शुक्रवार, 8 नवंबर 2019

एक कदम ने जीवन की दिशा बदल दी

स्वाभिमान बडी कीमत वसूल करता है

यह शृंखला इसलिए आरंभ की है, ताकि वह सब कुछ जो मेरे जेहन में दफन है, वह आपको बांट दूं, ताकि जब मैं इस फानी दुनिया से अलविदा करूं तो इन यादों का बोझ साथ न रहे।

बात सन् अगस्त 1983 की है। मेरे पिताश्री तत्कालीन वरिष्ठ जिला शिक्षा अधिकारी स्वर्गीय श्री टी. सी. तेजवानी के नागौर में निधन के बाद पूरा परिवार अपने पैतृक शहर अजमेर में लौट आया। यहां किसी अखबार में नौकरी पाने के मकसद से नागौर के सूचना व जनसंपर्क अधिकारी श्री के. बी. एल. माथुर से एक सिफारिशी पत्र अजमेर के सूचना व जनसंपर्क अधिकारी श्री देवी सिंह नरूका के नाम ले कर आया। उन्होंने मुझे तब शीघ्र प्रकाशित होने जा रहे दैनिक रोजमेल के स्टेशन रोड, मार्टिंडल ब्रिज के पास स्थित दफ्तर में स्थानीय संपादकीय प्रभारी स्वर्गीय श्री राजनारायण बरनवाल के पास भेजा। उन्होंने कहा कि अखबार शुरू होने को है, लेकिन फिलहाल पूरा स्टाफ रख लिया है, अत: बाद में कभी आना। मैं वहां से दैनिक नवज्योति गया। अपने नाम की पर्ची प्रधान संपादक श्री दीनबंधु चौधरी के चैंबर में भेजी। मैं बाहर बैठा इंतजार कर ही रहा था कि वहां दैनिक नवज्योति के नागौर जिला संवाददाता श्री माणक गौड आ गए। उन्होंने वहां देख कर सवाल किया, कैसे आए? मैंने प्रयोजन बताया। वे बोले, अरे, चलो में ही आपको चौधरी जी से मिला देता हूं। वे मुझे अंंदर ले गए। मेरी तारीफ करते हुए चौधरी जी से बोले कि यह लड़का बहुत टेलेंटेड है। चौधरी जी ने बिना कोई सवाल-जवाब किए ही कह दिया कि कल ही ज्वाइन कर लो। तनख्वाह चार सौ रुपए प्रतिमाह मिलेगी। मैं नवज्योति से बाहर निकल कर सोचने लगा कि इतने बड़े अखबार में मैं काम भी कर पाऊंगा या नहीं। बड़े-बड़े पत्रकार मुझे जमने देंगे या नहीं। सोचते-सोचते गली पार कर आधुनिक राजस्थान पहुंच गया। वहां प्रधान संपादक स्वर्गीय श्री दिलीप जैन से मिला। वे पहले से परिचित थे, क्योंकि नागौर रहते हुए मैं आधुनिक राजस्थान को समाचार भेजा करता था। उन्होंने भी मेरे आग्रह को तुरंत स्वीकार करते हुए अगले ही दिन से ज्वाइन करने को कह दिया। मुझे यहां थोड़ा सा अपनापन लगा। छोटा अखबार है। लगा कि यहां जल्द ही पकड़ बना लूंगा। हुआ भी वही। दूसरे ही दिन मैंने ज्वाइन कर लिया। आरंभ में मुझे अंदर के पेजों के संपादन का काम मिला। कोई छह माह ही हुए थे कि तत्कालीन संपादकीय प्रभारी श्री सतीश शर्मा ने मेरी प्रतिभा को देखते हुए कहा कि आप फ्रंट पेज पर आ जाओ, मैं सिखाऊंगा। वे पेश से तो मास्टर थे, पत्रकारिता के भी मास्टर थे। जल्द ही मैने स्वतंत्र रूप से प्रथम पेज का संपादन आरंभ कर दिया। अपने ही मार्गदर्शन में उन्होंने मुझे एडिटोरियल का इंचार्ज भी बना दिया। यहां तकरीबन पांच साल काम किया। वहां बहुत कुछ सीखा। इसके बाद दैनिक न्याय के संपादकीय प्रभारी स्वर्गीय श्री राजहंस शर्मा ने मुझे बुलाया और कहा कि पिताश्री बाबा विश्वदेव शर्मा ने मुझ पर अखबार का दायित्व सौंपा है, मेरा विश्वास है कि आप इंचार्जशिप संभाल लेंगे। मैने ज्वाइन कर लिया। मुझे फ्री हैंड दिया गया। मैने भी जम कर बैटिंग की। इस प्लेटफार्म ने मुझे पहचान दी। दैनिक न्याय के भी कई संस्मरण हैं, जो फिर कभी शेयर करूंगा। वहां पांच साल काम करने के बाद किसी बात को लेकर स्वाभिमान की रक्षार्थ इस्तीफा दे दिया। बाबा इस्तीफा मंजूर करने को तैयार नहीं थे, मगर मेरी जिद के चलते उन्हें स्वीकार करना ही पड़ा। विदाई देते समय उस जमाने के दबंग पत्रकार की आंखें नम होने पर अपनी पीठ थपथपाई कि मैने निष्ठा व अपने काम के दम पर उनका दिल जीत लिया है।
