शनिवार, 30 मई 2020

जस्टिस इसरानी अजमेर उत्तर से कांग्रेस टिकट के दावेदार थे

हाल ही जस्टिस इंद्रसेन इसरानी का देहावसान हो गया। कम लोगों का ही पता होगा कि यद्यपि उनका अजमेर से कोई गहरा नाता नहीं रहा, फिर भी 2013 के विधानसभा चुनाव में अजमेर उत्तर सीट के लिए कांग्रेस टिकट के दावेदार रहे थे।
असल में वे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बेहद करीबी थे, इस कारण सिंधियों के लिए अघोषित रूप से आरक्षित अजमेर उत्तर सीट के लिए उनका नाम उभरा था। ऐसा इस कारण हुआ क्योंकि पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष नरेन शहाणी भगत का टिकट कटा हुआ माना जा रहा है, इस कारण अनेक सिंधी दावेदारों के बीच उनके नाम में तनिक गंभीरता नजर आती थी। हालांकि उन्होंने अपनी ओर से दावेदारी की इच्छा जताई या नहीं, पता नहीं, मगर उनका नाम आने से अन्य सिंधी दावेदारों को सांप सूंघ गया था। उन्हें ये पता नहीं था कि वे इससे पहले एक बार अजमेर से चुनाव लडऩे का मानस बना चुके थे, मगर अपनी छोटी सी भूल की वजह से उन्हें दावेदारी करने से पहले ही मैदान छोड़ कर भागना पड़ा था।
आपको बता दें कि तत्कालीन राजस्व मंत्री स्वर्गीय श्री किशन मोटवानी के निधन के कारण हो रहे 202 के उपचुनाव में मैदान खाली देख कर उनका मन इस सीट के लिए ललचाया था। इसके लिए उन्होंने अपने करीबी दैनिक हिंदू के संपादक हरीश वरियानी के माध्यम से अजमेर की कुछ सिंधी कॉलोनियों में बैठकें कर जमीन तलाशी थी। उनका स्वागत भी हुआ। यहां तक कि उन्होंने तब स्वर्गीय श्री नानकराम जगतराय से भी मुलाकात की थी। चूंकि तब तक नानकराम को यह कल्पना भी नहीं थी कि उन्हें टिकट मिलेगा, इस कारण उन्होंने अपना समर्थन देने का आश्वासन भी दिया था। ज्ञातव्य है कि उस उपचुनाव में नानकराम को टिकट मिला और वे जीते भी।
जस्टिस इसरानी
बहरहाल, जानकारी के अनुसार अपने अजमेर प्रवास के दौरान उन्होंने एक प्रेस कॉफ्रेंस भी की। उसमें असावधानी के चलते उनके मुंह से कुछ ऐसा बयान निकल गया, जिसका अर्थ ये निकलता था कि सिंधी तो भाजपा के गुलाम हैं, उस पर बवाल हो गया। भाजपा से जुड़े सिंधी संगठनों ने उनके इस बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया दी। इस पर माहौल बिगड़ता देख कर उन्होंने दावेदारी का मानस ही त्याग दिया। उस दिन के बाद कम से कम इस सिलसिले में तो वे अजमेर नहीं आए। उसके बाद 2013 के चुनाव में एक बार फिर मैदान खाली होने की वजह से उनका नाम फिर उछला। लेकिन साथ ही यह रोचक तथ्य रहा कि इसरानी का नाम चर्चा में आते ही उनका विरोध भी शुरू हो गया। अजमेर में ब्लॉक व शहर स्तर पर तैयार पैनलों में उनका नाम नहीं था, फिर भी जयपुर व दिल्ली में उनके नाम की चर्चा थी। असल में राजस्थान में वरिष्ठतम सिंधी नेता माने जाते थे। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सिंधी समाज के बारे में कोई भी निर्णय करने से पहले उनसे चर्चा जरूर करते थे। इसी कारण जैसे ही उनका नाम सामने आया, उसे गंभीरता से लिया गया। प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव व अजमेर प्रभारी सलीम भाटी की ओर से की गई रायशुमारी के दौरान तो बाकायदा उनका नाम लेकर कांग्रेस नेता राजेन्द्र नरचल ने विरोध दर्ज करवा दिया और कहा कि जब अजमेर में पर्याप्त नेता हैं तो फिर क्यों बाहरी पर गौर किया जा रहा है। वे यहीं तक नहीं रुके। आगे बोले कि वे इसरानी का पुरजोर विरोध करेंगे, चाहे उन्हें कांग्रेस से निकाल दिया जाए। उन्होंने ये तान किसके कहने पर छेड़ी, इसका पता नहीं लग पाया।
-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

गुरुवार, 28 मई 2020

हां, पिज्जा खाने से रुकी किरपा आ जाती है

आपको याद होगा कि जीवन की परेशानियों के निराकरण के लिए अजीबो-गरीब उपाय बताने वाले निर्मल बाबा खुद परेशानी में पड़ गए थे। न केवल उनकी तीव्र आलोचना हुई, अपितु उनका मखौल भी खूब उड़ा। यहां तक कि पुलिस में शिकायत भी हुई। स्वाभाविक सी बात है कि समोसा या पिज्जा खाने, गाय को केला खिलाने या अमुक देवी-देवता को अमुक मात्रा में प्रसाद चढ़ाने जैसे उपायों मात्र से समस्याओं का अंत हो जाने की कोई बात करेगा तो तार्किक लोग उसका मजाक उड़ाएंगे ही। बावजूद इसके उनके भक्तों की संख्या अनगिनत है। वस्तुत: जिनको फायदा हुआ होगा, वे तो उनके गुण गाएंगे ही, चाहे ऊलजलूल उपाय करने से ही हुआ हो। वैसे भी दुनिया इतनी दुखी है कि कोई भी उपाय करने को राजी हो जाती है। चारों ओर से निराशा हाथ लगने से धूनी की भभूत में भी उसे चमत्कार नजर आता है। मगर दूसरी ओर वैज्ञानिक सोच वाले लोग ऐसे उपायों को अतार्किक, अंध विश्वास और वाहियात करार देते हैं।
इस मुद्दे का गहराई से अध्ययन करने से मैने पाया कि निर्मल बाबा जिस प्राकृतिक सिद्धांत के आधार पर उपाय बताते हैं, वह पद्यति कारगर होनी चाहिए। उन्हें कैसे पता लगता है कि अमुक सवाली के मन में क्या है और कौन सी वस्तु उसने कितने दिन से नहीं खाई है, अथवा उसका कौन सा संकल्प या इच्छा पूरी नहीं हुई है, उसके पीछे जरूर कोई गड़बड़झाला होने की संभावना मानी जा सकती है। वे अंतर्यामी हैं या नहीं, इस पर सवाल उठाए जा सकते हैं, मगर वे जिस प्राकृतिक सिद्धांत के आधार पर उपाय करते हैं, वह मुझे तो तार्किक लगती है।
ऐसा प्रतीत होता है कि जब भी हमारे मन में कोई इच्छा जागृत होती है अथवा कोई संकल्प निर्मित होता है, वह हमारे भीतर एक प्रकार की ग्रंथी का निर्माण करता है। जैसे ही वह इच्छा अथवा संकल्प पूरा होता है, ग्रंथी का विसर्जन हो जाता है। पूरा न होने पर वह ग्रंथी विकृतियां उत्पन्न करती है। अतृप्त इच्छा का कितना महत्व है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई बार आत्मा इसी कारण भटकती रहती है, क्योंकि उसकी कोई इच्छा विशेष पूरी नहीं हो पाती। यही वजह है कि हमारे यहां मृत्यु होने से ठीक पहले प्राणी की अंतिम इच्छा पूछी जाती है। उसकी वजह भी यही है कि उसकी आखिरी ख्वाहिश पूरी कर दी जाए, ताकि मृत्योपरांत उसकी आत्मा भटके नहीं।
निर्मल बाबा की मूल थ्योरी बिलकुल ठीक है
अतृप्त इच्छा व अधूरे संकल्प पैदा करते हैं संकट
अतृप्त इच्छाएं पूरी न होने पर उसका प्रभाव वस्तुओं पर भी पड़ता है, ऐसी हमारे यहां मान्यता है। आपको ऐसे कई लोग मिल जाएंगे, जो कि बाजार में सजा कर रखी गई मिठाई अथवा अन्य खाद्य पदार्थ का सेवन करने से बचते हैं। उसके पीछे धारणा ये है कि सजा कर रखी गई वस्तु पर अनेक लोगों की दृष्टि पड़ती है। ऐसे लोगों की नजर भी पड़ती है, जो कि उसे खाना तो चाहते हैं, मगर उनकी खरीदने की हैसियत नहीं होती अथवा किसी और कारण से खरीद नहीं पाते। ऐसे में वस्तु में अतृप्त इच्छा का दृष्टि दोष उत्पन्न हो जाता है। उस वस्तु को खाने पर हमको दोष लगता है।
हमारी संस्कृति में तो यह तक मान्यता है कि भोजन सदैव एकांत में करना चाहिए। ऐसा इसलिए कि भोजन करते समय अन्य की दृष्टि उस पर पडऩे से दोष उत्पन्न हो जाता है। आपने देखा होगा कि अनेक दुकानदार पीठ करके भोजन करते हैं, ताकि उस पर किसी ग्राहक की नजर नहीं पड़े। आपने देखा होगा कि यदि हमारे भोजन पर किसी अन्य की नजर पड जाए तो हम उसका कुछ अंष उसे खिला देते हैं, ताकि दोष न लगे।
अपूर्ण संकल्प जीवन में कठिनाइयां उत्पन्न करते हैं, ऐसी भी मान्यता है। एक प्रकरण आपसे साझा करता हूं। एक बार मेरी माताजी मामाजी के घर घूमने गई। वहां उनकी परिचित महिला से मुलाकात हो गई। वह स्नान करके शुद्ध हो कर उनके पास आ कर बैठी थी। जैसे ही उनके वस्त्र का मेरी माताजी के वस्त्र से स्पर्श हुआ, यकायक वह एक भाव अवस्था में आ गई और गुस्से में बोलने लगी कि याद कर, कोई पच्चीस साल पहले तूने अमुक मंदिर में अपनी मनोकामना पूरी होने के लिए एक धर्मग्रंथ से फूल चुना था। तेरी वह इच्छा पूरी हो गई, मगर तूने संकल्प के साथ प्रसाद चढ़ाने का जो निश्चय किया था, वह आज तक अधूरा है। इसी कारण संकट में है। उस महिला को मेरी माताजी की पच्चीस साल पहले की घटना कैसे ख्याल में आ गई, यह विचार का अन्य विषय है, मगर अधूरा संकल्प परेशानी पैदा करता है, वह तो इससे प्रमाणित होता ही है।
आपके ख्याल में होगा कि कई धर्म स्थलों के दरवाजों पर श्रद्धालु मन्नत का धागा अथवा कोई वस्तु बांधते हैं और मन्नत पूरी होने पर प्रसाद चढ़ा कर धागा खोलते हैं। अर्थात संकल्प या इच्छा पूरी होने पर उसकी पूर्णाहुति जरूर करते हैं। ऐसी मान्यता है कि ऐसा नहीं करने पर दोष लगता है। संकल्प लेकर कोई व्रत रखने पर भी उसका उद्यापन करने की प्रथा हमारे यहां प्रचलित है। मन्नत का धागा बांधने की बात पर मुझे याद आया कि मेरी माताजी हमारा कोई कार्य होने की इच्छा रख कर अपनी चुन्नी के कोने पर गांठ बांधती है और काम पूरा होने पर गांठ खोल कर मन में तय किया हुआ प्रसाद चढ़ाती है। गांठ का प्रयोजन यही होता है कि संकल्प की याद विस्मृत न हो। ऐसे ही अनेक प्रकरण मेरी जानकारी में हैं।
मुझे लगता है कि गांठ न बांधने पर भी इच्छा की गांठ मन के भीतर पड़ जाती है, जिसे कि मैने ग्रंथी की संज्ञा दी है। इच्छा के पूरा होने पर वह ग्रंथी विसर्जित हो जाती है, अथवा कोई न कोई विकृति पैदा करती है।
कुल जमा निष्कर्ष ये है कि निर्मल बाबा जिस पद्यति का उपयोग करते हैं, वह कारगर होनी चाहिए। हमें भी सामान्य जीवन में यह ख्याल रखना चाहिए कि हमारे मन में जो भी इच्छा जागृत हो, उसे यथासंभव पूर्ण कर लेना चाहिए। चंद उदाहरण पेष हैं, जिनका हमें ख्याल रखना चाहिए। जैसे अगर हमारे मन में किसी भिखारी को कुछ देने का भाव आया है तो उसे पूरा कर लेना चाहिए। इसी प्रकार यदि कभी किसी मंदिर के दर्षन या किसी दरगाह में हाजिरी का मन में विचार आए तो यथासंभव उसे पूरा कर लेना चाहिए। इसमें ख्याल रखने योग्य बात ये है कि हमें अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त अनीतिपूर्ण इच्छाओं को पैदा ही नहीं होने देना चाहिए। चूंकि अगर वे पूरी कर भी ली गई तो भले ही ग्रंथी से होने वाली कठिनाई से हम मुक्त हो जाएंगे, मगर अनीति से किए गए कार्य का परिणाम तो हमें भुगतना ही होगा।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, 22 मई 2020

