शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

धरने प्रदर्शनों में खाये धक्के

पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान एक रैली निकालने की तैयारी हो रही थी। श्रीनगर रोड स्थित सुख सदन पर नेताओं व कार्यकर्ताओं का जमावड़ा  हो रखा था। मैं भी वहीं खड़ा था। अचानक मेरे एक फोटोग्राफर मित्र मेरे पास आए, जो कि दैनिक भास्कर में साथ काम किया करते थे। वे बोले मैं आपकी ये हालत देख कर अफसोस में हूं। ऐसा कहते-कहते उनकी आंखें नम हो गईं। वे बोले- एक जमाना था कि जब ये नेता आपके पैर छुआ करते थे। कांग्रेस के हों या भाजपा के, आपसे मिलने के लिए उनको प्रेस के बाहर इंतजार करना पड़ता था। क्या रुतबा था। मैं उस वक्त का चश्मदीदी गवाह हूं। अपनी खबर व फोटो छपवाने के लिए आपसे कितनी अनुनय-विनय किया करते थे। और आज ये ही धरने-प्रदर्शन के दौरान फोटो खिंचवाने के चक्कर में आपको धक्का देकर आगे निकलने की कोशिश करते हैं। नेता क्या, कार्यकर्ता तक ये नहीं देखते कि वे किसे धक्का दे रहे हैं। क्यों चले आए राजनीति में?
मेरे मित्र का ऑब्जर्वेशन सही है। उनका सवाल भी वाजिब है। पता मुझे भी था कि राजनीति में जाने पर मुझे क्या खोना पड़ सकता है। पत्रकारिता में जिसने सदैव निष्पक्षता का ख्याल रखने की कोशिश की हो, वह बिना किसी पॉलिटिकल बैक ग्राउंड व आर्थिक संपन्नता के राजनीति में कैसे और क्यों आ गया, इस पर तफसील से फिर कभी बात करेंगे। जरूर करेंगे। करनी ही है। मगर फिलहाल इतना कि पिछले दोनों विधानसभा चुनावों में अजमेर उत्तर से मेरी प्रबल दावेदारी थी। मैं जानता था कि जो लोग मुझे एक पत्रकार के नाते सम्मान दे रहे हैं, वे ही बाद में कंधे से कंधा भिड़ाएंगे। फिश प्लेटें भी गायब करने की कोशिश करेंगे। बेशक मेरी भी गरज रही, इस कारण गम खाने को तैयार रहा। दोनों बार जिन भी वजहों से टिकट नहीं मिला, उस पर फिर चर्चा करेंगे, लेकिन कुछ लोगों ने जिस प्रकार अपनी असली औकात दिखाई तो थोड़ा मलाल हुआ। हालांकि मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं, मगर इस बहाने संबंधों की हकीकत का पर्दाफाश हो गया। मुझे मेरे धर्म से मतलब, उन्होंने जो किया, वो उनका धर्म था। उनका क्या, राजनीति का यही धर्म है। वे अपनी जगह ठीक ही थे। मैं उनका शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने मुझे जमीनी हकीकत से रूबरू कराया। खुदा हाफिज।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

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