हाल ही जस्टिस इंद्रसेन इसरानी का देहावसान हो गया। कम लोगों का ही पता होगा कि यद्यपि उनका अजमेर से कोई गहरा नाता नहीं रहा, फिर भी 2013 के विधानसभा चुनाव में अजमेर उत्तर सीट के लिए कांग्रेस टिकट के दावेदार रहे थे।
असल में वे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बेहद करीबी थे, इस कारण सिंधियों के लिए अघोषित रूप से आरक्षित अजमेर उत्तर सीट के लिए उनका नाम उभरा था। ऐसा इस कारण हुआ क्योंकि पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष नरेन शहाणी भगत का टिकट कटा हुआ माना जा रहा है, इस कारण अनेक सिंधी दावेदारों के बीच उनके नाम में तनिक गंभीरता नजर आती थी। हालांकि उन्होंने अपनी ओर से दावेदारी की इच्छा जताई या नहीं, पता नहीं, मगर उनका नाम आने से अन्य सिंधी दावेदारों को सांप सूंघ गया था। उन्हें ये पता नहीं था कि वे इससे पहले एक बार अजमेर से चुनाव लडऩे का मानस बना चुके थे, मगर अपनी छोटी सी भूल की वजह से उन्हें दावेदारी करने से पहले ही मैदान छोड़ कर भागना पड़ा था।
आपको बता दें कि तत्कालीन राजस्व मंत्री स्वर्गीय श्री किशन मोटवानी के निधन के कारण हो रहे 202 के उपचुनाव में मैदान खाली देख कर उनका मन इस सीट के लिए ललचाया था। इसके लिए उन्होंने अपने करीबी दैनिक हिंदू के संपादक हरीश वरियानी के माध्यम से अजमेर की कुछ सिंधी कॉलोनियों में बैठकें कर जमीन तलाशी थी। उनका स्वागत भी हुआ। यहां तक कि उन्होंने तब स्वर्गीय श्री नानकराम जगतराय से भी मुलाकात की थी। चूंकि तब तक नानकराम को यह कल्पना भी नहीं थी कि उन्हें टिकट मिलेगा, इस कारण उन्होंने अपना समर्थन देने का आश्वासन भी दिया था। ज्ञातव्य है कि उस उपचुनाव में नानकराम को टिकट मिला और वे जीते भी।
बहरहाल, जानकारी के अनुसार अपने अजमेर प्रवास के दौरान उन्होंने एक प्रेस कॉफ्रेंस भी की। उसमें असावधानी के चलते उनके मुंह से कुछ ऐसा बयान निकल गया, जिसका अर्थ ये निकलता था कि सिंधी तो भाजपा के गुलाम हैं, उस पर बवाल हो गया। भाजपा से जुड़े सिंधी संगठनों ने उनके इस बयान पर कड़ी प्रतिक्रिया दी। इस पर माहौल बिगड़ता देख कर उन्होंने दावेदारी का मानस ही त्याग दिया। उस दिन के बाद कम से कम इस सिलसिले में तो वे अजमेर नहीं आए। उसके बाद 2013 के चुनाव में एक बार फिर मैदान खाली होने की वजह से उनका नाम फिर उछला। लेकिन साथ ही यह रोचक तथ्य रहा कि इसरानी का नाम चर्चा में आते ही उनका विरोध भी शुरू हो गया। अजमेर में ब्लॉक व शहर स्तर पर तैयार पैनलों में उनका नाम नहीं था, फिर भी जयपुर व दिल्ली में उनके नाम की चर्चा थी। असल में राजस्थान में वरिष्ठतम सिंधी नेता माने जाते थे। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सिंधी समाज के बारे में कोई भी निर्णय करने से पहले उनसे चर्चा जरूर करते थे। इसी कारण जैसे ही उनका नाम सामने आया, उसे गंभीरता से लिया गया। प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव व अजमेर प्रभारी सलीम भाटी की ओर से की गई रायशुमारी के दौरान तो बाकायदा उनका नाम लेकर कांग्रेस नेता राजेन्द्र नरचल ने विरोध दर्ज करवा दिया और कहा कि जब अजमेर में पर्याप्त नेता हैं तो फिर क्यों बाहरी पर गौर किया जा रहा है। वे यहीं तक नहीं रुके। आगे बोले कि वे इसरानी का पुरजोर विरोध करेंगे, चाहे उन्हें कांग्रेस से निकाल दिया जाए। उन्होंने ये तान किसके कहने पर छेड़ी, इसका पता नहीं लग पाया।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
असल में वे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बेहद करीबी थे, इस कारण सिंधियों के लिए अघोषित रूप से आरक्षित अजमेर उत्तर सीट के लिए उनका नाम उभरा था। ऐसा इस कारण हुआ क्योंकि पूर्व नगर सुधार न्यास अध्यक्ष नरेन शहाणी भगत का टिकट कटा हुआ माना जा रहा है, इस कारण अनेक सिंधी दावेदारों के बीच उनके नाम में तनिक गंभीरता नजर आती थी। हालांकि उन्होंने अपनी ओर से दावेदारी की इच्छा जताई या नहीं, पता नहीं, मगर उनका नाम आने से अन्य सिंधी दावेदारों को सांप सूंघ गया था। उन्हें ये पता नहीं था कि वे इससे पहले एक बार अजमेर से चुनाव लडऩे का मानस बना चुके थे, मगर अपनी छोटी सी भूल की वजह से उन्हें दावेदारी करने से पहले ही मैदान छोड़ कर भागना पड़ा था।
आपको बता दें कि तत्कालीन राजस्व मंत्री स्वर्गीय श्री किशन मोटवानी के निधन के कारण हो रहे 202 के उपचुनाव में मैदान खाली देख कर उनका मन इस सीट के लिए ललचाया था। इसके लिए उन्होंने अपने करीबी दैनिक हिंदू के संपादक हरीश वरियानी के माध्यम से अजमेर की कुछ सिंधी कॉलोनियों में बैठकें कर जमीन तलाशी थी। उनका स्वागत भी हुआ। यहां तक कि उन्होंने तब स्वर्गीय श्री नानकराम जगतराय से भी मुलाकात की थी। चूंकि तब तक नानकराम को यह कल्पना भी नहीं थी कि उन्हें टिकट मिलेगा, इस कारण उन्होंने अपना समर्थन देने का आश्वासन भी दिया था। ज्ञातव्य है कि उस उपचुनाव में नानकराम को टिकट मिला और वे जीते भी।
जस्टिस इसरानी |
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