कई ठीये-ठिकानों पर जुटते हैं बातों के हुक्केबाज

पिछले ब्लॉग में क्लॉक टावर पुलिस थाने के बाहर कभी आबाद रहे ठीये, जिसे कि आपस बातचीत में सुविधा के लिए नाले शाह की मजार के नाम से संबोधित किया जाता था, का शब्द चित्र खड़ा करने की कोशिश की गई थी। इस किस्म के अनेक ठीये-ठिकाने अजमेर की शान रहे हैं। कुछ का नामो निशां मिट गया तो कुछ पर अब भी चंद लोग दिया जला कर उसे जिंदा रखे हुए हैं। कुछ रूप-रंग बदल कर अब भी अपना वजूद बरकरार रखे हुए हैं।
पिछले ब्लॉग की प्रतिक्रिया में दैनिक राज्यादेश व दैनिक मरु प्रहार के संपादक श्री गोपाल सिंह लबाना ने जानकारी दी है कि नाले शाह की मजार की तरह का ही एक और ठीया हुआ करता था। वे बताते हैं कि मदारगेट पर राधाकृष्ण गुरुदयाल मिष्ठान्न भंडार के पास बाटा की दुकान पर रात में चंद बुद्धिजीवी बतियाने को जमा हुआ करते थे। उनमें स्वयं लबाना के अतिरिक्त भभक पाक्षिक समाचार पत्र के भूतपूर्व संपादक व वरिष्ठ पत्रकार श्री एस. पी. मित्तल के पिताश्री स्वर्गीय श्री कृष्णगोपाल गुप्ता, श्री केवल राम वासवानी, ईश्वर लालवानी आदि शामिल थे। तब रात बारह बजे दैनिक नवज्योति अखबार आ जाता था, जिसे पढ़-पढ़ा कर, टीका-टिप्पणियां करके ही सभा विसर्जित हुआ करती थी। वे बताते हैं कि तब क्लॉक टावर पुलिस थाने के कोने में इंडिया पान हाउस के सामने दुकान के शेड के नीचे दैनिक नवज्योति के वरिष्ठ पत्रकार स्वर्गीय श्री श्याम जी व स्वर्गीय श्री जवाहर सिंह चौधरी के साथ भी बातों की हुक्केबाजी होती थी।
ऐसा ही पत्रकारों का अड्डा रेलवे स्टेशन के सामने स्थित शहर के जाने-माने फोटोग्राफर इन्द्र नटराज की दुकान पर भी सजता था, जहां विज्ञप्तिबाज विभिन्न अखबारों के लिए विज्ञप्तियां दे जाते थे। बौद्धिक विलास के लिए पत्रकारों का जमावड़ा जाने-माने पत्रकार श्री अनिल लोढ़ा के कचहरी रोड पर नवभारत टाइम्स के ऑफिस में भी होता था। वह पत्रकारिता की अनौपचारिक पाठशाला भी थी।
अखबार वालों व उनकी मित्र मंडली का नया ठिकाना वैशाली नगर में अजयमेरु प्रेस क्लब के रूप में विकसित हुआ है। यहां केरम खेलने व अन्य गतिविधियों के बहाने बुद्धजीवी रोज इक_ा होते हैं। इसके अधिष्ठाता दैनिक भास्कर के स्थानीय संपादक डॉ. रमेश अग्रवाल हैं। इससे पहले यह गांधी भवन में हुआ करता था।
यूं सबसे बड़ा व ऐतिहासिक ठिकाना शुरू से नया बाजार चौपड़ रहा है। न जाने कितने सालों से यह चौराहा शहर की रूह है। यहां से शहर की दशा-दिशा, बहुत कुछ तय होता रहा है।
इसी प्रकार सबको पता है कि अजमेर क्लब शहर के संभ्रात लोगों, व्यापारियों व रईसों का आधिकारिक ठिकाना है। वर्षों से इसके महंत पूर्व विधायक डा. राजकुमार जयपाल हैं। वे बिना शोरगुल किए अपनी राजनीतिक पृष्ठभूमि व मधुर व्यवहार के दम पर इसका संचालन कर रहे हैं।
इसी प्रकार पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती के निवास स्थान की जाफरी वर्षों तक आबाद रही। यहां भी शहर की आबोहवा का थर्मामीटर हुआ करता था। अब वह शिफ्ट हो कर डॉक्टर साहब की क्लीनिक में आ गया है। इसी प्रकार धाकड़ कांग्रेस नेता श्री कैलाश झालीवाल का मदारगेट स्थित ऑफिस भी कई सालों से खबरनवीसों व कांग्रेस कार्यकर्ताओं का ठिकाना रहा है।
जवाहर लाल नेहरू अस्पताल के सामने स्थित मुड्डा क्लब भी शहर के बातूनियों का ठिकाना रहा है। वहां भी राजनीति का तानाबाना नापा जाता था। इसी प्रकार पलटन बाजार के सामने झम्मू की होटल कॉफी के शौकीनों के लिए आकर्षण का केन्द्र रही। मूंदड़ी मोहल्ले का चौराहा भी बतरसियों की चौपाल रही है। दरगाह इलाके में अंदरकोट स्थित हथाई भी किस्सागोइयों का जमघट लगाती है। इसी तरह शाम ढ़लते ही सुरा प्रेमियों का जमघट ब्यावर रोड पर दैनिक न्याय के पास फ्रॉमजी बार में लगता था।
ठीयों की बात हो और पान की दुकानें ख्याल में न आएं, ऐसा कैसे हो सकता है। खासकर तब, जबकि कोरोना महामारी के चलते लागू लॉक डाउन के कारण पिछले दो माह से ये बंद पड़ी हैं। वस्तुत: ये भी शहर की पंचायती करने वालों से सजती रही हैं। एक समय क्लॉक टावर थाने के नुक्कड़ पर इंडिया पान हाउस हुआ करता था, जो बाद में अतिक्रमण हटाओ अभियान में नेस्तनाबूत हो गया और बाद में सामने ही स्थापित हुआ। वह देर रात तक रोशन रहा करता है। इसी प्रकार स्टेशन रोड पर मजदूर पान हाउस, जनता पान हाउस, गुप्ता पान हाउस व चाचा पान हाउस, बजरंगगढ़ चौराहे पर शास्त्रीनगर की ओर जाने वाले रास्ते के नुक्कड़ पर स्थित दो दुकानें, हाथीभाटा के नुक्कड़ पर हंसमुख पान वाला, केन्द्रीय रोडवेज बस स्टैंड के ठीक सामने निहाल पान हाउस, रामगंज स्थित मामा की होटल आदि भी छोटे-मोटे ठीये रहे हैं।  वैशाली नगर में सिटी बस स्टैंड पर गुप्ता पान हाउस पहले एक केबिन में था, जो बाद में एक बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर में तब्दील हो गया। वहां पान की दुकान अब भी है। ऐसे कई और ठिये होंगे, जो मुझ अल्पज्ञानी की जानकारी में नहीं हैं। आपको पता हो तो इस सूची में इजाफा कर दीजिए।


-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, 21 मई 2020

एक थी नाले शाह की मजार...

शहर के चंद बुद्धिजीवियों को ही पता है कि अजमेर में एक स्थान नाले शाह की मजार के नाम से जाना जाता था। अब उसका कोई नामो-निशान नहीं है। दरअसल न तो नाले शाह नाम के कोई शख्स हुए और न ही वह किसी की मजार थी। वह एक ठीया था। क्लॉक टॉवर पुलिस थाने के मेन गेट से सटी बाहरी दीवार पर रोजाना रात सजने वाले मजमे को कुछ मसखरे नाले शाह की मजार कहा करते थे। दरअसल दीवार के सहारे पटे हुए एक नाले पर होने के कारण ये नाम पड़ा था। इस ठीये पर शहर की चौधर करने वाले जमा होते थे। बाखबर के साथ बेखबर चर्चाओं का मेला लगता था। अफवाहों की अबाबीलें घुसपैठ कर जातीं, तो कानाफूसियां भी अठखेलियां करती थीं। हंसी-ठिठोली, चुहलबाजी, तानाकशी व टीका-टिप्पणी के इस चाट भंडार पर शहर भर के चटोरे खिंचे चले आते थे। दुनियाभर की टेंशन और भौतिक युग की आपाधापी के बीच यह वह जगह थी, जहां आ कर जिंदगी रिलैक्स करती थी। इतना ही नहीं, वहां शहर की फिजां का तानाबाना सायास नहीं, अनायास बुना जाता था। यहां से निकली हवा शहर की आबोहवा में बिखर जाती थी।
दैनिक भास्कर, अजमेर संस्करण के संपादक डॉ. रमेश अग्रवाल इस अनछुए से ठिये को अपने आलेख में बखूबी छू चुके हैं। उसकी सुर्खी थी- ठिये-ठिकाने, जहां जि़न्दगी मुस्कुराती है। चंद माह पहले अजयमेरू प्रेस क्लब मेें चाय पर चर्चा के दौरान भी उन्होंने अजमेर के इस खास ठिये का जिक्र करते हुए मौजूद पत्रकार साथियों को तकरीबन पंद्रह साल पीछे ले जा कर गहरी डुबकी लगवाई थी। अपने आलेख में डॉ. अग्रवाल ने इसे कुछ इस तरह बयां किया है:- अजमेर रेलवे स्टेशन के बाहर मुख्य सड़क पर ऐसी ही एक चौपाल बरसों तक लगा करती थी, जिसमें बैठने के लिए लोग अपने दुपहिया वाहनों का इस्तेमाल किया करते थे। कई बार यह रात्रि चौपाल भोर होने तक खिंच आती थी। अजमेर की इस चौपाल में बहुसंख्या भले ही शहर के पत्रकारों की रहा करती हो, मगर शिरकत बड़े-बड़े मंत्रियों व अफसरों से लेकर पंक्चर बनाने वालों तक की रहती थी।
डॉ. रमेश अग्रवाल
असल में डॉ. अग्रवाल ही इस ठिये के सूत्रधार थे। तब वे नवज्योति में हुआ करते थे। उनके संपादन कार्य से निवृत्त के बाद यहां पहुंचने से पहले ही  एक-एक करके ठियेबाज जुटना शुरू हो जाते थे। सबके नाम लेना तो नामुमकिन है। चंद शख्सियतों का जिक्र किए देते हैं:- स्वर्गीय श्री वीर कुमार, रणजीत मलिक, इंदुशेखर पंचोली, संतोष गुप्ता, नरेन्द्र भारद्वाज, ललित शर्मा, अतुल शर्मा, तिलोक आदि-आदि, जो कि रोजाना इस मजार पर दीया जलाने चले आते थे। डॉ. अग्रवाल के आने के बाद तो महफिल पूरी रंगत में आ जाती थी। इस मयखाने की मय का स्वाद चखने कई रिंद खिंचे चले आते थे। यहां दिनभर की सियासी हलचल के साथ अफसरशाही के किस्सों पर खुल कर चटकारे लिये जाते थे। समझा जा सकता है कि दूसरे दिन अखबारों में छपने वाली खबरों का तो जिक्र होता ही था, उन छुटपुट वारदातों पर भी कानाफूसी होती थी, जो ऑफ द रिकार्ड होने के कारण खबर की हिस्सा नहीं बन पाती थीं। अगर ये कहा जाए कि इस ठिये पर शहर का दिल धड़कता था तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। चूंकि यहां हर तबके के बुद्धिजीवी जमा होते थे, इस कारण खबरनवीसों को शहर की क्रिया-प्रतिक्रिया का भरपूर फीडबेक मिला करता था। जो बाद में अखबारों के जरिए शहर की दिशा-दशा तय करता था। जिन पंक्चर बनाने वाले का जिक्र आया है, उनका नाम है श्री सीताराम चौरसिया। कांग्रेस सेवादल के जाने-माने कार्यकर्ता। सेवादल के ही योगेन्द्र सेन इस मजार के पक्के खादिम थे। बाद में यह ठीया वरिष्ठ पत्रकार इंदुशेखर की पहल पर पैरामाउंट होटल के एक कमरे में शिफ्ट हो गया था। एक घर बनाऊंगा की तर्ज पर एक सा छोटा ठिया सामने ही रेलवे स्टेशन के गेट के पास कोने में चाय की दुकान पर भी खुला, जो दैनिक न्याय के पत्रकारों ने जमाया था। लगे हाथ ये बताना वाजिब रहेगा कि नाले शाह की मजार से भी पहले क्लॉक टॉवर के सामने मौजूदा इंडिया पान हाउस के पास चबूतरे पर दैनिक नवज्योति के तत्कालीन क्राइम रिपोर्टर स्वर्गीय श्री जवाहर सिंह चौधरी देर रात के धूनी रमाया करते थे।

