ये उपाय नहीं अपना रहे हैं, लापरवाही बरते रहे हैं, पुलिस को चकमा दे रहे हैं तो उसे जागरूकता अभियान चलाना पड़ गया। सरकार ने तो मास्क न पहनने व सोशल डिस्टेंसिंग न रखने को लेकर कानून तक बना दिया, जुर्माना लागू कर दिया, बावजूद इसके हम सुधरने का नाम नहीं ले रहे। समझ में नहीं आता कि हम भारतीय किस मिट्टी के बने हुए हैं। अरे जब हम लॉक डाउन के दौरान गरीबों को खाना बांट सकते हैं तो जागरूकता भी ला सकते हैं।  उसके लिए प्रशासन व पुलिस को क्यों जुटना पडे। जरा विचारिये, ये जो लाखों रुपया अभियान पर खर्च हो रहा है, वह हमारी बहबूदी के लिए काम आ सकता है।
ये हैं हमारी फितरतें
कैसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि जो हेलमेट हमारी स्वयं की सुरक्षा के लिए जरूरी है, जो सीट बैल्ट हमारी जान की रक्षा करता है, उसे भी पहनाने के लिए सरकार को सख्ती बरतनी पड़ती है। उसमें भी प्रभावशाली लोग और कुछ मीडिया वाले हेलमेट नहीं पहनने को अपनी शान समझते हैं। नियमों को तोडऩे में न जाने कैसा मजा आता है?
इस सिलसिले में ओशो का एक किस्सा याद आता है, जिसका लब्बोलुआब पेश है। एक बार एक भारतीय मंत्री विदेश गए। कड़ाके की सर्दी थी। वे किसी पार्टी से देर रात कार में लौट रहे थे। एक चौराहे पर लाल लाइट देख कर ड्राइवर ने कार रोक दी। इस पर मंत्री महोदय ने कहा कि ट्रैफिक तो बिलकुल नहीं है, कार रोकने की जरूरत क्या है? यानि कि यातायात के नियम तोडना उनकी आदत में शुमार था। इस पर ड़ाइवर ने उन्हें सामने दूसरी साइड पर खड़ी एक बुढिय़ा की ओर इशारा किया कि देखो वह कैसे ठिठुर रही है, मगर फिर भी हरी लाइट होने का इंतजार कर रही है। इस दृष्टांत से समझा जा सकता है कि सरकारी नियमों का पालन करने में हम कितने बेपरवाह हैं।
आपने देखा होगा कि जहां पर भी लिखा होता है कि यहां कचरा फैंकना मना है, हम वहीं पर कचरा डाल आते हैं। सड़क पर कचरा या केले का छिलता फैंकना तो मानो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। मेरे एक मित्र ने बताया कि वे एक बार अपने बेटे के पास कुछ दिन रहने के लिए अमेरिका गए थे। वे एक कार में सफर कर रहे थे। जैसे ही उन्होंने वेफर्स खा कर खाली पाउच कार के बाहर फैंकना चाहा तो उनके बेटे ने रोक दिया और उसे कार में रखे डस्ट बीन में डाल दिया। बाद में जब सड़क के किनारे नियत स्थान पर कचरा पात्र दिखाई दिया तो कार रोक कर डस्ट बीन का कचरा उसमें डाल दिया। बेटे ने बताया कि यहां कोई भी कचरा सड़क पर नहीं फैंकता। गलती से अगर हम कचरा सड़क पर फैंक देते तो सीसी टीवी केमरे की पकड़ में आ जाते और जुर्माना ऑटोमेटिकली बैंक खाते से वसूल लिया जाता। इस उदाहरण से आप समझ सकते हैं कि हम कहने भर को सभ्य हैं, मगर सिविक सेंस भेजे में घुस ही नहीं रहा। गंदगी में रहने के इतने आदी हो चुके हैं कि स्वच्छता अभियान पर करोड़ों रुपए खर्च करने पड़ते हैं।
आपने देखा होगा कि जिस जगह भी लिखा होता है कि यहां पेशाब करना मना है, वहीं पर हम मूत्र विसर्जन करते हैं। सुलभ शौचालयों को छोड़ कर जहां भी सार्वजनिक मूत्रालय या शौचालय हैं, उनमें कितनी गंदगी होती है। वहां एक पल भी नहीं खड़ा रहा जा सकता।
क्या ये कम जहालत है कि रेलवे के डिब्बों में शौचालयों में लिखवाना पड़ता है कि कृपया कमोड गंदा न करें। हद हो गई। अंग्रेजों ने हमें रेल की सौगात दी, मगर आजादी के इतने साल बाद भी हमें ये सऊर नहीं आया कि कमोड को उपयोग करना कैसे है।
हम बड़े धार्मिक कहलाते हैं, मगर इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण क्या होगा कि मंदिरों, दरगाहों, अस्पतालों आदि में चल रही प्याऊ पर रखे गिलास व लोटे को जंजीर से बांधना पड़ता है। ऐसी सब गंदी आदतों के बाद भी ये देश चल रहा है। वाकई भगवान मालिक है। वही इस देश को चला रहा है।
ये सब लिखते हुए तकलीफ तो बहुत हुई, मगर कलम को रोक नहीं पाया। क्षमाप्रार्थी हूं।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

गुरुवार, 25 जून 2020

मोरारी बापू कितने सही, कितने गलत?

