मंगलवार, 31 मार्च 2020

समझ से परे अजीबोगरीब स्थितियां

हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में ऐसी कई स्थितियां निर्मित होती हैं, जो पूरी तरह से असंगत या अतार्किक कही जा सकती हैं। जरूर उसके पीछे कोई तो तर्क होता ही होगा, मगर समझ में नही आता कि ऐसा होता क्यों है? आइये, इन पर नजर डालते हैं:-
1. आपने देखा होागा कि जब भी हमें किसी जगह नियम समय पर पहुंचना होता है और हम घर से निकलते समय थोड़ा लेट हो जाते हैं तो गंतव्य स्थान पर पहुंचने में अनपेक्षित बाधाएं आती हैं। जितना झल्लाते हैं व जल्दी करते हैं, उतना ही लेट हो जाते हैं, कोई वाहन आगे आ जाएगा, कोई गाय, सुअर, कुत्ता आड़े आ जाएगा। इसके विपरीत जब हम समय पर निकलते हैं या समय से पहले निकलते हैं तो रास्ते में कोई बाधा नहीं आती। रास्ता बिलकुल साफ मिलता है।
2. कई बार ऐसा देखा होगा कि जैसे ही हम लंबी श्वास लेते हैं, ठीक उसी वक्त कोई मच्छर या मक्खी श्वास के साथ नाक में घुस जाती है।
3. अमूमन जब हम कोई ऐसा काम कर रहे होते हैं, जिससे हमारे हाथ गीले या सने हुए होते हैं, तो उसी वक्त नाक या चेहरे के किसी भाग कर खुजली होने लगती है।
4. ये समझ से बाहर है कि फोन नंबर सही मिलाने पर कदाचित एंगेज मिलता है, लेकिन रॉंग नंबर डायल हो जाता है तो वह कभी एंगेज नहीं मिलता, तुरंत मिल जाता है।
5. टेलीफोन, बिजली या पानी का बिल जमा करवाते वक्त जैसे ही हम पास वाली लाइन छोटी देख कर उसमें शामिल होते हैं, वह तो धीरे हो जाती है और पहली वाली लाइन जल्दी-जल्दी आगे बढऩे लगती है। हम पछताते हैं कि क्यों अपनी लाइन छोड़ कर दूसरी लाइन में जुड़े।
6. नहाते वक्त साबुन फिसल कर गिरता है तो वह आसपास गिरने की बजाय हमारी पकड़ से काफी दूर तक चला जाता है और हमें उसे पकडऩे के लिए उठना ही पड़ता है।
7. वाट्स ऐप पर गलती से कोई पोस्ट हो जाए तो उस वक्त नेट तेजी से चलता है और जब तक हम उसे डिलीट करें वह पोस्ट हो ही जाता है, जबकि जरूरी पोस्ट डालने पर नेट धीरे हो जाता है। डमरू घूमता ही रहता है।
8. मक्खन-बेड खाते वक्त यदि गलती से वह गिर जाए तो वही हिस्सा जमीन की ओर होता है, जिस तरफ मक्खन लगा होता है।
9. ध्यान करते वक्त जिस भी दृश्य को हम हटाना या भूलना चाहते हैं, वही बार-बार आता है। इससे जुड़ी एक कहानी भी है कि गुरु ने चेले से कहा कि ध्यान करते वक्त बंदर का ख्याल में मत लाना और होता ये है कि बार-बार बंदर ही ख्याल में आता है।
10. रास्ते में जिस किसी पत्थर या गड्ढे से बचना चाहते हैं तो उसी से भिड़ जाते हैं।
11. ईमानदार आदमी बेईमानों को खुश देख कर गलती से कभी लालच में आ कर थोड़ी सी भी बेईमानी करने लगता है तो तुरंत पकड़ा जाता है।
12. अशुभ काम करने में कोई बाधा नहीं आती, जबकि शुभ काम में अमूमन बाधा आती ही है। तभी तो शुभ काम के आरंभ में विघ्नहर्ता गणेशजी की पूजा की जाती है। शादी के कार्ड पर भी ऊपर ही ऊपर गणेशजी या स्वस्तिक का चित्र लगाते हैं।