-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, 20 मई 2020

कीर्ति पाठक को मिल गया अजमेर उत्तर का प्रत्याशी

अजमेर। आम आदमी पार्टी की संभाग प्रभारी श्रीमती कीर्ति पाठक को आखिर अजमेर उत्तर के लिए ढ़ंग का प्रत्याशी मिल ही गया। हालांकि यह अभी दूर की कौड़ी है, मगर जिस प्रकार से साधन संपन्न गुलाब मोतियानी शहर अध्यक्ष पद के लिए राजी हुए हैं, उससे यही प्रतीत होता है कि आगे चल कर वे ही अजमेर उत्तर से आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी होंगे।
असल में स्वयं श्रीमती पाठक पर शुरू से ही यह दबाव था कि वे चुनाव की तैयारी करें, चूंकि पार्टी उन्होंने ही खड़ी की है, मगर वे कभी इसके लिए राजी नहीं हुईं। अन्ना आंदोलन से लेकर अब तक उनकी राजनीतिक व सामाजिक गतिविधियों को देख कर यह आम धारणा थी कि वे ही चुनावी रण में उतरना चाहती हैं, मगर वे बार- बार स्पष्ट करती रहीं कि उनकी रुचि केवल संगठन में है। उनके इंकार के बाद उन्हीं को यह दायित्व सौंपा दिया गया कि वे स्वयं ही पात्र प्रत्याशी की तलाश करें। आखिर उनकी तलाश पूरी हो गई दिखती है। जिस प्रकार लगातार तीन चुनावों में कांग्रेस ने किसी सिंधी को टिकट नहीं दिया, उस कारण सिंधी वोटों का धु्रवीकरण काफी हद तक भाजपा की ओर हो चला था। आम आदमी पार्टी को एक ऐसे सिंधी प्रत्याशी की जरूरत थी, जो कि भाजपा अथवा मौजूदा विधायक व पूर्व शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी से व्यक्तिगत रूप से खफा सिंधी वोटों में सेंध मार सके। चूंकि सिंधी मतदाताओं के पास कोई विकल्प नहीं होता था, इस कारण सब के सब भाजपा की झोली में गिर जाते थे। चंद पक्के कांग्रेसियों के कांग्रेस को मिलते हों, ये अलग बात है।
गुलाब मोतियानी
असल में कीर्ति पाठक की बड़ी पैनी नजर है। वे जानती हैं कि मुस्लिम वोट बैंक में भी एक बड़ा हिस्सा है, जो कि भाजपा को तो कत्तई नहीं चाहता, और कांग्रेस से भी फोकट नाराज रहता है, वह आम आदमी पार्टी की ओर खींचा जा सकता है। इस प्रकार एक साथ सिंधी व मुस्लिम वोट बैंक में डाका डाला जा सकता है।
रहा सवाल मोतियानी का तो वे कायदे का स्कूल चलाते हैं। इस कारण प्रतिष्ठित तो हैं। जो आदमी स्कूल चला ले, समझ लीजिए कि उसे लोगों को भी चलाना आ गया। पढ़े-लिखे और कूल माइंडेड भी हैं। वैसे उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा काफी समय से बताई जाती है, मगर उन्हें कोई उपयुक्त मंच नहीं मिल रहा था। बताया जाता है कि पिछली बार भी उनकी मंशा थी कि कांग्रेस के टिकट के लिए कोशिश की जाए, मगर उनसे कई अधिक गुना संपन्न दीपक हासानी के एडी चोटी का जोर लगाए जाने के कारण कदाचित वे पीछे हट गए। मोतियानी की प्रतिष्ठा तो है, मगर सिंधी समाज की मुख्य धारा में उनकी कोई खास सक्रियता नहीं है, लेकिन उसके लिए अभी बहुत समय पड़ा है। दीपक हासानी की तरह आखिरी साल-छह महिने में भी चौसर बिछाई तो काम चल जाएगा। बड़ी वजह ये है कि सिंधी समाज का एक गुट देवनानी का विकल्प चाहता है, फिर भले ही चाहे जो कोई हो।
कुल मिला कर श्रीमती पाठक की च्वाइस को दाद देनी होगी। छांट कर लाई हैं। वैसे उनकी राजनीतिक समझ इस बात की संभावना से इंकार नहीं करेगी कि अभी तो वे इस मंच पर काम करके पहचान बनाएंगे और आखिरी वक्त में पाला बदल कर कांग्रेस का टिकट भी मांग सकते हैं, क्योंकि वहां मैदान खाली है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
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मंगलवार, 19 मई 2020

जयपाल ने निभाई लखावत से दोस्ती

इन दिनों सम्राट पृथ्वीराज चौहान जयंती के सिलसिले में स्वामी न्यूज के सीएमडी कंवल प्रकाश किशनानी के संयोजन में अनेक ऑन लाइन प्रतियोगिताएं आयोजित की जा रही हैं। चूंकि लॉक डाउन है, इस कारण तारागढ़ के आधे रास्ते में बने सम्राट पृथ्वीराज चौहान स्मारक पर भी श्रद्धा सुमन अर्पित करने चंद लोगों के ही जाने की संभावना है। वरना अच्छी खासी भीड़ होती है। खैर, इस मौके पर चंद साल पहले का एक किस्सा ख्याल में आ गया, जो न्याय सबके लिए में प्रकाशित हुआ था। तनिक संशोधन के पेश है आपकी नजर:-
सम्राट पृथ्वीराज चौहान जयंती  के अवसर पर सम्राट पृथ्वीराज चौहान समारोह समिति, नगर निगम, नगर सुधार न्यास एवं पर्यटन विभाग के संयुक्त तत्त्वावधान में तारागढ़ पर स्थित स्मारक पर आयोजित देशभक्ति सांस्कृतिक संध्या में पहली बार शहर कांग्रेस अध्यक्ष जसराज जयपाल की मौजूदगी ने सभी को चौंका दिया। दरअसल स्मारक भाजपा के वरिष्ठ नेता औंकार सिंह लखावत ने अपने न्यास अध्यक्ष के कार्यकाल में बनवाया था। तभी से यहां आयोजित होने वाले जयंती समारोह के लिए गठित समिति में लखावत सहित अन्य भाजपा नेताओं का वर्चस्व है और यह समिति ही समारोह आयोजित करती है। इस कारण कांग्रेसी इस कार्यक्रम से दूरी ही बनाए रखते हैं। लेकिन पहली बार शहर कांग्रेस अध्यक्ष जसराज जयपाल और उनके महामंत्री कुलदीप कपूर इसमें पहुंचे तो सभी का अचरज में पडऩा लाजिमी था।
जयपाल
समझा जा सकता है कि जयपाल को कायक्रम में आने के लिए लखावत ने ही मनाया होगा। तब नगर निगम पर तो भाजपा का कब्जा है। उसका सहयोग लेने में तो कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन न्यास व पर्यटन विभाग कांगे्रस सरकार के अधीन आते हैं। इन विभागों से सहयोग लेना था, इस कारण लखावत ने जयपाल को पटाया। यह सब को पता है कि जयपाल पर्यटन मंत्री बीना काक के काफी करीब हैं, इस कारण पर्यटन विभाग तुरंत सहयोग करने को तैयार हो गया। भाजपा नेताओं की ओर से गठित समिति को न्यास कैसे सहयोग करे, इसके लिए भी जयपाल का सहयोग लेना जरूरी समझा गया। न्यास अध्यक्ष राजेश यादव के लिए कदाचित कुछ मुश्किल रही हो, लेकिन शहर कांग्रेस अध्यक्ष के नाते जयपाल ने इसमें शिरकत कर उनकी परेशानी दूर कर दी।
रही अंदर की बात तो यह कम लोगों को ही पता है कि जयपाल और लखावत पुराने मित्र हैं।
लखावत
वे हमपेशा वकील भी हैं। चर्चा है कि जयपाल के पुत्र डॉ. राजकुमार जयपाल जब स्वाति लोढ़ा बलात्कार कांड में गलत फंसे थे, हालांकि बाद में बाइज्ज्त बरी हो गए, तब स्वाति लखावत के पास गई, लेकिन उन्होंने जयपाल से दोस्ती के कारण उनका केस लेने से मना कर दिया। हालांकि वे चाहते तो केस लेकर कमाते भी और वाहवाही भी लूटते, लेकिन उन्होंने मित्रता को ज्यादा तरजीह दी। अनुमान लगाया जा सकता है कि दोनों में कितनी गहरी दोस्ती रही है, पार्टियां भले ही अलग-अलग हों। वैसे बता दें कि लखावत भले ही भाजपा के दिग्गज नेता हों, लेकिन कांग्रेस के नेताओं से उनके काफी करीब के रिश्ते रहे हैं। भूतपूर्व शहर कांग्रेस अध्यक्ष माणकचंद सोगानी से भी उनके अच्छे रिश्ते थे। तभी तो सोगानी ने नगर सुधार न्यास अध्यक्ष पद पर रहते हुए लखावत को चारण साहित्य शोध संस्थान को कौडिय़ों के दाम में जमीन मुहैया करवा दी थी। यानि लखावत अपने भाजपाई दुश्मनों को निपटाने में जरा भी दया न करते हों, मगर हैं पक्के यारबाज और कांग्रेसी मित्रों से उनकी खूब पटती है।