सुप्रसिद्ध कथा वाचक मोरारी बापू इन दिनों खासे विवाद में हैं। उन पर भद्दी-भद्दी गालियां बरस रही हैं। अन्य धर्मों के प्रति उनकी सदाशयता तो बहस का विषय है ही, विशेष रूप से भगवान श्रीकृष्ण को लेकर दिया गया बयान उनकी मुसीबत बन गया है। हालांकि उन्होंने अपने बयान के लिए बाकायदा खेद व्यक्त कर दिया है, मगर अनेक धर्मप्रेमी उनके पीछे ल_ लेकर पड़े हुए हैं। विवाद को समाप्त करने के लिए द्वारिका जाने पर एक जनप्रतिनिधि ने उन पर हमले तक का प्रयास किया।
इस बीच मामला कुछ टर्न लेता भी दिखाई दे रहा है। मोरारी बापू के अनुयायी तो उनकी पैरवी कर ही रहे हैं कि उनका पूरा जीवन सनातन धर्म को समर्पित रहा है, अकेले एक बयान के आधार पर उनकी अब तक की साधना को शून्य नहीं किया जा सकता। पहले बुरी तरह से आलोचना कर चुके चंद विरोधियों का रुख भी कुछ नरम पड़ रहा है। वे बापू के कहने के ढंग पर तो ऐतराज कर रहे हैं, मगर तर्क दे रहे हैं कि मोरारी बापू ने अपने मन से कुछ नहीं कहा। उन्होंने कुछ शास्त्रों में उल्लिखित बातों  के आधार पर ही बयान दिया था। यानि कि अब विवाद घूम कर उन कथित शास्त्रों पर टिक रहा है, जिनके बारे में कहा जाता रहा है कि उनमें इस्लामिक साम्राज्य के दौरान काट-छांट कर अंटशंट बातें जोड़ दी गईं। यानि कि अब बहस ऐसे शास्त्रों की समीक्षा की ओर घूम रही है।
ज्ञातव्य है कि बापू ने एक कथा के दौरान ये बयान दे दिया कि दुनियाभर में धर्म की स्थापना करने वाले भगवान श्रीकृष्ण अपने राज्य द्वारिका में ही धर्म की स्थापना नहीं कर पाए। वहां अधर्म अपने चरम पर था। ऐसा कहते हुए वे यहां तक कह गए कि वे टोटली फेल हो गए। वे यहीं नहीं रुके, भावातिरेक में वे यहां तक बोले कि और भी कई बातें हैं, उनकी चर्चा न ही की जाए तो अच्छा है। यानि कि उनके पास कहने को और भी बहुत कुछ था, जो अगर सामने आता तो विवाद और भी अधिक गहरा हो सकता था।
इसमें कोई दोराय नहीं कि उनकी दृष्टि में जो सत्य था अथवा जो आवृत तथ्य उनकी जानकारी में आया, उसको अनावृत करने का तरीका धर्मप्रेमियों को चुभ गया। उनका कहना है कि वे कितने भी बड़े श्रीकृष्ण प्रेमी हों, आजीवन व्यास पीठ की मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया हो, मगर बयान के अतिरिक्त उनकी बॉडी लेंग्वेज तक श्रीकृष्ण की महिमा पर प्रहार करने वाली थी। असल में बापू दुखी उस विरोधाभास से थे कि उनके आराध्य अपनी द्वारिका को क्यों नहीं बचा पाए, भाई-बांधवों तक को नहीं सुधार पाए? मगर योगीराज, सर्वगुणसंपन्न व भगवान के अवतार श्रीकृष्ण के विपरीत टिप्पणी भला कैसे बर्दाश्त की जा सकती थी।
इतना तो तो तय है कि बापू न तो अंतर्यामी हैं और न ही त्रिकालदर्शी, कि अकेले उनको उस तथ्य का पता लग गया, जो कि अब तक छुपा हुआ था, और उन्होंने उद्घाटित कर दिया। ऐसा भी नहीं हो सकता कि उन्हें सपने में ऐसा कुछ नजर आया हो, जिसे अभिव्यक्त करना जरूरी हो गया हो। स्वाभाविक रूप से उन्होंने मसले का संदर्भ कहीं न कहीं पढ़ा होगा। वह संदर्भ गलत है या सही, यह तो धर्माचार्य व धर्म शास्त्रों के मर्मज्ञ ही निर्णय कर सकते हैं। पर इतना तय है कि बापू का कथन श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति रखने वालों के लिए बहुत पीड़ादायक था। इसको बापू को समझना चाहिए था। भावावेश में वे इसका अनुमान ही नहीं लगा पाए कि उनका कथन दिक्कत पेश कर सकता है। भले ही उन्हें श्रीकृष्ण के बारे में कुछ ऐसी जानकारियां मिल गई हों, जो कि आपत्तिजनक थीं, मगर उन्हें कहने की जरूरत क्या थी? बिना कहे भी चल सकता था। क्यों बैठे ठाले वर्षों की साधना व प्रभु सेवा से अर्जित प्रतिष्ठा को दाव पर लगा दिया। इसमें कोई दोराय नहीं है कि वे विद्वान हैं, शास्त्र के जानकार हैं, बेहतरीन कथा वाचक हैं, उनके चरित्र पर कोई बड़ा लांछन नहीं लगा है, मगर एक बयान मात्र ने उन्हें मुसीबत में डाल दिया।
जहां तक श्रीकृष्ण के बारे में आपत्तिजनक जानकारियां किन्हीं शास्त्रों में उल्लिखित होने का सवाल है, उस पर शास्त्रों के जानकार शंकराचार्यों व विद्वानों को चर्चा करनी चाहिए। अगर वास्तव में गलत जानकारियां उन शास्त्रों में प्रविष्ठ करवा दी गई हों तो उसका पता लगाना चाहिए कि ऐसा कैसे संभव हुआ। शंका होती है कि कहीं यह प्रसंग गांधारी के कथित श्राप से जुड़ा हुआ तो नहीं है। अधिकृत व जिम्मेदार धर्माचार्यों को शास्त्रार्थ के अतिरिक्त सर्वसम्मत निर्णय भी देना चाहिए। ऐसा करना इसलिए जरूरी है कि मुरारी बापू के मुख से निकला तथ्य एक बार तो सभी के संज्ञान में आ गया है। भले ही बापू ने खेद व्यक्त कर दिया हो, मगर वास्तविकता तो सब के सामने आनी ही चाहिए।
ऐसा नहीं कि यह एक मात्र मामला है, जिसको लेकर विवाद हुआ है, महाभारत के अनेक पात्रों को लेकर भी कुछ विरोधाभासी बातें प्रचलन में हैं। द्रोपदी को लेकर तो नाना प्रकार की बातें यूट्यूब पर मौजूद हैं। ऐसे में शास्त्रों की नए सिरे से व्याख्या की जरूरत महसूस होती है।