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

रविवार, 29 मार्च 2020

श्रीकृष्ण ने ऐसे किए 16 हजार 108 विवाह

आम जनमानस में यह अंकित है कि भगवान श्रीकृष्ण के 16 हजार 108 रानियां थीं, मगर कई लोगों को इसका पता नहीं कि उन्होंने इतनी शादियां कैसे कीं?
जानकारी के अनुसार भौमासुर के कारागार में सोलह हजार एक सौ राजकुमारियां कैद थीं। भगवान श्रीकृष्ण ने भौमासुर का वध करके उसकी कैद से राजकुमारियों को छुड़ाया। उन सुंदर युवतियों की इच्छा अनुसार वे उन्हें अपने साथ ले आये। एक ही मुहूर्त में विभिन्न भवनों में ठहराई गईं उन युवतियों के साथ अपनी माया से उतने ही रूप धारण करके भगवान श्रीकृष्ण ने उन सबका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया।
अन्य रानियों का विवरण ये बताया जाता है:-
सत्राजित नाम से प्रसिद्ध यादव को साक्षात भगवान सूर्य ने स्यमन्तक मणि दे रखी थी। एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने राजा उग्रसेन के लिए वह मणि मांगी। एक दिन सत्राजित का भाई प्रसेन उस मणि को अपने गले में बांध कर सिन्धुदेषीय अश्व पर आरुढ़ होकर शिकार खेलने के लिए वन में विचरने लगा। वहां एक सिंह ने प्रसेन को मार डाला। उस सिंह को जाम्बवंत ने मारा और उस मणि को लेकर अपनी गुफा में चला गया। इस पर सत्राजित ने दुष्प्रचार किया कि श्रीकृष्ण ने उसके भाई प्रसेन का वध कर मणि छीन ली। इस कलंक से मुक्ति के लिए श्रीकृष्ण वन में गए। वहां उन्होंने घोड़े सहित मरे हुए प्रसेन और सिंह के शव को पड़ा देखा। पद चिन्ह से पता लगाते हुए वे जाम्बवंत की गुफा में गए। वहां उन्होंने देखा कि उसकी पुत्री उस मणि से खेल रही है। उन्होंने उससे मणि देने को कहा तो उसने अपने पिता को पुकारा। जाम्बवंत दौड़े दौड़े आए। श्रीकृष्ण ने मणि ले जाने की जिद की तो जाम्बवंत ने उन्हें युद्ध के लिए ललकारा। दोनों के बीच 28 दिन तक युद्ध हुआ। जाम्बवंत हार गया। उसने कहा कि उसे हराने की शक्ति भगवान राम के अतिरिक्त किसी में नहीं है और पूछा कि आप कौन हो? भगवान श्रीकृष्ण ने अपना परिचय दिया। साथ ही भगवान राम के रूप के दर्शन कराए। इस पर जाम्बवंत नतमस्तक हो गया। उसने कहा कि भगवान राम ने त्रेता युग में उससे द्वापर युग में मिलने का वचन दिया था। वह मुक्ति के लिए उनका ही इंतजार कर रहा था। ऐसा कह कर उसने अपनी पुत्री जाम्बवंती का हाथ श्रीकृष्ण में हाथ में दे दिया। भगवान मणि के साथ उसे लेकर द्वारिका पहुंचे। उधर सत्राजित को अपने कृत्य पर बड़ी आत्म ग्लानि हुई और यादव परिवार में शांति रखने के लिए अपनी पुत्री सत्यभामा तथा उस मणि को भी भगवान के चरणों में अर्पित कर दिया।
इसी प्रकार एक बार भगवान श्रीकृष्ण पांडवों की सहायता के लिए इन्द्रप्रस्थ गये। वे अर्जुन के साथ यमुना के किनाने आखेट करने गए। वहां कालिन्दी देवी भगवान श्रीकृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने की इच्छा से तपस्या कर रही थीं। भगवान उन्हें साथ लेकर इन्द्रप्रस्थ आये और वहां से द्वारका में पहुंच कर कालिन्दी के साथ विवाह किया।
अन्य प्रकरण के अनुसर अवन्ती के नरेश की मित्रविंदा नाम एक सुंदर पुत्री थी। भगवान श्रीकृष्ण रुक्मणी की ही भांति मित्रविन्दा को भी स्वयंवर से हर कर लाये। इसी प्रकार राजा नग्नजित के सत्य नामक पुत्री थी। राजा ने यह प्रतिज्ञा की थी कि सात सांडों को जो एक साथ नाथ देगा, उसी वीर के साथ पुत्री का विवाह करूंगा। भगवान श्रीकृष्ण ने सातों सांडों को नाथ कर सत्य के साथ विवाह किया। केकयराज कुमारी भद्रा को भगवान उसकी इच्छा के अनुसार अपने घर ले आये। राजा बश्हत्सेन के लक्ष्मणा नामक पुत्री थी। राजा ने स्वयंवर में मत्स्य वेध की शर्त रखी गयी थी। भगवान ने मत्स्य का भेदन कर लक्ष्मणा का हाथ थामा।
इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की सोलह हजार एक सौ आठ रानियां थीं। प्रत्येक ने श्रीकृष्ण के दस-दस पुत्र उत्पन्न किये।