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

डॉक्टर मलिक साहब का तो कोई मुकाबला ही नहीं है

डॉक्टर एन. सी. मलिक के चमत्कारिक इलाज के बारे में पिछले ब्लॉग पर प्रतिक्रिया देते हुए दैनिक न्याय परिवार के वरिष्ठ पत्रकार श्री वृहस्पति शर्मा, जो कि आजकल जयपुर निवास करते हैं, ने भी अपना स्वयं का अनुभव शेयर किया है। वह हूबहू आपकी नजर:-
मै स्वयं इसका जीवंत उदाहरण हूं। वर्ष 1979 मे मुझे पेट मे भयंकर बीमारी हुई। कई माह तक परेशान रहा। अजमेर, जयपुर एवं उदयपुर के अनेक डॉक्टर्स को दिखाया। न जाने कितने टेस्ट, एक्स रे  करवाये गये। खाने मे अधिकतर वस्तुएं बंद कर दी गई। लगता था जीवन का अंत नजदीक है। डॉक्टर्स को कुछ समझ नहीं आ रहा था। अंत मे यह फाइनल रहा कि ऑपरेशन किया जाएगा, तभी पता लगेगा कि वास्तव मे समस्या क्या है? ऑपरेशन से एक दिन पहले मैं एवं पत्नी आगरा गेट गणेश जी एवं हनुमान जी के मंदिर गये। जब हम वहां से आ रहे थे, तब मेरा एक मित्र मिला। उसने मेरी हालत देख कर सारी बात पूछी। मैने उसे सब कुछ बताया और यह भी बताया की कल ऑपरेशन है। उसने मेरे को कहा कि मेरी बात मानो, एक बार डॉक्टर मलिक साहब को दिखा लो। मैने कहा की मैं तो जानता ही नहीं हूं। उसने कहा मै जानता हूं एवं मैं उनके यहां जाता रहता हूं।
डॉक्टर एन. सी. मलिक
मैं अपनी सारी जांच रिपोर्ट्स, एक्स रे आदि लेकर डाक्टर मलिक के यहां भगवान का नाम लेकर गया। डॉक्टर साहब ने दो मिनट मेरी बात सुनी। मैने मेरी फाइल उनके आगे रखी। सच कहता हूं उन्होंने उसके हाथ भी नहीं लगाया। इसके अलावा उन्होंने सभी डॉक्टर्स के लिये जो शब्द यूज किए एवं जो गालियां दीं, मैं उनका यहां उल्लेख नहीं कर सकता। डॉक्टर साहब ने मुझे कहा कि जेन्टल मैन, तुम एक दम ठीक हो जाओगे। उन्होंने मुझे 10 दिन की दवा लिखी, जो शायद 15 रुपए की आई। जब मैने खाने के लिये पूछा तो उन्होंने कहा सब कुछ खाओ। उन्होंने यह भी कहा की 10 दिन के बाद आने की आवश्यकता नहीं है। सच कहता हूं, आधा तो मैं उसी वक्त ठीक हो गया। 10 दिन बाद मैं बिलकुल ठीक हो गया और आज तक मुझे फिर वो समस्या नहीं हुई। 10 दिन बाद मैं डॉक्टर साहब को धन्यवाद देने जरूर गया। डॉक्टर मलिक सच्चे मायने मे भगवान थे। उनके ऐसे अनेक किस्से हैं।

-तेजवानी गिरधर
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रविवार, 17 मई 2020

बेमिसाल डॉक्टर थे एन. सी. मलिक

आजकल छोटी से छोटी बीमारी का इलाज भी बिना टेस्ट के नहीं होता। एक जमाना था जब हमारे यहां के वैद्य नाड़ी देख कर बीमारी का पता लगा लेते थे। ऐसे में अगर कोई डॉक्टर बीमार की दास्तां सुन कर इलाज कर दे तो उसे क्या कहेंगे? बेशक, ऐसे डॉक्टर को लंबे अनुभव से शरीर विज्ञान की गहरी समझ हो गई होगी। ऐसे अनुभवी और बेमिसाल डॉक्टर थे डॉ. एन. सी. मलिक। उनके बारे में एक किस्सा शहर के बुद्धिजीवियों में कहा-सुना जाता रहा है।
सत्तर के दशक की बात है। एक बार तोषनीवाल इंडस्ट्रीज में काम करने वाले पी. भट्टाचार्य उनके पास गए। तकलीफ ये बताई कि उनकी पीठ में छह माह से दर्द है। कई इलाज करवाए। मगर ठीक नहीं हुआ। सारी दास्तां सुन कर डॉक्टर साहब ने उनसे पूछा- आप कैसे आए हैं? उन्होंने बताया- साइकिल से। डाक्टर साहब ने चलो बाहर, मुझे दिखाओ। बाहर जा कर डॉक्टर साहब ने सीधे साइकिल की सीट को चैक किया। उस जमाने में चमड़े की कड़क सीट हुआ करती थी। वहीं खड़े-खड़े भट्टाचार्य जी से कहा- आपको कोई बीमारी नहीं है, जा कर मैकेनिक से सीट के नीचे की स्प्रिंग चैंज करवा लो। भट्टाचार्य जी तो हक्के-बक्के रह गए। चंद दिन बाद आ कर उन्होंने रिपोर्ट दी कि कमर का दर्द पूरी तरह से गायब हो गया है। किसी फिजीशियन का इस प्रकार बीमारी का निदान और इलाज कर देना वाकई जादूगरी से कम नहीं है।
डॉ. एन. सी. मलिक
इस किस्से की पुष्टि उनके सुपुत्र जाने-माने इंटरनेशनल टेबल टेनिस अंपायर श्री रणजीत मलिक ने भी की। एक किस्सा खुद उन्होंने बताया। वो ये कि एक बार वे कॉलेज जाने से पहले जेब खर्ची के लिए पिताश्री के क्लीनिक में गए तो वहां एक आदमी बहुत कराह रहा था। साथ में आए व्यक्ति ने डॉक्टर साहब को बताया कि पिछले एक माह से सिर में तेज दर्द है। कई डाक्टरों को दिखाया, मगर कोई राहत नहीं मिली। राहत तो दूर बीमारी तक का पता नहीं लग रहा। इस पर डॉक्टर साहब ने बीमार के अटेंडेंट से कहा- जा कर किसी नाई से नाक के बाल कटवाओ। अटेंडेंट भौंचक्क सा खड़ा रहा। इस पर डॉक्टर साहब ने कहा- अरे भाई, जैसा मैं कह रहा हूं, करो। जो इलाज करवाते करवाते तंग आ गया हो, वह इस उपाय को भी करने को राजी हो गया। आधे घंटे बाद आ कर मरीज ने डॉक्टर साहब के पैर पकड़ लिए। वह ठीक हो गया था। रणजीत जी ने पिताश्री से इस वाकये का राज पूछा। इस पर डॉक्टर साहब ने बताया कि आम तौर पर नाक के बाल बाहर की ओर आते हैं, जिसे कि हम काट देते हैं। इस आदमी के नाक के बाल अंदर की तरफ चले गए थे, इसी कारण इसके सिर में दर्द रहता था। है न कमाल का डायग्रोस और लाजवाब इलाज।
यहां आपको बता दें कि डॉ. एन सी मलिक का जन्म 30 मार्च 1916 को हुआ। उन्होंने 1945 में विक्टोरिया हॉस्पिटल, जिसे कि अब जवाहर लाल नेहरू अस्पताल के नाम से जाना जाता है, में ब्रिटिश डॉक्टर चार्लुड के साथ नौकरी आरंभ की। उन्होंने कोलकाता से एमबी की डिग्री ली। एफआरसीपी अर्थात फैलो ऑफ रॉयल कॉलेज ऑफ फिजीशियन, ग्लास्गो इंग्लैंड से कार्डियोलॉजिस्ट, न्यूयॉर्क से एफआईसीए अर्थात फैलो ऑफ इंटरनेशनल कॉलेज ऑफ एंग्योलॉजी की डिग्रियां भी लीं। वे जवाहरलाल नेहरू हॉस्पीटल के पहले सुपरिटेंडेंट थे। वे राजस्थान के पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिनका नेहरू अस्पताल में प्रोफेसर एंड हेड ऑफ द डिपार्टमेंट ऑफ मेडिसिन के रूप में डायरेक्ट अपॉइंटमेंट हुआ। उन्होंने ही नेहरू अस्पताल में कार्डियोलॉजी डिपार्टमेंट शुरू करवाया।
वे जब तक सरकारी नौकरी में थे, तब तक सरकार की ओर से तय 16 रुपए ही फीस लिया करते थे। रिटारयर होने के बाद उन्होंने फीस बढ़ा दी, जो कि एक सौ रुपए से पांच रुपए तक हो गई।
श्री मलिक ने बताया कि एक बार एक मरीज पिताश्री को दिखाने आया। मरीज ने फीस पूछी। पता लगा कि फीस पांच सौ रुपए है। इस पर उस बीमार ने अपना बटुआ निकाल कर कहा कि वह गरीब आदमी है, उसके पास केवल नब्बे रुपए ही हैं। इस पर पिताश्री ने उससे कहा कि दवाई ले लो और ये नब्बे रुपए भी रख लो। उन्होंने बताया कि वे गरीबों का मुफ्त इलाज किया करते थे। गरीब मरीजों के लिए वे भगवान का ही रूप थे। गरीब गांव वाले इलाज के एवज में सब्जियां भेंट कर जाते थे।
डॉक्टर साहब का देहावसान 87 वर्ष की उम्र में 16 अक्टूबर 2000 को हुआ।

-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, 16 मई 2020

अजयपाल जोगी, काया राख निरोगी

मैं तारागढ़ हूं। भारत का पहला पहाड़ी दुर्ग। समुद्र तल से 1855 फीट ऊंचाई। अस्सी एकड़ जमीन पर विस्तार। वजूद 1033 ईस्वी से। राजा अजयराज चौहान द्वितीय की देन। सन् 1033 से 1818 तक अनगिनत युद्धों और शासकों के उत्थान-पतन का गवाह। 1832 से 1920 के बीच अंग्रेजों के कब्जे में रहा। अब दरगाह मीरां साहब, टूटी-फूटी बुर्जों, क्षत-विक्षत झालरे के अतिरिक्त कुछ नहीं। एक बस्ती जरूर मेरे आंचल में सांस लेती है। 