मोरारी बापू का चित्र बीबीसी न्यूज हिंदी से साभार

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

मंगलवार, 16 जून 2020

औंकारसिंह लखावत सिंधी हैं!

आपको यह जानकर निश्चित ही आश्चर्य होगा कि पूर्व राज्यसभा सदस्य व आसन्न राज्यसभा चुनाव में भाजपा के प्रत्याशी औंकार सिंह लखावत मूलत: सिंधी हैं। यह तथ्य किसी अन्य ने नहीं, अपितु स्वयं लखावत ने उद्घाटित किया है। इतना ही नहीं उन्होंने खुद के सिंधी होने पर गर्व भी अभिव्यक्त किया है।
दरअसल 15 जून को स्वामी न्यूज के एमडी कंवलप्रकाश किशनानी की पहल पर सिंधुपति महाराजा दाहरसेन विकास व समारोह समिति की ओर से महाराजा दाहरसेन के 1308वें बलिदान दिवस की पूर्व संध्या पर फेसबुक लाइव पर अंतरराष्ट्रीय ऑन लाइन परिचर्चा आयोजित की गई थी। ज्ञातव्य है कि अजमेर में महाराजा दाहरसेन के नाम पर एक बड़ा स्मारक बनाने का श्रेय लखावत के खाते में दर्ज है। तब वे तत्कालीन नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष थे। जब उन्होंने यह स्मारक बनवाया, तब अधिसंख्य सिंधियों तक को यह पता नहीं था कि महाराज दाहरसेन कौन थे? लखावत ने दाहरसेन की जीवनी का गहन अध्ययन करने के बाद यह निश्चय किया कि आने वाली पीढिय़ों को प्रेरणा देने के लिए ऐसे महान बलिदानी महाराजा का स्मारक बनाना चाहिए।
लखावत परिचर्चा के दौरान अपने धारा प्रवाह उद्बोधन में बहुत विस्तार से दाहरसेन के व्यक्तित्व व कृतित्व तथा सिंध के इतिहास की जानकारी दी। इसी दरम्यान प्रसंगवश उन्होंने बताया कि इन दिनों वे अपने पुरखों के बारे में पुस्तक लिख रहे हैं। प्राचीन पांडुलिपियों का अध्ययन करने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि उनके पूर्वज पाराकरा नामक स्थान के थे। जब और अध्ययन किया तो पता लगा कि पाराकरा सिंध में ही था। अर्थात वे मूलत: सिंधी ही हैं। उन्होंने इस बात पर खुशी जाहिर की कि उनके पूर्वज सिंध के थे और वे अपने आपको सिंधी होने पर गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। अपनी बात रखते हुए उन्होंने चुटकी भी ली कि उनका मन्तव्य न तो राजनीति करना है और न ही वे टिकट मांगने जा रहे हैं।
बेशक, लखावत का रहस्योद्धाटन करने का मकसद कोई राजनीति करना नहीं होगा, मगर उनके सिंधी होने का तथ्य राजनीतिक हलके में चौंकाने वाला है। साथ ही रोचक भी। ऐसा प्रतीत होता है कि मूलत: सिंधी होने के कारण ही उनकी अंतरात्मा में सिंध के महाराजा दाहरसेन का स्मारक बनवाने का भाव जागृत हुआ होगा। दाहरसेन स्मारक बनवा कर अपने पूर्वजों व महाराजा दाहरसेन के ऋण से उऋण होने पर वे कितने कृतकृत्य हुए होंगे, इसका अनुभव वे स्वयं ही कर सकते हैं।
यहां यह स्पष्ट करना उचित ही होगा कि सिंधी कोई जाति या धर्म नहीं है। विभाजन के वक्त भारत में आए सिंधी हिंदू हैं और सिंधियों में भी कई जातियां हैं। जैसे राजस्थान में रहने वाले विभिन्न जातियों के लोग राजस्थानी कहलाते हैं, गुजरात में रहने वाले सभी जातियों के लोग गुजराती कहे जाते हैं, वैसे ही सिंध में रहने वाले और उनकी बाद की पीढिय़ों के सभी जातियों के लोग भी सिंधी कहलाए जाते हैं। अत: लखावत के सिंधी होने पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
बेशक, सिंध के महाराजा दाहरसेन के नाम पर स्मारक बनवाने की वजह से सिंधी समुदाय की नजर में लखावत का विशेष सम्मान है। और अब जब यह भी तथ्य भी उजागर हुआ है कि लखावत सिंधी ही हैं तो सिंधी समाज अपने आपको और अधिक गौरवान्वित महसूस करेगा कि उनके समाज का व्यक्ति आज किस मुकाम पर है।
यहां यह उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि अजमेर नगर निगम के मेयर पद के चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार कमल बाकोलिया को उनके पिताश्री स्वतंत्रता सैनानी स्वर्गीय हरीशचंद्र जटिया के सिंध से होने का राजनीतिक लाभ हासिल हुआ था।
यहां यह उल्लेखनीय है कि परिचर्चा में मूलत: सिंधी व वर्तमान में अमेरिका में निवास करने वाले साहित्यकार मुनवर सूफी लघारी ने भी महाराजा दाहरसेन के बलिदान को रेखांकित किया। उन्होंने पाकिस्तान में रहने वालों की मजबूरी का इजहार किया और कहा कि भारत में अभिव्यक्ति की आजादी है। ऐसे में हिन्दुस्तान के हर शहर में राजा दाहरसेन का स्मारक व मार्ग का नामकरण होना चाहिए।
इस मौके पर महामंडलेश्वर स्वामी हंसराम जी महाराज ने भी सिंध व दाहरसेन की महिमा पर प्रकाश डाला। भारतीय सिन्धु सभा के राष्ट्रीय मंत्री महेन्द्र कुमार तीर्थाणी ने जानकारी दी कि 1997 में महाराजा दाहरसेन स्मारक का निर्माण हुआ था। सिन्धु सभा का ध्येय वाक्य है कि सिन्ध मिल कर अखंड भारत बने। कार्यक्रम का संचालन करते हुये स्वामी न्यूज के एमडी कंवल प्रकाश किशनानी ने संगोष्ठी की विस्तृत रूपरेखा रखते हुए कहा कि लॉक डाउन के कारण यह ऑन लाइन संगोष्ठी देश-दुनिया में महाराजा दाहरसेन के जीवन की गौरव गाथा लोगों तक पहुंचाने के लिए मील का पत्थर साबित होगी।
लखावत खुद को सिंधी बताते हुए कितने गद् गद् थे, इसको जानने के लिए आप निम्नांकित लिंक पर जा कर पूरी परिचर्चा यूट्यूब पर देख सकते हैं:-
https://youtu.be/PiFZ7TsMWJw