-तेजवानी गिरधर
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इसलिए कई लोग नहीं जलाते अगरबत्ती

हमारे यहां धर्म स्थलों व घर के मंदिरों में अगरबत्ती जलाने का चलन है। यह आम है। मगर कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि ऐसा करना अनुचित है। वे शास्त्रों के हवाले से सवाल खड़ा करते हैं कि जिस बांस की लकड़ी को चिता में भी जलाना वर्जित है, हम उस बांस से बनी अगरबत्ती को मंदिर में कैसे जला सकते हैं। वे कहते हैं कि शव को भले ही बांस व उसकी खपच्चियों से बनी सीढ़ी पर रख कर श्मशान पहुंचाते हैं, उसे जलाते वक्त उसे अलग कर देते हैं, क्यों कि बांस जलाने से पित्र दोष लगता है। उनका तर्क है कि शास्त्रों में पूजन विधान में कहीं पर भी अगरबत्ती का उल्लेख नहीं मिलता। सब जगह धूप करने का ही जिक्र है। ज्ञातव्य है कि जिस प्रकार हिंदू अगर का धूप करते हैं, वैसे ही मुस्लिम लोबान का धूप जलाते हैं। इससे वातावरण शुद्ध होता है और सकारत्मकता आती है।
इस बारे में वैज्ञानिक तर्क ये है कि बांस में सीसा प्रचुर मात्रा में होता है और उसके जलने पर लेड आक्साइड बनता है, जो कि खतरनाक है। इसके अतिरिक्त अगरबत्ती में सुंगध के साथ फेथलेट केमिकल का इस्तेमाल किया जाता है, वह गंध के साथ सांस में प्रविष्ट होता है, जिससे फेफड़ों को नुकसान होता है। सीसे से केंसर व बे्रन स्टॉक का खतरा होता है। लीवर भी इससे प्रभावित होता है। इसी कारण अनेक लोग अगरबत्ती की जगह धूप व विभिन्न प्रकार की धूप बत्तियां काम में लेते हैं।