आज जब मेरा अजमेर शहर कोरोना बीमारी से त्रस्त है, कोरोना से कम, लॉक डाउन से कुछ ज्यादा पस्त है, मुझे यकायक एक लोकोक्ति याद आ गई :- अजयपाल जोगी, काया राख निरोगी।
अनेक इतिहासकार मानते हैं कि अजमेर के प्रथम शासक अजयराज ही अजयपाल जोगी थे। आज जब हम संकट में तो ऐसे महान योगी को याद करना चाहिए, जिनके नाम लेने मात्र से लोग स्वस्थ हो जाया करते थे। प्रसंगवश बाबा अजयपाल के बारे में और अधिक जानकारी भी ले लें।
अजयपाल बाबा का स्थान फॉयसागर से छह किलोमीटर दूर अजयसर गांव में है। इतिहासविद श्री शिव शर्मा के अनुसार विख्यात पत्रिका कल्याण् (सन् 1967) में पृ. 387 पर उल्लेख मिलता है कि पुष्कर में सृष्टि यज्ञ के समय प्रजापति ब्रह्मा ने भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए चार शिवलिंग स्थापित किए थे। उनमें एक अजगंध महादेव यहां प्रतिष्ठित किया था। संभवत इस अज नाम से ही अजयसर गांव बसाया गया। अब इस शिवलिंग का कोई अवशेष नहीं मिलता है। बारहवीं सदी में चौहान राजा अर्णोराज ने यहां जो शिव मंदिर बनवाया, वह आज भी विद्यमान है। बाद में यह स्थान अजयपाल बाबा के नाम से विख्यात हुआ। गांव के लोग बताते हैं कि सपादलक्ष के राजा अजयपाल चौहान ने छठी सदी में बीठली पहाड़ी (अजयमेरू) पर एक सैनिक चौकी स्थापित की और अजयसर गांव बसाया। अपनी वृद्धावस्था में यह राजा सन्यासी के रूप में इसी स्थान पर रहा। वह तपस्या के बल पर सिद्ध जोगी हो गया था और इसीलिए अजयपाल बाबा कहा जाने लगा। किंतु कुछ इतिहासकार इस मान्यता को गलत मानते हैं क्योंकि उस समय तक नाथ पंथ का आरंभ नहीं हुआ था। बारहवीं सदी में मच्छेन्द्र नाथ (मत्स्येन्द्र) ने इस साधना पद्धति का आरंभ किया था। इसके बाद ही यह स्थान नाथ बाबा या नाथ जोगियों के साधना स्थल के रूप में विख्यात हुआ होगा।
चौहान राजा अजयराज द्वितीय का समय बारहवीं सदी था वह भी आयु के अंतिम प्रहर में सन्यासी हो गया था। लेकिन हो सकता है कि वह यहां इस घाटी में रहा हो और उसी के नाम पर यह स्थान विख्यात हो गया हो। उधर अजमेर का गुर्जर समाज का मानना है कि अजैपाल गुर्जर जाति का एक सिद्ध पुरुष था। वह पक्का शिवभक्त एवं नाथ पंथ में दीक्षित था। उसके पास उच्च कोटि की तांत्रित सिद्धियां थीं। वह बकरी चराया करता था। उसके तपोबल से ही यह घाटी साधना स्थली बनी और उसी के नाम पर विख्यात हुई। इस संदर्भ में कहावत भी प्रचलित है- अजयपाल जोगी, काया राखे निरोगी। मुस्लिम समाज में इसी जोगी को अब्दुल्ला बियाबानी, भूखे को रोटी, प्यासे को पानी कहा गया है। इस अजयपाल बाबा की यहां एक सोटाधारी प्रतिमा है। प्रतिवर्ष भाद्रपद माह में दूसरे पखवाड़े के छठे दिन यहां बाबा का मेला लगता है, जिसमें दूर-दूर से कनफटे जोगी आते हैं।
अजयसर में बाबा अजयपाल के सिर की समाधि स्थापित है और धड़ की समाधि गुजरात के भुज कच्छ जिले के अंजार में स्थित है। अजयसर पर मुसलमानों की विशाल सेना का आक्रमण होने पर अजयपाल ने देखा कि संख्या बल ज्यादा होने से बचना मुश्किल है, तब विर्धमी के हाथों मरने के बजाय उन्होंने अपने हाथों अपना ही सिर काटकर आक्रमणकारियों पर हमला किया। बिना सिर के अजयपाल को लड़ते देखकर मुस्लिम सेना भाग खड़ी हुई। भागती सेना का पीछा करते हुए अजयपाल अंजार तक जा पहुंचे, जहां उनका धड़ निष्प्राण होकर गिर पड़ा। अंजार में बाबा अजयपाल का समाधि स्थल बना हुआ है।
अजयपाल बाबा की आध्यात्मिक शक्ति को व्यक्त करने वाली एक लोककथा बहुत प्रचलित है। रावण के सिपाही उनसे कर मांगने आए। उन्होंने सैनिकों को कहा- रावण की लंका का नक्शा इस जमीन की मिट्टी पर बनाओ। सैनिकों ने वैसा ही किया। तब बाबा ने उंगली से लंका के महल का एक कंगूरा मिटा दिया और उधर वास्तव में ही लंका में रावण के महल का एक कंगूरा टूट गया था। सैनिक उनका रूहानी रूप देखकर डर गए और यहां से लौट गए। इस लोककथा की सच्चाई कुछ और ही है- अजमेर के चौहान राजा सोमेश्वर ने लंकेश की उपाधि धारण की थी और उसके साथ अजयपाल जोगी की तकरार हो गई थी। उसका अहंकार दूर करने के लिए बाबा ने अपनी रूहानी ताकत के सहारे तारागढ़ का एक कंगूरा तोड़ दिया था। यह जोगी ख्वाजा साहब का भी समकालीन था। इस प्रसंग से संकेत मिलता है कि यह स्थान शक्ति साधना का केन्द्र भी था। ऐसे शक्ति केन्द्र को याद करते हुए मैं तारागढ़ दुआ मांगता हूं:- अजयपाल जोगी, रख सब अजमेर वासियों की काया निरोगी।

आपका खैरख्वाह
तारागढ़

-प्रस्तोता
तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, 15 मई 2020

हम तो साइकिल का भी चालान कटवाते थे

मैं तारागढ़ हूं। भारत का पहला पहाड़ी दुर्ग। समुद्र तल से 1855 फीट ऊंचाई। अस्सी एकड़ जमीन पर विस्तार। वजूद 1033 ईस्वी से। राजा अजयराज चौहान द्वितीय की देन। सन् 1033 से 1818 तक अनगिनत युद्धों और शासकों के उत्थान-पतन का गवाह। 1832 से 1920 के बीच अंग्रेजों के कब्जे में रहा। अब दरगाह मीरां साहब, टूटी-फूटी बुर्जों, क्षत-विक्षत झालरे के अतिरिक्त कुछ नहीं। एक बस्ती जरूर मेरे आंचल में सांस लेती है। आजादी के बाद हुए हर बदलाव भी का साक्षी हूं।

आज मेरा शहर कोरोना से ग्रस्त है। इसके साथ चर्चा में आए नए शब्द हैं क्वारेंटाइन, सेनेटाइज, शेल्टर होम इत्यादि, मगर कोरोना के बाद यदि सबसे ज्यादा कोई चर्चित शब्द हैं तो वो हैं चालान व सख्ती। यह पुलिस की मुस्तैदी व सख्ती ही कहिये या इस ऐतिहासिक व महान शहर के वाशिंदों की तथाकथित आवारगी, जिसका परिणाम है कि आज सोलह हजार से भी ज्यादा वाहन पुलिस थाना परिसरों की शोभा बढ़ा रहे हैं। जिन व्हीकल्स पर डेली कपड़ा मारा जाता था, वे दो माह से कड़ी धूप और आंधी-तूफान-बारिश की मार झेल रहे हैं। किसी ने बताया कि एक मोटर साइकिल की हेड लाइट के गार्ड में सुरक्षित खाली जगह देख चिडिय़ा ने तो घोंसला ही बना डाला। खैर, व्यवस्था दी गई कि जो चाहे वह जुर्माना अदा करके वाहन ले जाए, मगर शर्त ये कि फिर वाहन सड़क पर ले कर मत आता, सो लोग वाहन छुड़वा ही नहीं रहे। लोगों ने भी शायद सोच रखा है कि अब कोर्ट से ही छुड़वाएंगे। ऑन द रिकॉर्ड चालान तो इतने कटे हैं कि रिकॉर्ड ही बन गया है। समझा जाता है कि पूरे राजस्थान में सबसे ज्यादा रेवेन्यू अजमेर से ही हुई है। तभी तो बड़े गर्व के साथ उसके आंकड़े बताये जाते हैं। लंबे लॉक डाउन व कफ्र्यू के कारण अजमेरी लालों का विल पावर टूल डाउन हो गया है, मगर नियमों की अवहेलना की आदत अब भी बरकरार है। पुलिस का इकबाल भी ऊंचा है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि दो माह से लोगों को रोकते-रोकते पुलिस की आदत भी हो गई है कि जैसे ही कोई अजमेरी लाल दिखाई देता है, रोकने को लपकती है। पुलिस कप्तान को इसका अंदाजा था, तभी तो बाकायदा एक ऑडियो संदेश में समझाना पड़ा कि डेली अपडेट रहना। अब छूट शुरू होगी। ऐसा न हो कि जिसे छूट हो उसे ही पकड़ लो। खैर, तीसरे लॉक डाउन के बाद भी जैसे ही जरा सी छूट मिली, फिर धड़ाधड़ चालान कट गए। जरूर हमारी फितरत में ही कोई खोट है। बहुत समझाने के बाद भी बिना मास्क के, बिना हेलमेट के निकल पड़ते हैं। कह रखा है कि टू व्हीलर में एक जना अलाऊ है, फिर भी बहादुरी से दो बैठ कर निकलते हैं। कई तो ऐसे हैं जो पुलिस को देख कर और तेजी से वाहन चलाते हैं। इस बात की भी परवाह नहीं करते कि डंडा नामक शस्त्र, अस्त्र के रूप में फैंक कर इस्तेमाल किया जा सकता है। गर पकड़े गए और चालान कटने लगे तो हर कोई मोबाइल फोन पर किसी से बात करवा करवा छूटने के जतन करता है। इसी चालान को लेकर लॉक डाउन से पहले कितनी ही बार ट्रेफिक पुलिस से टकराव हुए हैं। पार्षद तक संगठित हो कर भिड़ चुके हैं। ऐसा लगता है कि अजमेर वासियों की आदत पुरानी है। चालान से उसका चोली दामन का साथ है।
बात सख्ती की चली है तो अब ये शब्द इरिटेट करता है। सख्ती... सखती.... सख्ती। क्या हम जंगली हैं? जगंली न सही ट्रेफिक सेंस के मामले में तो हम फिसड्डी हैं ही। हाल ही सोशल मीडिया पर वायरल एक कविता, जिसे तुकबंदी कहना अधिक उपयुक्त रहेगा, ख्याल में आती है। कदाचित उसमें कुछ अपवाद या अतिशयोक्ति भी हो सकती है, मगर वह कुल मिला कर सख्ती का शब्द चित्र तो खड़ा करती ही है। मगर अफसोस, अज्ञात कवि की इन पंक्तियों को सुना-अनसुना कर दिया गया:-
पुलिस खड़ी है डगर-डगर।
आ मत जाना शस्त्रीनगर।
लठ सजा रखे हैं हर एक मोड़ पर।
निकलो तो सही फ्रेजर रोड पर।
लाल कर देंगे पिछवाड़ा।
गलती से मत चले जाना भोपों का बाड़ा।
शरीर का छुड़ा देंगे सारा जंग।
जो तुम आये राम गंज। 
बदन से निकलेगी आग।
आ मत जाना दौलत बाग।
उतार देंगे सारी दादागिरी।
चले मत जाना ब्रह्मपुरी। 
जिसको भी खाना हो पुलिस का पेड़ा।
आ कर दिखाओ हाथी खेड़ा।
घर में ही रहिये और लॉक डाउन का पालन कीजिए।
लॉक डाउन का ठीक से पालन नहीं करने का नतीजा सामने है। कहां तो अजमेर मॉडल बनने जा रहा था, और कहां रेड जोन में शुमार है। डेली मरीज बढ़ रहे हैं। पूरे उत्तर भारत में सबसे पहले संपूर्ण साक्षर बने इस शहर के वाशिंदों ने ये मान कर चहल-कदमी, मेल-मिलाप बदस्तूर जारी रखा कि ख्वाजा साहेब का करम और ब्रह्मा बाबा का रहम काम कर जाएगा। हां,  ये उनकी ही रहमत है, जो लोग अभी महफूज हैं। वरना मंजर कुछ और ही होता। मगर नियम तोडऩे की सजा तो भुगतनी ही होगी।
बहुत कम लोगों को ही पता होगा कि अंग्रेजों के जमाने में भी अजमेरियों की नियम तोडऩे की ऐसी ही आदत थी। तभी तो ब्रिटिश पुलिस ने तब भी सख्त नियम बनाए थे। सन् 1935 में सख्त यातायात नियम के तहत ही साइकिल चलाई जा सकती थी। हालांकि उस जमाने में संपन्न लोग की साइकिल चलाया करते थे, मगर नियम तोडऩे की आदत तब भी थी। नियम के तहत साइकिल पर चालू हालत में घंटी होना व पीछे रिफ्लेक्टर होना अनिवार्य था। शहरी क्षेत्र में दस किलोमीटर और बाहरी इलाके में बीस किलोमीटर से ज्यादा गति में साइकिल चलाना अपराध था। नियम की अवहेलना करने पर बीस रुपया जुर्माना अदा करना पड़ता था। तब बीस रुपए की बड़ी कीमत हुआ करती थी। आज तो दो-चार-पांच सौ भी नहीं अखरते। अजमेरियों की और आदतों पर गुफ्तगू फिर कभी।