-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

रविवार, 14 जून 2020

पृथ्वीराज चौहान को अश्वत्थामा ने दी थी शब्दभेदी बाण की विद्या?

भारत के अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान (तृतीय), जिनका कि अजमेर की तारागढ़ पहाड़ी पर स्मारक बना हुआ है, के देहांत के साथ शब्द भेदी बाण का जिक्र आवश्यक रूप से आता है। उन्हें शब्द भेदी बाण चलाना किसने सिखाया या यह विद्या वरदान में दी, इसको लेकर इंटरनेट पर अलग-अलग तरीके से जानकारी पसरी हुई है। हालांकि उसके पुख्ता ऐतिहासिक प्रमाण को लेकर सभी जानकार मौन हैं, मगर किसी न किसी के हवाले से वे बताते हैं कि उन्हें यह विद्या अश्वत्थामा ने दी।
ज्ञातव्य है कि अश्वत्थामा के बारे में मान्यता है कि वे काल, क्रोध, यम व भगवान शंकर के सम्मिलित अंशावतार थे और आठ चिरंजीवियों में से एक हैं। वे गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र थे। द्वापर युग में जब कौरव व पांडवों में युद्ध हुआ था, तब उन्होंने कौरवों का साथ दिया था। अश्वत्थामा अत्यंत शूरवीर एवं प्रचंड क्रोधी स्वभाव के योद्धा थे। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को चिरकाल तक पृथ्वी पर भटकते रहने का श्राप दिया था। वे आज भी पृथ्वी पर अपनी मुक्ति के लिए भटक रहे हैं। यह भी मान्यता है कि मध्यप्रदेश के बुरहानपुर शहर से 20 किलोमीटर दूर असीरगढ़ के किले में भगवान शिव का एक प्राचीन मंदिर है। बताते हैं कि अश्वत्थामा प्रतिदिन इस मंदिर में भगवान शिव की पूजा करने आते हैं। अश्वत्थामा को अन्य कई स्थानों पर भी देखे जाने के किस्से हैं।
बताते हैं कि 1192 में पृथ्वीराज चौहान मुहम्मद गौरी से युद्ध में हार गए तो वे जंगल की ओर निकल पड़े। वे एक शिव मंदिर में प्रतिदिन आराधना करने जाते थे। वह शिव मंदिर क्या असीरगढ़ किले का ही मंदिर था, इस बारे में कोई उल्लेख नहीं है। एक बार उन्होंने पाया कि अलसुबह उनसे पहले कोई पूजा-अर्चना कर गया। इस पर उन्होंने इस रहस्य का पता लगाने के लिए भगवान शिव की आराधना की तो उन्हें एक बुजुर्ग ने दर्शन दिए। उसके सिर पर गहरा घाव था। पृथ्वीराज चौहान अच्छे वैद्य भी थे। उन्होंने उस व्यक्ति का घाव ठीक करने का प्रस्ताव रखा। वे मान गए। इलाज शुरू हुआ। जब एक हफ्ते के बाद भी कोई फायदा नहीं हुआ तो पृथ्वीराज चौहान चौंके। उन्होंने अपने अनुमान के आधार पर उस व्यक्ति से पूछा कि क्या वे अश्वत्थामा हैं, इस पर उस व्यक्ति ने हां में जवाब दिया। पृथ्वीराज चौहान अभिभूत हो गए और उनसे वरदान मांगा। अश्वत्थामा ने उन्हें शब्दभेदी बाण का वरदान दिया। साथ ही तीन शब्द भेदी तीर दिए, जो अचूक थे। ज्ञातव्य है कि महाभारत कथा में स्पष्ट अंकित है कि भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के सिर पर लगी मणि को युक्तिपूर्वक हटवाया था और उसकी वजह से उनके सिर पर गहरा घाव हो गया था।
जहां तक पृथ्वीराज चौहान के शब्दभेदी बाण का उपयोग करने का सवाल है, तो उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:-
सन् 1192 में मोहम्मद गौरी ने तराइन के दूसरे युद्ध में उनको हरा दिया, तो वे जंगल में चले गए, बाद में मगर गुप्तचरों की सूचना के आधार पर गौरी ने उन्हें कैद कर लिया। कहीं यह उल्लेख है कि उन्हें अजयमेरू दुर्ग में रखा गया तो कहीं ये हवाला है कि गौरी उन्हें सीधे गौर (गजनी) ले गया। स्थानीय दुर्ग अथवा गौर में गौरी ने गर्म सलाखों से उनके दोनों नेत्रों जला दिया। पृथ्वीराज चौहान के बचपन के मित्र व राज कवि चंद वरदायी फकीर की वेशभूषा में पीछा करते हुए गौर पहुंच गए। चंद वरदायी ने सुल्तान मोहम्मद गौरी से संपर्क स्थापित किया व निवेदन किया कि आंखों के फूट जाने के बावजूद पृथ्वीराज चौहान शब्दभेदी बाण से अचूक निशाना लगाना जानते हैं, जिस अजूबे को सुल्तान को देखना चाहिए। गौरी ऐसी कला देखने को राजी हो गया। एक ऊंचे मंच पर बैठ कर मोहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को तीरंदाजी से लक्ष्य पर संधान करने का आदेश दिया। जैसे ही गौरी के सैनिक ने घंटा बजाया, कवि चंद वरदायी ने यह दोहा पढ़ा:-
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण,
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूके चौहान।
पृथ्वीराज चौहान ने मंच पर गौरी के बैठने की स्थिति का आकलन करके बाण चला दिया, जो सीधा गौरी को लगा और उसके उसी वक्त प्राण निकल गए। इसके बाद गौरी के सैनिकों के हाथों अपमानजनक मृत्यु से बचने के लिए कवि चंद वरदायी ने अपनी कटार पृथ्वीराज चौहान के पेट में भौंक दी और उसके तुरंत बाद वही कटार अपने पेट में भौंक कर इहलीला समाप्त कर ली।
प्रसंगवश यह जानना उचित रहेगा कि शब्दभेदी बाण चलाना तो बहुत से यौद्धाओं ने सीखा था, परंतु उसमें पारंगत चार या पांच ही थे। ज्ञातव्य है कि भगवान राम के पिताश्री महाराजा दशरथ के जिस बाण से मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार की मृत्यु हुई, वह शब्द भेदीबाण था। श्रवण कुमार माता-पिता को एक तालाब के पास छोड़ पानी भरने गए तो पानी की कलकल की आवाज से आखेट को निकले महाराजा दशरथ को यह भ्रम हुआ कि कोई हिरण पानी पी रहा है और उन्होंने शब्दभेदी बाण चला दिया था। इस पर श्रवण कुमार के माता-पिता ने दशरथ को श्राप दिया कि वे भी अपने अंतिम समय में पुत्र का वियोग सहन करेंगे, और दोनों ने प्राण त्याग दिए।
इसी प्रकार महाराज पांडु भी शब्दभेदी बाण की विद्या जानते थे। एक दिन राजा पांडु अपनी दोनों पत्नियों कुन्ती एवं माद्री के साथ तपस्या के लिए ऋषि कण्व के आश्रम में रहने गए। एक दिन माद्री के हठ करने पर पाण्डु आखेट करने गए। कहीं ये उल्लेख है कि सिंह की गर्जना सुन कर उन्होंने शब्दभेदी बाण चलाया तो कहीं ये जिक्र है कि उन्हें एक मृग की छाया दिखाई दी, जिस पर उन्होंने शब्दभेदी बाण चला दिया। बाण लगते ही ऋषि कण्व प्रकट हो गए, जो अपनी पत्नी के साथ सहवास कर रहे थे। उन्होंने पांडु को श्राप दिया कि जब भी वे अपनी पत्नी के साथ सहवास करेंगे तो उनकी मृत्यु हो जाएगी। एक दिन माद्री एक झरने के किनारे नहा रही थी, उनको इस रूप में देख कर पांडु विचलित हो गए और माद्री के साथ सहवास करने लगे। ऐसा करते ही कण्व ऋषि के श्राप  की वजह से उनकी वहीं मृत्यु हो गई। उनके वियोग में माद्री ने भी वहीं प्राण त्याग दिए।
इसी प्रकार महाभारत के महत्वपूर्ण पात्र कर्ण, जिन्होंने दुर्योधन की मित्रता के चलते कौरवों का साथ दिया था, उनको भी शब्दभेदी बाण की विद्या हासिल थी। एक कथा के अनुसार उन्होंने एक बार केवल आवाज के आधार पर गाय के बछड़े को मार दिया था। इसी प्रकार द्रौणाचार्य को अपना गुरू मान कर तीरंदाजी सीखने वाले एकलव्य के बारे में भी एक कथा है कि उन्होंने शब्दभेदी बाण से एक कुत्ते को मार डाला था। जानकारी ये भी है कि शब्दभेदी बाण की विद्या भीम ने अर्जुन को दी थी।
विशेष बात ये है कि अन्य यौद्धाओं ने तो शब्द की ध्वनि के आधार पर शब्द भेदी बाण चलाया, जबकि पृथ्वीराज चौहान ने शब्दों को सुन कर उनके अर्थ के आधार पर अनुमान लगा कर शब्द भेदी बाण चलाया, जो कदाचित कहीं अधिक कठिन था।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, 5 जून 2020