खैर, फ्री होते हुए श्री दिलीप जैन ने बुलवा लिया। वहां कुछ समय काम किया। चूंकि मिजाज से अति संवेदनशील हूं, इस कारण फिर किसी बात पर स्वाभिमान की खातिर इस्तीफा दे दिया। जैसे ही तत्कालीन सांध्य दैनिक दिशादृष्टि के संपादक श्री राधेश्याम शर्मा को पता लगा, उन्होंने मुझे बुलवाया और कहा कि वे अब दिशा दृष्टि को सांध्य की जगह प्रात:कालीन करना चाहते हैं और उसका दायित्व मुझे सौंपना चाहते हैं। मैने प्रस्ताव तुरंत स्वीकार कर लिया। करीब दो साल काम करने के बाद वहां से भी जी उचट गया। केवल स्वाभिमान के कारण। उन्होंने भी मुझे बड़ी मुश्किल से छोड़ा। छोड़ कर घर बैठ गया। सन् 1996 में दैनिक भास्कर का आगमन हुआ। वहां के कई प्रसंग याद हैं, मगर फिलहाल इतना ही। तकरीबन आठ साल तक सिटी चीफ रहने के बाद जयपुर तबादला हो गया। वहां मुझे पहले स्टेट डेस्क पर बैठाया गया और कुछ समय बाद ही सिटी एडिशन का जिम्मा दिया जा रहा था। वह वाकई की-प्रोस्ट थी, मगर माताश्री की तबियत खराब रहने के चलते छह माह बाद ही इस्तीफा दे दिया। तत्कालीन संपादक श्री एन. के. सिंह ने इस्तीफा मंजूर न करते हुए वापस अजमेर भेज दिया। यहां तत्कालीन संपादक श्री इंदुशेखर पंचोली से पटरी बैठी नहीं, जो कि बैठनी भी नहीं थी, क्योंकि वे मुझ से जूनियर थे। यहां भी स्वाभिमान आड़े आया। खैर, इसकी भी एक कहानी है, जिसका जिक्र फिर कभी करूंगा। कोई तीन दिन बाद ही फिर इस्तीफा दे दिया। कुछ समय खाली बैठा रहा। फिर युवा भाजपा नेता व समाजसेवी श्री भंवर सिंह पलाड़ा ने श्री सुरेन्द्र चतुर्वेदी के माध्यम से बुलवा कर अखबार शुरू करने की मंशा जताई। हम दोनों ने उन्हें साफ कह दिया कि यह घाटे का सौदा है, पर वे नहीं माने, इस पर हम तैयार हो गए। हमने स्वर्गीय श्री नवल किशोर सेठी से सरे-राह टाइटल लिया। करीब पौने दो साल काम करने के बाद स्वाभिमानवश इस्तीफा दे दिया। श्री पलाड़ा मुझे नहीं छोडऩा चाहते थे, लेकिन मैं भी जिद पर अड़ गया। विदाई के वक्त मैने उनका मन भी बाबा की तरह द्रवित देखा।
खैर, उसके बाद दैनिक महका भारत के अजमेर संस्करण के स्थानीय संपादक के रूप में काम किया। अखबारों की प्रतिस्पद्र्धा के कारण वह समाचार पत्र अनियमित हो गया। फिर कुछ समय के लिए दैनिक न्याय सबके लिए में संपादक के रूप में काम किया। आर्थिक संकट के कारण अखबार बंद करने की नौबत आ गई। उसके बाद मेरे परम मित्र स्वामी न्यूज के एमडी श्री कंवल प्रकाश किशनानी के सहयोग से अजमेरनामा डॉट कॉम नाम से न्यूज पोर्टल शुरू किया, जो कि अब भी चल रहा है।
लब्बोलुआब, जीवन की इस यात्रा से एक ही निष्कर्ष निकला कि यदि मैं दैनिक नवज्योति में मिल रही नौकरी को स्वीकार कर लेता तो जीवन में इतना भटकाव नहीं होता और आज वहां स्थानीय संपादक पद पर पहुंच चुका होता। दूसरा सबक ये कि स्वाभिमान बड़ी कीमत वसूलता है। मेरे परिवार ने बहुत सफर किया। जिस स्वाभिमान की मैने दुनिया में रक्षा की, उससे अपने परिवार के सामने समझौता करना पड़ा। मैं उसे वह नहीं दे पाया, जिसे देना मेरा फर्ज था।
प्रसंगवश अतीत में जरा पीछे जा कर बताना चाहता हूं कि सन् 1979 में पत्रकारिता की शुरुआत लाडनूं ललकार के संपादक स्वर्गीय श्री राजेन्द्र जैन ने करवाई। मुझे सहायक संपादक बनाया। सन् 1980 से 1983 तक आधुनिक राजस्थान के अतिरिक्त जयपुर से प्रकाशित दैनिक अणिमा व दैनिक अरानाद के संवाददाता के रूप में काम किया।
अखबारी जीवन के अनेक संस्मरण मेरे जेहन में अब भी सजीव हैं। उनका जिक्र फिर कभी करूंगा।

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