-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, 26 मार्च 2020

जिसे दुबारा शादी करनी है, वह पत्नी की अंत्येष्टि में भाग नहीं लेता

आम तौर पर जिस भी युवा व्यक्ति की पत्नी की मृत्यु हो जाती है, तो वह दुबारा शादी करने का विचार रखता है। यदि बच्चे न हों तो करता भी है। यदि उसका विचार न भी हो तो भी रिश्तेदार उस पर दबाव बनाते हैं कि वह दुबारा विवाह कर ले। क्या आपको जानकारी है कि पत्नी के निधन पर फिर विवाह करने का इच्छुक पति, पत्नी की अंत्येष्टि में भाग नहीं लेता। समझा जा सकता है कि ऐसा करके वह अपने संबंधियों व परिचितों को यह संदेश देता है कि वह पुन: विवाह करना चाहता है, लिहाजा उसके लिए किसी युवती की तलाश की जाए। हालांकि पत्नी की अंत्येष्टि में भाग न लेना पति के लिए कितना कष्टप्रद है, यह वह ही समझ सकता है, मगर बुजुर्ग उसे सलाह देते हैं कि वह अंतिम संस्कार में न जाए, ताकि फिर शादी का रास्ता खुला रहे, फिर भले ही बाद में वह न करे।
इस सिलसिले मैने ज्योतिष में रुचि रखने कुछ लोगों से चर्चा की तो उन्होंने कुछ अलग ही मत प्रकट किया। उनका कहना था कि यदि किसी व्यक्ति की किस्मत में एक ही शादी लिखी हो तो अंत्येष्टि में भाग लेने पर उसकी पूर्णाहुति हो जाती है। उसके बाद यदि वह चाहे तो भी उसकी दूसरी शादी नहीं हो सकती। बशर्ते उसकी कुंडली में दूसरी शादी न लिखी हो। अगर अंत्येष्टि में भाग नहीं लेता तो वर्तुल अधूरा ही रह जाता है, वैक्यूम रह जाता है और वह दूसरी शादी कर सकता है। उसमें बाधा नहीं आती। हालांकि यह बात गले नहीं उतरी, मगर एक पहलु था, इस कारण आपसे शेयर  किया। एक अन्य जानकार ने अलग ही मिथ बताया। वो यह कि जब पति अंत्येष्टि के दौरान उपस्थित नहीं होता तो देह संस्कार के दौरान पत्नी की आत्मा को पति के न दिखाई देने पर उससे संबंध विच्छेद हो जाता है। ऐसे में जब वह दूसरी शादी करता है तो पूर्व पत्नी की आत्मा उसे परेशान नहीं करती।

-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, 24 मार्च 2020

जब घी बन गया पुष्कर सरोवर का पानी

बताते हैं कि जब मुद्रा चलन में नहीं आई थी, तब वस्तु विनिमय किया जाता था। लोग एक दूसरे की जरूरत की वस्तुओं का आदान-प्रदान किया करते थे। प्रकृति भी इसी व्यवस्था पर काम करती है। वस्तु के बदले वस्तु मिलती है। कहते हैं न कि जो बोओगे, वही काटोगे। यानि कि प्रकृति में इस हाथ दे, उस हाथ ले वाला सिद्धांत काम करता है। दान की महिमा का आधार भी यही है। यज्ञों में समिधा की आहुति से वातावरण में तो सकात्मकता आती ही है, साथ ही अग्नि को समर्पित वस्तु से कई गुना प्राप्ति का भी उल्लेख है शास्त्रों में।
प्रकृति के इस गूढ़ रहस्य का प्रमाण एक बार अजमेर में भी प्रकट हो चुका है। नई पीढ़ी को तो नहीं, मगर मौजूदा चालीस से अस्सी वर्ष की पीढ़ी के अनेक लोगों को जानकारी है कि पुष्कर में एक बंगाली बाबा हुआ करते थे। कहा जाता है कि वे पश्चिम बंगाल में प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे और संन्यास धारण करके तीर्थराज पुष्कर आ गए। वे कई बार अजमेर में मदार गेट पर आया करते थे और बोरे भर कर आम व अन्य फल गायों को खिलाया करते थे। वे कहते थे कि फलों पर केवल हमारा ही अधिकार नहीं है, गाय भी उसकी हकदार है।
बताया जाता है कि बंगाली बाबा के शिष्यों ने कोई पैंतालीस-पचास साल पहले पुष्कर में एक भंडारा आयोजित किया था। रात में देशी घी खत्म हो गया। यह जानकारी शिष्यों ने बाबा को दी और कहा कि रात में नया बाजार से दुकान खुलवा कर देशी घी लाना कठिन है। तब पुष्कर घाटी व पुष्कर रोड सुनसान व भयावह हुआ करते थे। बाबा ने कहा कि पुष्कर सरोवर से चार पीपे पानी के भर लाओ और कढ़ाह में डाल दो। शिष्यों ने ऐसा ही किया तो देखा कि वह पानी देशी घी में तब्दील हो गया। सब ने मजे से भंडारा खाया। दूसरे दिन बाबा के आदेश पर शिष्यों ने चार पीपे देशी घी के खरीद कर पुष्कर सरोवर में डाले। इसके मायने ये कि बाबा ने जो चार पीपे पानी के घी के रूप में उधार लिए थे, वे वापस घी के ही रूप में अर्पित करवा दिए। पानी कैसे घी बन गया, इसे तर्क से तो सिद्ध नहीं किया जा सकता, मगर प्रकृति का सारा व्यवहार लेन-देन का है, यह तो समझ में आता है। इसी किस्म का किस्सा कबीर का भी है, जब उन्होंने अपने बेटे कमाल के हाथों पड़ौस की झोंपड़ी से गेहूं की चोरी करवाई थी। उसकी चर्चा फिर कभी।

-तेजवानी गिरधर
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सोमवार, 23 मार्च 2020

हम क्यों रहना चाहते हैं अमर?