कोरोना संकट के बावजूद है अजमेर में औद्योगिक विकास की अपार संभावनाएं

कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी के चलते अजमेर में उद्योगों की कमर ही टूट गई है। न केवल वे आर्थिक संकट से घिर गए हैं, अपितु आगे भी उनके फिर से रफ्तार पकडऩे को लेकर आशंकाएं व्याप्त हैं। अजमेर वैसे भी औद्यागिक विकास की दृष्टि से अन्य बड़े शहरों की तुलना में पिछड़ा हुआ है। उसकी मूल वजह है पानी की कमी और राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव। हालांकि जब यहां से मौजूदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष व उप मुख्यमंत्री श्री सचिन पायलट जीत कर केन्द्र में राज्य मंत्री बने और उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर यहां बहबूदी के प्रयास किए, मगर अगले ही चुनाव में वे मोदी लहर की वजह से हार गए। पिछले लोकसभा चुनाव में भीलवाड़ा के प्रमुख उद्योगपति रिजू झुंनझुनवाला कांग्रेस के बैनर से मैदान में आए तो उन्होंने यहां औद्यागिक विकास करवाने का वादा किया, मगर दुर्योग से वे हार गए। यद्यपि वे अब भी क्षेत्र में सक्रिय हैं, इस कारण उम्मीद जगती है कि वे अगला चुनाव भी यहीं से लडऩे का मानस रखते हैं। यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा है कि आगे अजमेर को कैसा राजनीतिक नेतृत्व प्राप्त होता है, मगर पानी की कमी अब भी ऐसा कारण है, जो यह विचारने को मजबूर करता है कि औद्योगिक क्षेत्र में कौन से नवाचार किए जा सकते हैं।
इस संबंध में तकरीबन दस साल पहले प्रकाशित पुस्तक अजमेर एट ए ग्लांस में लघु उद्योग संघ के पूर्व अध्यक्ष श्री आर. एस. चोयल का एक लेख छपा था। हालांकि उन्होंने उस लेख में जो सुझाव दिए थे, उस दिशा में कुछ काम हुआ है, फिर भी वह आज के दौर में वह प्रासंगिक नजर आता है। अतएव वह लेख हूबहू प्रस्तुत है।
-तेजवानी गिरधर, 7742067000

