राजनीति में न दोस्ती और न ही दुश्मनी स्थाई होती है। ऐसा कहा जाता है। है भी। यानि कि राजनीतिक संबंध अस्थाई होते हैं। असल में वह नफे-नुकसान का मामला है। उनमें सामान्य मानवीय व्यवहार व सदाशयता का कोई मूल्य नहीं होता। चलो जैसा भी है, ठीक है। मगर क्या राजनीतिक व्यक्ति निरपेक्ष रूप से भी मानवीय व्यवहार भूल जाता है, इसका अंदाजा मुझे नहीं था। इसका साक्षात्कार हाल ही मेरे एक मित्र, जो कि राजनीति में हैं, युवक कांग्रेस के जाने-माने नेता रहे हैं और उनसे मेरे संबंध राजनीति की वजह से नहीं, ने कराया। मैं उनका बहुत बहुत आभारी हूं कि उन्होंने मुझे इस अनुभव से गुजारा। उनके नाम का जिक्र इसलिए नहीं करूंगा, क्योंकि यह अनुभव लिखने का प्रयोजन उनको टारगेट करना नहीं, बल्कि महज अपना अनुभव साझा करना है। वह भले ही अपनी मर्यादा से च्युत हो गया, मुझे अपनी मर्यादा में ही रहना है।
हुआ यूं कि मैं यूआईटी के पूर्व अध्यक्ष श्री धर्मेश जैन के गांधी भवन के सामने रेलवे केम्पस में हाल ही में उद्घाटित रेस्टोरेंट में शुभारंभ समारोह में मौजूद था। मैं अपने एक और मित्र, जो कि भाजपा में हैं, के साथ खड़ा था। मैंने देखा कि युवक कांग्रेस के नेता रहे मित्र ने समारोह स्थल में एंट्री ली है। मैने अपने भाजपाई मित्र को बताया कि देखो, वो जो शख्स हैं, मेरे अभिन्न मित्र हैं। उनसे मेरे गहरे ताल्लुक हैं। इसकी जानकारी कांग्रेस के सभी नेताओं व कार्यकर्ताओं को भी है। मैं इंतजार कर रहा था कि वे निकट आएं तो उनसे मुलाकात हो। जैसे ही वे मेरे सामने आए तो उन्होंने जो हरकत की तो मैं सन्न रह गया। उनकी नजरें मेरी नजरों से टकराईं। नजरों की मात्र एक पल मुलाकात के बाद उन्होंने हठात अपनी नजरें हटा लीं और आगे बढ़ गए। वह पल मेरे जेहन में तीर की तरह घुस गया। मैं समझ ही नहीं पाया कि ये क्या, क्यों व कैसे हो गया? मेेरे भाजपाई मित्र के चेहरे ने भी सवालिया निशान की आकृति ले ली। मैं निरुत्तर था। निरुत्तर क्या, बहुत आहत था। कुछ क्षण के लिए मेरी जुबान पत्थर की सी हो गई। अपने आप को संभाला। जुबान से सिर्फ यही निकला- कमाल है, उसने मुझे पहचानने से ही इंकार कर दिया। इतना खास मित्र। कभी कोई विवाद नहीं हुआ, फिर भी ये व्यवहार? आखिर ये क्या है? मेरे भाजपाई मित्र ने समझाया कि हो सकता है कि जब आपकी घनिष्ठ मित्रता रही हो, तब आप उसके के लिए बहुत उपयोगी रहे होंगे। आज उसके लिए आपकी उपयोगिता नहीं होगी। तब आप भास्कर में रहे होंगे, अब नहीं हैं। आम तौर पर सभी राजनीतिक लोग ऐसे ही होते हैं। मतलब की दोस्ती रखते हैं। आपको गलतफहमी हो गई कि वह सच्ची दोस्ती थी। फिर भी, केवल राजनीतिक संबंध हों तो भले ही वे ऐसा व्यवहार करें तो समझ में आता है, मगर वह अगर घनिष्ठ मित्र रहा है तो उसका ऐसा व्यवहार वाकई सोचनीय है। इसे अपने दिल पर न लीजिए। यही दुनिया है। उनके इस कथन में साथ मेरी बुद्धि पर पड़ा भ्रम का पर्दा हट गया।