आपका खैरख्वाह
तारागढ़

-प्रस्तोता
तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

गुरुवार, 14 मई 2020

अजमेर के आंचल में जुटते हैं अनेक मेले

मैं तारागढ़ हूं। भारत का पहला पहाड़ी दुर्ग। समुद्र तल से 1855 फीट ऊंचाई। अस्सी एकड़ जमीन पर विस्तार। वजूद 1033 ईस्वी से। राजा अजयराज चौहान द्वितीय की देन। पहले अजयमेरू दुर्ग नाम था। सन् 1505 में चितौड़ के राणा जयमल के बेटे पृथ्वीराज ने कब्जा किया और पत्नी तारा के नाम पर मेरा नामकरण कर दिया। सन् 1033 से 1818 तक अनगिनत युद्धों और शासकों के उत्थान-पतन का गवाह हूं। 1832 से 1920 के बीच अंग्रेजों के काम आया। अब दरगाह मीरां साहब, टूटी-फूटी बुर्जों, क्षत-विक्षत झालरे के अतिरिक्त कुछ नहीं। एक बस्ती जरूर मेरे आंचल में सांस लेती है। देश की आजादी के बाद हुए हर बदलाव का साक्षी हूं। अफसोस, आज गलियां सूनी और बाजार वीरान हैं। मगर जब इसको कोरोना की नजर नहीं लगी थी, तब मेरे इस अजमेर शहर में मेलों की खूब धूम रही है, जिनकी गूंज देश-विदेश में सुनाई देती रही है। आइये, आज आपको मेलों की रेलमपेल बयां करता हूं:-

ख्वाजा साहब का उर्स:- महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती का सालाना उर्स इस्लामिक कलेंडर के अनुसार रजब माह की एक से छह तारीख तक मनाया जाता है। उनका उर्स छह दिन मनाने की परंपरा की वजह ये है कि यह ज्ञात नहीं हो पाया कि एक से छह रजब तक किसी दिन उन्होंने देह त्यागी। असल में वे सभी को यह हिदयात दे कर एक कोठड़ी में इबादत करने गए कि उन्हें कोई व्यवधान डाले। जब वे बाहर नहीं आए तो छह रजब को कोठड़ी खोली गई। देखा कि वे देह त्याग चुके हैं। उन्होंने किस दिन देह त्यागी, इसका पता नहीं लगने के कारण छहों दिन उर्स मनाया जाने लगा। छठे दिन कुल की रस्म के साथ ही उर्स संपन्न हो जाता है। कुल की रस्म में जायरीन दरगाह के दर-ओ-दीवार को गुलाब व केवड़ा जल से धोते हैं और वह पानी इकट्ठा कर तवर्रुख के रूप में जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि उस पानी से बीमारियों से छुटकारा मिलता है। एक परंपरा यह भी है कि नौ रजब को जायरीन पूरी दरगाह को धोते हैं। इसे बड़े कुल की रस्म कहा जाने लगा। इसी वजह से छह रजब को होने वाली रस्म को छोटे की रस्म कहा जाने लगा। एक रजब से छह रजब तक दरगाह परिसर स्थित जन्नती दरवाजा भी खोला जाता है। छहों दिन महफिलखाने में महफिल होती है, जिसकी सदारत दरगाह दीवान जनाब जेनुल आबेदीन करते हैं। मेले के दौरान आने वाले शुक्रवार को जुम्मे की नमाज होती हैं, जिसमें सभी जायरीन शिरकत करते हैं। इस मेले में तकरीबन दो से तीन लाख जायरीन आते हैं। उनके लिए पुष्कर रोड, कायड़ व ट्रांसपोर्ट नगर में विश्राम स्थलियां बनी हुई हैं। ज्यादा जायरीन पुष्कर रोड वाली विश्राम स्थली पर ठहरते हैं।
मोहर्रम:- यूं तो पूरे देश में मुसलमान मोहर्रम मनाते हैं, मगर यहां दरगाह ख्वाजा साहब की वजह से जायरीन बड़ी तादात में आते हैं। प्रशासन को भी उर्स मेले की तरह के इंतजामात करने होते हैं, इस कारण इसे मिनी उर्स कहा जाने लगा है। पूरे देश में अकेले अजमेर में ही मोहर्रम के दौरान हाईदोस खेला जाता है। इसमें हाईदोस खेलने वाले नंगी तरवारों से करतब दिखाते हैं। मोहर्रम माह के दौरान तारागढ़ पर विशेष मातम मनाया जात है। मोहर्रम के दिन सीने को पीट-पीट कर लहुलहान कर देने वाला मंजर रूह का कंपा देने कर देने वाला होता है। इसके अतिरिक्त अंगारों पर चलना भी शरीर का रोम-रोम खड़ा कर देता है।
पुष्कर मेला:- अजमेर से तकरीबन 11 किलोमीटर दूर तीर्थराज में हर साल कार्तिक एकादशी से पूर्णिमा तक धार्मिक मेला भरता है। ऐसी मान्यता है कि इस दौरान पुष्कर सरोवर में स्नान करने विशेष पुण्य मिलता है। इसमें शामिल होने के लिए लाखों तीर्थयात्री आते हैं। ग्रामीण परिवेश की रंगीन संस्कृति के इस मेले में सर्वाधिक भीड़ पूर्णिमा के दिन होती है। यह भी मान्यता है कि कार्तिक मेले के दौरान पुष्कर का पानी हिलने के साथ ही सर्दी जोर पकडऩे लगती है। इस मेले से कुछ दिन पूर्व ही यहां पशु मेला भी जुटता है। इसमें देश के अनेक प्रांतों से पशुपालक अपने पशु बेचने आते हैं। इस प्रकार इस मेले का दोहरा महत्व है। मेले में ग्रामीण परिवेश के रंग उभर कर आते हैं, इसी कारण अनेक विदेशी पर्यटक इसका आनंद लेने आते हैं। पर्यटन विभाग पर्यटकों के लिए विशेष सुविधाएं जुटाता है व पशुपालन विभाग व जिला प्रशासन प्रदर्शनी आयोजित करते हैं। पुष्कर के पशु मले की भांति अन्य पशु मेले जिले के लामाना, तिलोनिया व रूपनगढ़ में भी आयोजित किए जाते हैं।
सुधाबाय का मेला:- पुष्कर के ही निकट सुधाबाय में हर मंगला चौथ अर्थात मंगलवार व चतुर्थी तिथी का संगम होने पर मेला भरता है। यहां श्रद्धालु अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिए अनुष्ठान करते हैं। अनेक वे लोग, जो आर्थिक अथवा अन्य कारणों से अपने पितरों के पिंड भरने गया नहीं जा पाते, वे यहां यह अनुष्ठान करवाते हैं। बताया जाता है कि भगवान राम ने अपने पिता दशरथ का श्राद्ध इसी कुंड में किया था। मान्यता है कि यहां कुंड में स्नान से प्रेत-बाधा से मुक्ति मिलती है। इस कारण कथित ऊपरी हवा से पीडि़त लोगों को उनके परिजन यहां लाते हैं और कुंड में डुबकी लगवा कर राहत पाते हैं।
तेजाजी का मेला:- जिले में तेजाजी का मेला धूमधाम से मनाया जाता है। किशनगढ़ के निकट सुरसुरा गांव में यह मेला बड़े पैमाने पर मनाया जाता है। ग्रामीण अंचल के ही केकड़ी, ब्यावर, टाटगढ़, देवखेड़ा, सुरडिय़ा, भगवानपुरा, जवाजा, सागरवास, बडिय़ा नंगा, लाखोना, बेरनी खेड़ा में भाद्रपद माह में इस मेले की विशेष धूम होती है।
बाबा रामदेवजी का मेला:- बाबा रामदेवजी का मेला जिले के बिठूर, देवखेड़ा, बामन हेड़ा, लोटियाना, शेरों का नला व खेड़ा दांता में सितंबर माह में भरता है।
कल्पवृक्ष का मेला :- अजमेर शहर से करीब पच्चीस किलोमीटर दूर ब्यावर मार्ग पर मांगलियावास गांव में स्थित कल्पवृक्ष के पास हरियाली अमवस्या के दिन विशाल मेला भरता है। यहां कल्पवृक्ष नर, नारी व राजकुमार के रूप में मौजूद है। पौराणिक मान्यता है कि कल्पवृक्ष के नीचे खड़े हो कर मन्नत मांगने पर वह पूरी होती है।
बालाजी का मेला :- अजमेर जिले के किशनगढ़ में मदनगंज क्षेत्र में सितंबर माह में बालाजी का मेला धूमधाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर अनेकानेक खेलकूद व सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं।
अन्य मेले :- इसी प्रकार अन्य कई मेले भी भरते हैं, जिनमें  बिड़क्यिावास, नांद, टाटगढ़, सोलियाना आदि स्थानों पर भरने वाला माताजी का मेला, दांतड़ा गांव में अक्टूबर माह में भरने वाला भैरूंजी का मेला, गांव भगवानपुरा में पाबूजी का मेला, होली पर सूरजपुरा में गैर मेला, देलवाड़ा, सराधना, रावतमाल व गोला में महादेवजी का मेला आदि प्रमुख हैं। भाद्रपद की अमावस्या के बाद आने वाल अष्ठमी पर पुष्कर स्थित सावित्री मंदिर पर मेला भरता है।
अजयपाल में प्रतिवर्ष भाद्रपद माह में दूसरे पखवाड़े के छठे दिन यहां बाबा का मेला लगता है, जिसमें दूर-दूर से कनफटे जोगी आते हैं। सावन-भादौ में लीलासेवड़ी, चामुंडा और कोटेश्वर के मेले भरते हैं। अजमेर में शीतला सप्तमी पर सुभाष उद्यान के पास शीतला माता का मेला और बजरंगगढ पर हनुमान जयंती पर मेला भरता है। अजमेर के नया बाजार में लाल्या-काल्या का मेला भी प्रसिद्ध है। होली के अवसर पर ब्यावर की तर्ज पर कुछ वर्षों से अजमेर में भी नगर निगम बादशाह का मेला आयोजित किया जाता है। इसकी शुरुआत तत्कालीन नगर परिषद सभापति स्वर्गीय वीर कुमार ने की। सावन माह के दौरान बापूगढ़ स्थित बालाजी के मंदिर पर मेला भरता है।
गुजरात से आई गरबा संस्कृति:- यूं तो अनेक साल से यहां बसा गुजराती समाज नवरात्री के दौरान गरबा-डांडिया आयोजित करता रहा है, लेकिन पिछले कुछ सालों से यह बड़े पैमाने पर मनाया जाने लगा है। शहर के अनेक स्थानों पर गरबा होते हैं। नगर निगम भी कुछ साल से दशहरा महोत्सव के तहत गरबा आयोजित करने लगा है। इसमें गुजरात के कलाकार बुलवाए जाते हैं।
खैर, फिर मुलाकात होगी।