आर. एस. चोयल
प्राचीन नगरीय सभ्यता का अगर हम अध्ययन करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस भी सभ्यता ने उद्योग-धन्धों पर समुचित ध्यान दिया, उसी ने इतिहास में जगह बनाई। इसकी मूल वजह ये है कि जिस भी शहर की अर्थ व्यवस्था सुदृढ़ है और जहां आर्थिक गतिविधियां पर्याप्त मात्रा में होती हैं, उसका त्वरित विकास होता ही है। भारत के इतिहास पर नजर डालें तो ईस्ट इंडिया कम्पनी के आगमन से ही भारतीय उद्योग-धन्धों की स्थिति बदली। विशेष रूप से अजमेर के संदर्भ में यह बात सौ फीसदी खरी उतरी है। उद्योग धन्धों के महत्व को दर्शाता वह समय हर भारतवासी को याद रहेगा, खासकर अजमेर वासियों को, क्योंकि ईस्ट इंडिया कम्पनी का अजमेर से विशेष लगाव रहा। अजमेर के रेल कारखाने उसी समय की देन हैं, जो लंबे समय से अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी हैं।
आज जब भी अजमेर में उद्योग के स्थापना की बात होती है तो कई कारण गिना कर उस वार्ता को वहीं समाप्त कर दिया जाता है कि यहां उद्योगों के पनपने की संभावना नहीं है। अजमेर में उद्योगों की आधार शिला कहे जाने वाले रेल कारखानों को स्थापित करने समय शायद अंग्रेजों ने ऐसा नहीं सोचा होगा। अजमेर में औद्योगिक विकास की समस्याओं पर हर कोई अपना वक्तव्य देता हुआ मिल जायेगा, लेकिन मेरा मानना है कि समस्या के विश्लेषण से ज्यादा समाधान पर विचार हो और उसे क्रियान्यवित किया जाये। यहां के उद्योग जगत से विगत 20 साल से मेरे जुड़़ाव और प्रतिनिधित्व से प्राप्त अनुभव का मैं यह निचोड़ निकालता हूं कि अजमेर में उद्योग जगत के परिदृश्य पर छा जाने की सभी संभवानाएं मौजूद हैं। अगर हम इसका विश्लेषण समस्या दर समस्या करें तो मैं यह कहना चाहता हूं कि माना पानी उद्योग की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है और अजमेर में पानी की कमी है, लेकिन अजमेर में उद्योगों को देखा जाए तो यहां इंजीनिरिंग, खनिज, कास्टिंग, खाद्य पदार्थ आदि से सम्बन्धित उद्योग की बहुलता है और इन उद्योगों को केवल पीने के पानी की आवश्यकता होती है, न कि इण्डस्ट्रियल पानी की। अर्थातï् इन उद्योग को पनपने के लिए इच्छा शक्ति की आवश्यकता रह जाती है।
यह भी कहा जाता है कि अजमेर पहाड़ों से घिरा हुआ है, इस कारण यहां औद्योगिक विकास करना कठिन है। मेरा मानना है कि इस धारणा को यहां की इसी भौगोलिक स्थिति की सीमितता को तोड़ते हुए किशनगढ़ में मार्बल मंडी विकसित हो गई है। पहाड़ी भौगोलिक स्थिति के चलते खनिजों के दोहन की विपुल संभावना भी यहां हैं। अगर हम उच्च इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति हैं, तो अजमेर में उद्योग को नए आयाम देने हेतु स्वयं, किसी संस्था, प्रशासन और राजनीति के स्तर पर लयबद्ध, क्रमबद्ध प्रयास करें तो हर सपने को पूरा किया जा सकता है। मैं यह मानता हूं कि निम्नांकित क्षेत्रों में हमें कार्य करने की आवश्यकता है:-
1. इंजीनियर हब की स्थापना:- चूंकि यहां इंजीनियरिंग उद्योगों की बहुलता है। साथ ही इन उद्योगों को ज्यादा पानी, बिजली व जगह की आवश्यकता नहीं होती है, अत: अजमेर में इंजीनियरिंग हब बनाया जाए, जिनमें अति लघु, लघु्र व मध्यम स्तर के उद्योगों को पनपाने की व्यवस्था की जाए।
2. सिरेमिक जोन:- हमारे के लिए यह गौरव की बात है कि अजमेर देश के सिरेमिक क्षेत्र के उद्योग को कच्चे माल की आपूर्ति बड़े पैमाने पर करता है। कच्चे माल की यहां बहुलता है। जरूरत है तो केवल उद्योग के लिए आवश्यक ऊर्जा स्रोत की। चूंकि सरेमिक फरनेस बेस उद्योग है और इन फरनेस को चलाने के लिए बिजली या गैस की आवश्यकता होती है। अजमेर के मध्य से होकर गुजर रही गैस लाइन पर एक डिस्ट्रीब्यूटर सेंटर खोलकर उद्योग की मांग पूरी की जाए तो सिरेमिक उद्योग का परिदृश्य ही बदल जायेगा।