बहरहाल, वह पल मुझे आज भी याद आने पर बहुत तकलीफ देता है। मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं। उलटा मैं उनका शुक्रगुजार हूं। कितना बेशकीमती अनुभव उन्होंने मुझे दिया है। भगवान उनका भला करे।
कुछ इसी किस्म की घटनाएं पहले भी हुई हैं, अलग अंदाज में। उनका जिक्र फिर कभी। मगर ये घटनाएं पहले से विरक्त मन को दुनिया से और अधिक विमुख किए देती हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
हुआ यूं कि मैं यूआईटी के पूर्व अध्यक्ष श्री धर्मेश जैन के गांधी भवन के सामने रेलवे केम्पस में हाल ही में उद्घाटित रेस्टोरेंट में शुभारंभ समारोह में मौजूद था। मैं अपने एक और मित्र, जो कि भाजपा में हैं, के साथ खड़ा था। मैंने देखा कि युवक कांग्रेस के नेता रहे मित्र ने समारोह स्थल में एंट्री ली है। मैने अपने भाजपाई मित्र को बताया कि देखो, वो जो शख्स हैं, मेरे अभिन्न मित्र हैं। उनसे मेरे गहरे ताल्लुक हैं। इसकी जानकारी कांग्रेस के सभी नेताओं व कार्यकर्ताओं को भी है। मैं इंतजार कर रहा था कि वे निकट आएं तो उनसे मुलाकात हो। जैसे ही वे मेरे सामने आए तो उन्होंने जो हरकत की तो मैं सन्न रह गया। उनकी नजरें मेरी नजरों से टकराईं। नजरों की मात्र एक पल मुलाकात के बाद उन्होंने हठात अपनी नजरें हटा लीं और आगे बढ़ गए। वह पल मेरे जेहन में तीर की तरह घुस गया। मैं समझ ही नहीं पाया कि ये क्या, क्यों व कैसे हो गया? मेेरे भाजपाई मित्र के चेहरे ने भी सवालिया निशान की आकृति ले ली। मैं निरुत्तर था। निरुत्तर क्या, बहुत आहत था। कुछ क्षण के लिए मेरी जुबान पत्थर की सी हो गई। अपने आप को संभाला। जुबान से सिर्फ यही निकला- कमाल है, उसने मुझे पहचानने से ही इंकार कर दिया। इतना खास मित्र। कभी कोई विवाद नहीं हुआ, फिर भी ये व्यवहार? आखिर ये क्या है? मेरे भाजपाई मित्र ने समझाया कि हो सकता है कि जब आपकी घनिष्ठ मित्रता रही हो, तब आप उसके के लिए बहुत उपयोगी रहे होंगे। आज उसके लिए आपकी उपयोगिता नहीं होगी। तब आप भास्कर में रहे होंगे, अब नहीं हैं। आम तौर पर सभी राजनीतिक लोग ऐसे ही होते हैं। मतलब की दोस्ती रखते हैं। आपको गलतफहमी हो गई कि वह सच्ची दोस्ती थी। फिर भी, केवल राजनीतिक संबंध हों तो भले ही वे ऐसा व्यवहार करें तो समझ में आता है, मगर वह अगर घनिष्ठ मित्र रहा है तो उसका ऐसा व्यवहार वाकई सोचनीय है। इसे अपने दिल पर न लीजिए। यही दुनिया है। उनके इस कथन में साथ मेरी बुद्धि पर पड़ा भ्रम का पर्दा हट गया।
बहरहाल, वह पल मुझे आज भी याद आने पर बहुत तकलीफ देता है। मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं। उलटा मैं उनका शुक्रगुजार हूं। कितना बेशकीमती अनुभव उन्होंने मुझे दिया है। भगवान उनका भला करे।
कुछ इसी किस्म की घटनाएं पहले भी हुई हैं, अलग अंदाज में। उनका जिक्र फिर कभी। मगर ये घटनाएं पहले से विरक्त मन को दुनिया से और अधिक विमुख किए देती हैं।
-तेजवानी गिरधर
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