आपका खैरख्वाह
तारागढ़

-प्रस्तोता
तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

बुधवार, 13 मई 2020

कढ़ी-कचौड़ी को तरस गया मेरा अजमेर

मैं तारागढ़ हूं। भारत का पहला पहाड़ी दुर्ग। समुद्र तल से 1855 फीट ऊंचाई। अस्सी एकड़ जमीन पर विस्तार। वजूद 1033 ईस्वी से। राजा अजयराज चौहान द्वितीय की देन। पहले अजयमेरू दुर्ग नाम था। सन् 1505 में चितौड़ के राणा जयमल के बेटे पृथ्वीराज ने कब्जा किया और पत्नी तारा के नाम पर मेरा नामकरण कर दिया। सन् 1033 से 1818 तक अनगिनत युद्धों और शासकों के उत्थान-पतन का गवाह हूं। 1832 से 1920 के बीच अंग्रेजों के काम आया। अब दरगाह मीरां साहब, टूटी-फूटी बुर्जों, क्षत-विक्षत झालरे के अतिरिक्त कुछ नहीं। एक बस्ती जरूर मेरे आंचल में सांस लेती है। देश की आजादी के बाद हुए हर बदलाव का साक्षी हूं। अफसोस, आज कोराना महामारी का बदकिस्मत गवाह हूं।

कढ़ी-कचौड़ी को तरस गया मेरा अजमेर
मैं इस हालात का भी गवाह हूं कि लॉक डाउन व कफ्र्यू की गिरफ्त में आए मेरे अजमेर को बेशक दो वक्त की रोटी तो नसीब हो रही है, मगर इसकी जिंदगी की एक खास चीज जबरन छिन गई है। उसका दर्द इनकी पेशानी पर साफ झलकता है। वो है कढ़ी-कचौड़ी। इसके बिना तो सुबह का आगाज ही नहीं होता था। उसकी सौंधी खुशबू महसूस करने को नथुने तरस गए हैं। चटकारे लेती जीभ से आती सी-सी-सी की आवाज खो गई है। हकीकत ये है कि अगर कोई अजमेर आए और कढ़ी-कचौड़ी का स्वाद न चखे तो समझो उसका अजमेर आना ही अधूरा रह गया।
ऐसा नहीं है कि कढ़ी-कचौड़ी हमसे ताजिंदगी छूटने जा रही है, आखिर दुकानें खुलेंगी ही, लिहाजा बात प्रजेंट टैंस में करेंगे, मानो उसके ठीये आज भी आबाद हैं।
असल में अजमेर की कढ़ी-कचौड़ी का स्वाद बेहद लाजवाब है। वैसा लजीज जायका दुनिया में कहीं नहीं मिलता। यूं तो शहर के हर गली-मोहल्ले में कढ़ी-कचौड़ी व समोसे की दुकानें खुल गई हैं, मगर आज भी कुछ ऐसे खास ठिकाने ऐसे हैं, जहां सुबह होते ही भीड़ जुटना शुरू हो जाती है। किसी जमाने में पुरानी मंडी के नुक्कड़ पर केबिन में चलने वाली शंकर चाट भंडार पर सुबह तो क्या, दिनभर औरतों जमघट लगा रहता था। बताते हैं कि एक बार उसकी अपार सेल पर इन्कम टैक्स वालों की नजर पड़ गई। उन्हें दिनभर में इक_ा होने वाले दोनों से इन्कम का हिसाब लगाना पड़ा। अगर मेरी याददाश्त कमजोर नहीं हुई है तो वह केबिन स्टील लेडी के नाम से मशहूर हुई जिला कलेक्टर श्रीमती अदिति मेहता की सल्तनत में अतिक्रमण हटाओ अभियान की चपेट में आई। तब उन्होंने नया बाजार में गोल प्याऊ के पास नई दुकान खोली। वह दुकान पहले से भी ज्यादा चल रही है। इसी प्रकार कचहरी रोड पर आपका पंडित कचौड़ी वाला भी फेमस है, जो पहले बंगाली धर्मशाला के पास हाथ ठेला लगाया करते थे। अगर कुछ ज्यादा ही चटपटी कढ़ी-कचौड़ी खानी हो तो आपको केसरगंज में चक्कर के सामने रामपाल और गुलशन का रुख करना होगा। वहां तो ऐसा महसूस होता है, मानो कढ़ी के साथ कचौड़ी-समोसा-पकौड़ी-सांखिये खाने वालों का मेला सा लगा हो। एक बार तो ये आरोप भी लगा कि वे कढ़ी में तेजाब की लाग देते हैं, इसी कारण सिसकारी तेज उठती है। हालांकि इसका सबूत कभी नहीं मिला। पिछले कुछ सालों से वैशाली नगर में धन्ना की कचोड़ी ने भी खूब नाम कमाया है। पुष्कर रोड पर पंचोली चौराहे की ओर जाने वाली रोड के नुक्कड़ पर साहू की दुकान ने भी खूब नाम कमाया है। यूं सूखी कचौड़ी के मामले में तेलण की कचौड़ी ने लोगों को सबसे ज्यादा लुभाया है। आम कचौड़ी से कुछ  बड़ी इस कचौड़ी में भरा काली मिर्ची से सना दाल का मसाला पसीने छुड़ा देता है। दो-चार साल से हींग वाली कोटा कचौड़ी ने भी कचहरी रोड पर एलआईसी के पास खूब धूम मचाई है। उसी की तर्ज पर मदार गेट चौराहे के आइसक्रीम प्याले वाले के पास नुक्कड़ पर भी स्वाद के मारों का जमघट लगा रहता है। मदार गेट के अंदर घुसने पर पुरानी मंडी की ओर जाने वाली गली का नुक्कड़ भी कम आबाद नहीं रहता। बात अगर नया बाजार की करें तो सबको पता है, वहां के सेठ स्वाद और क्वालिटी के साथ कोई समझौता नहीं करते। बादशाह बिल्डिंग के पास खस्ता कचौड़ी के साथ कढ़ी का स्वाद कुछ और ही लुफ्त देता है। पिछले कुछ सालों से नया बाजार से लेकर चूड़ी बाजार तक शाम ढ़लते ही सजने वाली चौपाटी चाट, समोसे, कोफ्ते, आलू की टिक्किया, छोले-भटूरे, दही बड़े, मिर्ची बड़े से लेकर दक्षिण भारतीय सांभर वड़ा, इटली डोसा आदि चुंबक की तरह खींचते हैं। लोढ़ा धर्मशाला के नीचे वाली दुकान पर बनने वाली प्याज की कचौड़ी के भी क्या कहने?
जीभ का स्वाद चरपरा करने की बात चल रही है तो डिग्गी बाजार व खारी कुई इलाके के दुकानदार भी कम शौकीन नहीं हैं। शाम का नाश्ता छोला-डबल-चटनी से ही हुआ करता है। खारी कुई वाले चेटू के पकौड़े  तो पूरे शहर में मशहूर हुआ करते थे। लगे हाथ पानी-पूरी की बात भी किए लेते हैं, वरना नारी जाति नाराज हो जाएगी। श्री टाकीज, जो कि अब कॉम्पलैक्स बन गया है, उसके आगे लगने वाला ठेला औरतों को बरबस खींच लेता है। अब तो कई जगह पानी पूरी के ठेले सजते हैं। अब तो चार फ्लैवर में पानी मिलने लगा है। बजरंग गढ़ पर लगने वाला ठेला भी शौकीनों की खास पसंद है। सूचना केन्द्र के पास लगने वाले वड़ा पाव व मामोज के ठेले की बात नहीं करेंगे तो बात अधूरी रह जाएगी। वहां खड़े होने वालों को इसलिए इंतजार करना पड़ता है, क्योंकि पैकिंग करवाने वालों का ही नंबर लगा रहता है। कुछ इसी तरह कचहरी रोड पर दाल की पकौड़ी को भूलना गुनाह की श्रेणी में गिना जाएगा।
चलते रस्ते एक बात और जान लो। राजस्व मंडल की त्रैमासिक पत्रिका के संपादक रहे श्री भालचंद व्यास ने एक बार बताया था कि अभी हम जो कचौड़ी खाते हैं, वह असल कचौड़ी के आगे कुछ नहीं। राजा-महाराजाओं के जमाने में जो कचौड़ी बनती थी, उसमें तो न जाने कितने मसाले और सूखे मेवे डलते थे।
भगवान से प्रार्थना है, खुदा से इल्तजा है कि लॉक डाउन जल्द ही खुल जाए। हम तो जी भर के कढ़ी-कचौड़ी खाएं ही और इस नायाब व्यंजन को जिंदा रखने वाले भी फिर से आबाद हो जाएं।
खैर, फिर मुलाकात होगी।

आपका खैरख्वाह
तारागढ़

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

सोमवार, 4 मई 2020

भई वाह, देवालय बंद पड़े हैं और मदिरालय खुल गए

मैं तारागढ़ हूं। भारत का पहला पहाड़ी दुर्ग। समुद्र तल से 1855 फीट ऊंचाई। अस्सी एकड़ जमीन पर विस्तार है। वजूद 1033 ईस्वी से। राजा अजयराज चौहान द्वितीय की देन। पहले अजयमेरू दुर्ग नाम था। सन् 1505 में चितौड़ के राणा जयमल के बेटे पृथ्वीराज ने कब्जा किया और पत्नी तारा के नाम पर मेरा नाम कर दिया। सन् 1033 से 1818 तक अनगिनत युद्धों और शासकों के उत्थान-पतन का गवाह हूं। 1832 से 1920 के बीच अंग्रेजों के काम आया।  अब दरगाह मीरां साहब, टूटी-फूटी बुर्जों, क्षत-विक्षत झालरे के अतिरिक्त  कुछ नहीं। एक बस्ती जरूर मेरे आंचल में सांस लेती है। देश की आजादी के बाद हुए हर बदलाव का साक्षी हूं। अफसोस, आज कोराना महामारी का बदकिस्मत गवाह।