3. एक्सपोर्ट जोन:- अजमेर से इंजीनियरिंग उत्पाद, फ्लोर मिल व उनके एमरी स्टोन, वायर बनाने की मशीनें, स्टोर प्रोसेसिंग मशीनें, खनिज, मार्बल, गुलाब, गुलकंद, सोहन हलवा आदि बहुलता में अन्य देशों को निर्यात किये जाते हैं। निर्यात को बढ़ावा देने हेतु सुविधा सम्पन्न एक्सपोर्ट ओरियेन्टेड क्षेत्र बनाये जाएं। यहां पर बिक्री, उत्पाद व आयकर संबंधी छूट दे कर उद्योगपतियों को आकृर्षित किया जाए। इससे स्वाभाविक रूप से निर्यात में वृद्धि होगी और प्रतिफल में हम आर्थिक रूप से और अधिक संपन्न होंगे।
4. फ्रूट प्रोसेसिंग सेज जोन:-अजमरे के आचार, मुरब्बे, गुलकंद व सोहन हलवा उद्योगों एवं आटा मिलों को बढ़ावा देने हेतु विशेष क्षेत्र की स्थापना की जाए, जिसमें कुटीर उद्योग व लघु उद्योग की स्थापना की जाए और उनके उत्पादों की विपणन व विक्रय की व्यवस्था हेतु क्लस्टर विकसित किया जाए।
5. एकल खिड़की योजना :- राजस्थान की ओद्यौगिक नीति 2010 में एकल खिड़की योजना को प्रभावी ढंग से लागू करने हेतु राज्य सरकार की इच्छा शक्ति को अगर क्रियान्वित किया जाए तो अजमेर में एक पायलेट प्रोजेक्ट बनाया जा सकता है। इसके लिए एक ऐसा मुख्यालय बनाया जाए, जहां रीको, राजस्थान वित्त निगम, उद्योग विभाग, सांख्यिकी विभाग, नियोजन विभाग, रोजगार कार्यालय, श्रम विभाग, भविष्य निधि विभाग, कारखाना एवं बायलर विभाग, विद्युत विभाग, ई.एस.आई. का प्रतिनिधित्व हो। इसी मुख्यालय में 'उद्योग मित्रÓ नाम से कुछ जनप्रतिनिधि, अतिवक्ता, चार्टेड एकाउन्टेन्ट आदि को अधिकृत कर उद्योग की स्थापना में आने वाली समस्याओं के निवारण हेतु ठोस कदम उठाए जा सकता हैं।
6. ब्रेन ड्रेन:- अजमेर शुरू से शिक्षा को केन्द्र रहा है। अजमेर मेयो कॉलेज, राजकीय महाविद्यालय, सोफिया कॉलेज आदि ने शिक्षा, उद्योग, प्रशासन, विज्ञान के क्षेत्र में कई नामी व्यक्ति दिये हैं, परन्तु अब अजमेर के युवा अन्य महानगरों की तरफप्रस्थान कर रहे हैं। अजमेर की बौद्धिक सम्पदा को हम काम में ही नहीं ले रहे, जिसके चलते ब्रेन ड्रेन हो रहा है। अगर हम हमारे युवाओं को अजमेर में बने रहने के लिये आकृर्षित कर सकें तो यह हमारी एक बड़ी उपलब्धि होगी। इस हेतु हम औद्योगिक सहायता एवं परामर्श केन्द्र के माध्यम से विभिन्न स्तरों पर कार्यशाला एवं सेमीनार का आयोजन और अजमेर के उद्योग पर आधारित पुस्तिकाओं का प्रकाशन कर युवाओं को विपुल संभावनाओं से अवगत करा सकते हैं।
7. पर्यटन उद्योग:- अजमेर में स्थित ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह तथा तीर्थराज पुष्कर सरोवर व ब्रह्मा मंदिर के अतिरिक्त सुरम्य व विशाल आनासागर झील, खूबसूरत सोनी जी की नसियां, ऐतिहासिक दादा बाड़ी, नारेली स्थित ज्ञानोदय तीर्थक्षेत्र, सरवाड़ की दरगाह, मांगलियावास का कल्पवृक्ष, पृथ्वीराज स्मारक आदि को आधार बना कर पर्यटन उद्योग विकसित किया जा सकता है। इस क्षेत्र में भी काफी संभावनाएं नजर आती हैं।
विश्व के कई देशों में भ्रमण से मैंने अनुभव किया है कि भौगोलिक, राजनीतिक, प्रशासनिक व सांस्कृतिक परिस्थितियां भले ही पक्ष में न हों, परन्तु वहां के वाशिंदे अपने दृढ़ विश्वास व कर्मशीलता के चलते अपने नगर या देश में अपार संभावनाएं खोज ही लेते हैं। आशा है हम अजमेर वासी भी यही भावना रख कर यहां औद्योगिक विकास के नए आयाम स्थापित कर सकते हैं।

-आर. एस. चोयल
श्यामा, 38, आदर्शनगर, अजमेर
फोन : 0145-2782228, 2782231, फैक्स: 0145-2782501

(लेखक श्री विश्वकर्मा एमरी स्टोन इंडस्ट्रीज प्राइवेट लिमिटेड के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर हैं)

शनिवार, 30 मई 2020

जस्टिस इसरानी अजमेर उत्तर से कांग्रेस टिकट के दावेदार थे

हाल ही जस्टिस इंद्रसेन इसरानी का देहावसान हो गया। कम लोगों का ही पता होगा कि यद्यपि उनका अजमेर से कोई गहरा नाता नहीं रहा, फिर भी 2013 के विधानसभा चुनाव में अजमेर उत्तर सीट के लिए कांग्रेस टिकट के दावेदार रहे थे।
असल में वे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बेहद करीबी थे, इस कारण सिंधियों के लिए अघोषित रूप से आरक्षित अजमेर उत्तर सीट के लिए उनका नाम उभरा था। ऐसा इस कारण हुआ क्योंकि पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष नरेन शहाणी भगत का टिकट कटा हुआ माना जा रहा है, इस कारण अनेक सिंधी दावेदारों के बीच उनके नाम में तनिक गंभीरता नजर आती थी। हालांकि उन्होंने अपनी ओर से दावेदारी की इच्छा जताई या नहीं, पता नहीं, मगर उनका नाम आने से अन्य सिंधी दावेदारों को सांप सूंघ गया था। उन्हें ये पता नहीं था कि वे इससे पहले एक बार अजमेर से चुनाव लडऩे का मानस बना चुके थे, मगर अपनी छोटी सी भूल की वजह से उन्हें दावेदारी करने से पहले ही मैदान छोड़ कर भागना पड़ा था।
आपको बता दें कि तत्कालीन राजस्व मंत्री स्वर्गीय श्री किशन मोटवानी के निधन के कारण हो रहे 202 के उपचुनाव में मैदान खाली देख कर उनका मन इस सीट के लिए ललचाया था। इसके लिए उन्होंने अपने करीबी दैनिक हिंदू के संपादक हरीश वरियानी के माध्यम से अजमेर की कुछ सिंधी कॉलोनियों में बैठकें कर जमीन तलाशी थी। उनका स्वागत भी हुआ। यहां तक कि उन्होंने तब स्वर्गीय श्री नानकराम जगतराय से भी मुलाकात की थी। चूंकि तब तक नानकराम को यह कल्पना भी नहीं थी कि उन्हें टिकट मिलेगा, इस कारण उन्होंने अपना समर्थन देने का आश्वासन भी दिया था। ज्ञातव्य है कि उस उपचुनाव में नानकराम को टिकट मिला और वे जीते भी।
जस्टिस इसरानी
बहरहाल, जानकारी के अनुसार अपने अजमेर प्रवास के दौरान उन्होंने एक प्रेस कॉफ्रेंस भी की। उसमें असावधानी के चलते उनके मुंह से कुछ ऐसा बयान निकल गया, जिसका अर्थ ये निकलता था कि सिंधी तो भाजपा के गुलाम हैं, उस पर बवाल हो गया। भाजपा से जुड़े सिंधी संगठनों ने उनके इस बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया दी। इस पर माहौल बिगड़ता देख कर उन्होंने दावेदारी का मानस ही त्याग दिया। उस दिन के बाद कम से कम इस सिलसिले में तो वे अजमेर नहीं आए। उसके बाद 2013 के चुनाव में एक बार फिर मैदान खाली होने की वजह से उनका नाम फिर उछला। लेकिन साथ ही यह रोचक तथ्य रहा कि इसरानी का नाम चर्चा में आते ही उनका विरोध भी शुरू हो गया। अजमेर में ब्लॉक व शहर स्तर पर तैयार पैनलों में उनका नाम नहीं था, फिर भी जयपुर व दिल्ली में उनके नाम की चर्चा थी। असल में राजस्थान में वरिष्ठतम सिंधी नेता माने जाते थे। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सिंधी समाज के बारे में कोई भी निर्णय करने से पहले उनसे चर्चा जरूर करते थे। इसी कारण जैसे ही उनका नाम सामने आया, उसे गंभीरता से लिया गया। प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव व अजमेर प्रभारी सलीम भाटी की ओर से की गई रायशुमारी के दौरान तो बाकायदा उनका नाम लेकर कांग्रेस नेता राजेन्द्र नरचल ने विरोध दर्ज करवा दिया और कहा कि जब अजमेर में पर्याप्त नेता हैं तो फिर क्यों बाहरी पर गौर किया जा रहा है। वे यहीं तक नहीं रुके। आगे बोले कि वे इसरानी का पुरजोर विरोध करेंगे, चाहे उन्हें कांग्रेस से निकाल दिया जाए। उन्होंने ये तान किसके कहने पर छेड़ी, इसका पता नहीं लग पाया।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

जगदीप धनखड अजमेर में एक चूक की वजह से हार गए थे

अज्ञात परिस्थितियों में उप-राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देने वाले जगदीप धनखड का नाम इन दिनो सुर्खियों में है। उनको लेकर कई तरह की चर्चाएं हो रही...