आज मैं उस मंजर का भी गवाह बना, जब शराब की सरकारी दुकानों पर लंबी कतारें लग गईं। लॉक डाउन के दौरान यह दिन शराब के नाम समर्पित हो गया। दिनभर बस शराब और शराबी ही चर्चा में रहे। जैसे शराबी  तकरीबन 40 दिन के इंतजार के बाद दुकानों पर टूट पड़े, ठीक वैसे ही लोग भी शराबियों पर पिल पड़े। सोशल मीडिया पर सार्वजनिक रूप से सुरा प्रेमियों की जितनी लानत-मलामत हुई, अगर कोई गैरतमंद हो तो ताजिंदगी शराब को तिलांजलि दे दे। शराब पीने वालों को इतनी हेय दृष्टि से देखा गया, मानों वे उनकी ही तरह के इंसान न हो कर नाली के कीड़े हों। यकायक कबीर की उलटबांसी याद आ गई। जो लोग निजी जिंदगी में नियमित शराब पीते हैं, वे भी ऐसे-ऐसे उपदेश दे रहे थे, मानों उन्होंने तो शराब की बोतल छूना तो दूर, देखी तक नहीं। इसी दोगलेपन ने कुछ लिखने को मजबूर कर दिया।
मुंडे-मुंडे मतिभिन्ना। जितने मुंह, उतनी बातें। सबसे बड़ा तंज तो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर कसा गया। उनके गांधीवादी होने की दुहाई देते हुए सवाल किया गया आखिर वे शराब के आगे कैसे नतमस्तक हो गए? अब उनको कौन समझाए कि गहलोत कोई कुबेर नहीं कि शराब से होने वाली रेवन्यू की भरपाई अपने निजी खाते से कर सकें। चिल्ल-पौं भी इतनी कि मानो लॉक डाउन से पहले शराब बंदी थी। अरे भाई, आप तब कहां थे, जब एट पीम, नो सीएम का जुमला जवान था। वैसे भी कुछ लोगों की आदत है कि हमला सीधे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री स्तर पर ही करते हैं, भले ही वहां तक आवाज जाए या नहीं, मगर कम से कम नीचे के नेता और अधिकारी तो चमकते रहेंगे।
इस सब जुगाली के बीच एक बात जरूर गौर तलब आई। वो ये कि अगर आपको शराब इतनी ही जरूरी लगी कि सोशल डिस्टेंसिंग की शर्त लगा कर उसकी दुकान तो खुलवा दी, तो भगवान का ख्याल क्यों नहीं आया? मंदिर-मस्जिद भी तो इसी तरह से खुलवाये जा सकते थे। क्या भगवान शराब से भी गया गुजरा है? हम कैसे खुदगर्ज इंसान हैं? इससे एक बात तो तय हो गई कि भगवान की पूजा के बिना तो जी सकते हैं, मगर गला तर किए बिना नहीं। अगर लाइन लगा कर शराब खरीद सकते हैं तो उसी अनुशासन से मंदिर के दर्शन भी कर सकते हैं। मगर सुरे कौन?
इस बीच पेट का एक दर्द भी कुलबुलाया। जो भी शराब खरीदने आए, उसकी तर्जनी अंगुली पर अमिट स्याही लगाई जाए, ताकि सभी मुफ्त राशन व भोजन बांटते समय यह पता लग जाए कि वह मुफ्त राशन का हकदार नहीं है। अब आपको कौन समझाए। वह इतना भी कम अक्ल नहीं कि खुद ही राशन लेने आएगा, बीवी को नहीं भेजेगा? अरे, उसे पहचानो, यह वही है, जो एक वक्त की रोटी के बिना तो जी सकता है, मगर शराब के बिना नहीं। कल तो आप पांच गुना रेट पर गुटखा-सिगरेट खरीदने वालों को भी आइटेंटिफाई करने की सलाह देंगे कि उनका राशन-पानी बंद करो।
तेजवानी गिरधर
असली तकलीफ का तो किसी को ख्याल ही नहीं। सोशल डिस्टेंसिंग की अवमानना तो बहाना था, दुख इस बात का था कि बाल बढऩे से हम जंगली हो गए हैं, ब्यूटी पार्लर बंद होने से असली चेहरा उभर आया है, और भी कई जरूरी चीजें हैं, जिनके बिना जिंदगी झंड हो रही है, और आपको दया आ रही है शराबियों पर।
वैसे एक बात है। शराब वाकई खराब है। पत्रकार व वकील डॉ. मनोज आहुजा ने इसका चित्रण कुछ इस प्रकार किया है:- आप कितने ही अच्छे इंसान हों। उस घटिया इंसान के सामने भी तुम्हारी उतनी इज्जत नहीं करेगी ये सोसायटी, जो सिर्फ शराब नहीं पीता है, बाकी उसमें दुनिया के सारे ऐब हैं।  ये शराब आपको करेक्टर सर्टिफिकेट देती है। आपका करेक्टर चाहे जितना अच्छा हो, मगर अकेली शराब आपका करेक्टर ढ़ीला कर देगी।
तर्क ये भी आया कि शराब व्यवसाइयों व कुछ नौकरशाहों ने मिलीभगत करके गहलोत से गलत निर्णय करवा लिया। जब कि तस्वीर का असल रूप ये है कि शराब बंदी में ज्यादा मजा था। शराब तो बिक रही थी, दो-तीन गुना दामों में। उसका फायदा कौन उठा रहा था?
ऐसा नहीं कि शराबियों की केवल जग हंसाई ही हो रही है। उन पर गर्व करने वाले भी हैं दुनिया में। बानगी देखिए:- सभी मुख्यमंत्रियों ने केन्द्र सरकार से शराब के ठेके खोलने की इजाजत मांगी है, क्योंकि प्रदेशों के पास अपने सरकारी कर्मचारियों को वेतन देने के पैसे नहीं हैं। शराबियों के लिए यह गर्व की बात है कि प्रदेश के सरकारी कर्मचारियों के वेतन का भुगतान उनके द्वारा शराब पर खर्च किए गए पैसों से होता है। लेकिन शराबियों ने कभी घमंड नहीं किया, गालियां ही सुनीं। असल में हम जिनको बेवड़े समझते थे, वे ही तो देश की अर्थव्यवस्था के चौथे स्तंभ हैं।

आखिर में मनोरंजन के लिए एक वीडियो क्लिप, जिसमें पाएंगे कि लॉक डाउन के बाद शराब पीते ही कई वित्त मंत्री स्तर के लोग, जिनका टैलेंट छुपा पड़ा था, बाहर आने लगा है
https://youtu.be/4N2de9l926g

-तेजवानी गिरधर
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रविवार, 3 मई 2020

हे कोराना, तेरा सत्यानाश हो, तूने मेहनतकश को बना दिया भिखारी?

मैं तारागढ़ हूं। भारत का पहला पहाड़ी दुर्ग। समुद्र तल से 1855 फीट ऊंचाई पर। अस्सी एकड़ जमीन पर पसरा हुआ। वजूद 1033 ईस्वी से। राजा अजयराज चौहान द्वितीय की देन। पहले अजयमेरू दुर्ग नाम था। सन् 1505 में चितौड़ के राणा जयमल के बेटे पृथ्वीराज ने कब्जा कर पत्नी तारा के नाम पर नाम कर दिया। सन् 1033 से 1818 तक अनगिनत युद्धों और शासकों के उत्थान-पतन का गवाह हूं। 1832 से 1920 के बीच अंग्रेजों के काम आया। देश की आजादी के बाद हुए हर बदलाव का साक्षी हूं। अब दरगाह मीरां साहब, टूटी-फूटी बुर्जों, क्षत-विक्षत झालरे के अतिरिक्त कुछ नहीं। एक बस्ती जरूर मेरे आंचल में सांस लेती है। अफसोस, आज कोराना महामारी का बदकिस्मत गवाह हूं।
मुझे बेहद मलाल है। मेहनत-मजदूरी करके अपने इकबाल ओ ईमान ओ मर्दानगी को जिंदा रखने वाले हजारों अजमेरी लाल आज लॉक डाउन में दानदाताओं की दया और सरकारी अनुदान की रोटी खाने को मजबूर हैं। उसके लिए भी कई बार जद्दोजहद करनी पड़ती है। इसे भीख कहना कत्तई ठीक नहीं। वह उनके स्वाभिमान से खिलवाड़ माना जाएगा। मगर वह है तो किसी और की ही कमाई का निवाला ना। है तो बिना मजदूरी का फोकट राशन।
पेट की खातिर फेरी लगाते मेहनतकश कबाड़ी वाले, सड़क पर चादर फैला सब्जियां बेच कर घर चलाती जुझारू महिलाएं, तपती धूप, कड़कड़ाती सर्दी व बारिश में इधर से उधर भटकते ठेले वाले, रोज कुआं खोद कर पानी पीने वाले दिहाड़ी मजदूर, सड़क किनारे हेलमेट ओ मोबाइल स्क्रीन गार्ड के साथ दिनभर धूनी रमाने वाले, चंद रुपयों की खातिर डोर टू डोर सप्लाई करने वाले युवक, विकासशील कॉलोनियों के इर्द-गिर्द टाटपट्टी की झोंपडिय़ों में रहने वाले श्रमिक, घर-घर काम करने को मजबूर बाइयां, इन सबके दिल पर क्या गुजर रही होगी? वे तो अब भी मेहनत करने को तैयार हैं, मगर लॉक डाउन ने उनको निठल्ला कर दिया है।
उधर गरीब नवाज ओ तीर्थराज पुष्कर की अनुकंपा पर पलने वाले खानाबदोशों को नीला आसमान छिनने का मलाल है। शेल्टर्स होम में दो वक्त की रोटी तो है, मगर मानसिक सुकून पाने को तरस गए हैं। शायद इसीलिए बार-बार भाग जाते हैं।
हाल तो छोटे-छोटे दुकानदारों का भी बहुत बुरा है। शायद सबसे ज्यादा बुरा। न तो शर्म ओ लिहाज छोड़ कर दान का राशन व फूड पैकेट ले सकते हैं और न ही डेढ़ व दो गुना महंगी चीजें लेने के लिए पैसे बचे हैं। आखिर कब तक उधार से काम चलाएंगे? आंखों के आगे अंधेरा छा गया है। रोएंगे तो कर्जदार भी। कब शुरू होगी कमाई और कब उतारेंगे कर्जा। ब्याजखोर भी टेंशन में है, कि ब्याज डूब न जाए।
इन्हीं हालातों के बीच एक कविनुमा अज्ञात लेखक ने सोशल मीडिया पर अपना दर्द कुछ इस प्रकार बयां किया है, जिसे थोड़ा सा परिमार्जित कर आपकी नजर पेश है:-

न जाने किसकी बुरी नजर का शिकार हो गया हूं।
दरगाह बाजार में दिन-रात की रेलमपेल को कौन शैतान निगल गया।
हर पल किलोल करने वाला मेरा आनासागर आज शांत बैठा है।
अपने छाती पर बैठा ठंडी हवाओं का लुत्फ देने वाली बारादरी वीरान है।
प्यारी चौपाटियां कदमताल सुनने को बेचैन हैं।
मेरे सेठों का नया बाजार न जाने कब महकेगा।
मेरी बहनों की पुरानी मंडी न जाने कब चहकेगी।
गोल प्याऊ पर न जाने कब होगा चटोरों का शोरगुल।
कब दिखेगा केसरगंज में रामपाल ओ गुलशन पर दोने चाटता हुजूम।
रेस्त्रां कब होंगे पिज्जा ओ चाउमीन से आबाद।
कब सजेगा सूचना केन्द्र पर मोमोज ओ वड़ा पाव वाला ठेला।
मदार गेट के प्याले का स्वाद तो भुलाए नहीं भूलता।
कोटा कचोड़ी की सुगंध ख्याल में आते ही नाक में खलबली मचती है।
भिक्कीलाल के शरबत ओ आचार की याद मुंह में पानी भर देती है।
ओह...
चुपचाप है मेरा मदार गेट।
टेंशन न ले, कह रहा आगरा गेट।
बीमार है मेरा दिल्ली गेट।
दु:खी न हो, कह रहा अलवर गेट।
हो चाहे जितनी भी मुसीबत।
डट कर मुकाबला करुंगा।
न झुकूंगा, न रुकूंगा।
जलाऊंगा आशा का चिराग।
यह अजमेर नहीं मिटने दूंगा।

आखिर में हल्का सा विनोद। रोज गुड मॉर्निंग का आगाज करने वाली कढ़ी-कचोड़ी का छिन जाना बहुत सालता है। गला तर करने को अवैध हथकड़ भी अमृत बन जाना वर्षों तक बेवड़ों के जेहन में रहेगा। दिनभर जुगाली करने वालों को चार-पांच गुना महंगे गुटखे खरीदना भी सालों याद रहेगा। गोल्ड फ्लेक का आनंद बीड़ी में आना कोरोना का ही तो कमाल है।
खैर, फिर मुलाकात होगी।

आपका खैरख्वाह
तारागढ़

-तेजवानी गिरधर
7742067000
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शरीर के सर्वांग विकास के लिए षट् रस जरूरी

भारतीय भोजन की विशेषता यह है कि इसमें विभिन्न रसों का समावेश होता है, जिन्हें मिलाकर संपूर्ण भोजन तैयार किया जाता है। भारतीय खाने में शट् रस...