कोई भी मरना नहीं चाहता। हर व्यक्ति अमर रहना चाहता है। और दिलचस्प बात ये है कि हर आदमी ये भी जानता है कि अमर होना संभव नहीं है। जो आया है, उसे जाना ही होगा। मृत्यु अवश्यंभावी है। उसे
टाला नहीं जा सकता है। हद से हद जीवन को दीर्घ किया जा सकता है। जिन  भी ऋषि-मुनियों, सुरों-असुरों ने कठोर तप करके अमर होने का वरदान मांगा है, वह खाली गया है। अजेय होने के वरदान दिए हैं, अधिक से अधिक शक्ति संपन्न होने के वरदान दिए गए हैं, मगर यह कह कर अमरता के लिए इंकार किया गया है कि यह विधि के विरुद्ध है।
सवाल ये उठता है कि जब अमर हुआ ही नहीं जा सकता तो हमारे भीतर अमरता का भाव आता कहां से है? जब भी हम किसी की अंत्येष्टि में जाते हैं तो जीवन व संसार की नश्वरता से प्रत्यक्ष साक्षात्कार होता है, फिर भी यह भाव रहता है कि मैं तो अभी नहीं मरूंगा। कुछ पल के लिए जरूर संसार से विरक्ति का भाव आता है, जिसे कि श्मशानिया वैराग्य कहा गया है, मगर श्मशान से बाहर आते ही वह तिरोहित हो जाता है। श्मशान में रहते अवश्य जीवन की आपाधापी निरर्थक लगती है, सोचते हैं कि जब एक दिन मरना ही तो क्यों बुरे कर्म करें, लेकिन बाहर आते ही हम जस के तस हो जाते हैं।  राग-द्वेष में प्रवृत्त हो जाते हैं। कल्पना कीजिए कि अगर श्मशान में जाने पर उत्पन्न होने वाला अनासक्ति का भाव स्थाई हो जाए तो हम बाहर निकलते ही बदले हुए इंसान हो जाएं। मगर ऐसा होता नहीं है। क्यों नहीं होता है ऐसा?
वस्तुत: जिस चित्त में अमरता का अहसास पैठा हुआ है, वह हमारी जीवनी शक्ति की अमरता की वजह से ही है। वह तत्त्व, जिसे हम आत्मा कहते हैं, वह अमर है। शास्त्र भी यही समझाता है कि आत्मा अजर-अमर है। न उसे पानी में भिगोया जा सकता है, न उसे आग में जलाया जा सकता है, न उसे हवा में सुखाया जा सकता है, उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। पंच महाभूत से बना शरीर जरूर नष्ट हो जाता है, जो कि मृत्यु होने की निशानी है, मगर आत्मा कायम रहती है। इसे इस रूप में समझाया गया है कि शरीर एक चोला है। जैसे हम वस्त्र बदलते हैं, वैसे ही आत्मा जन्म लेती है और फिर पुन: जन्म लेती है। हमें शास्त्र की इस समझाइश से बड़ा सुकून मिलता है। बहुत संतुष्टि होती है। लगता है कि वह ठीक ही कह रहा है। वो इसलिए कि वह हमारे चित्त में बैठे अमरता के भाव पर ठप्पा लगाती है। उसकी पुष्टि करती है। हमारे मनानुकूल है। जब हमारा कोई निकटस्थ व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होता है तो यही समझाया जाता है चिंता न करें, मरना तो सुनिश्चित है, मगर मृत व्यक्ति की आत्मा अमर है। हमें इससे भी संतुष्टि होती है कि चलो शरीर नष्ट हो गया, मगर उसकी आत्मा का वजूद तो कायम है। इसी मिथ के आधार पर पुनर्जन्म की अवधारणा बनी हुई है। इसी आधार पर मान्यता बनी हुई है कि पिछले जन्मों के कर्म हमारी आत्मा के साथ आते हैं और उसी के अनुरूप हमें सुख-दुख मिलता है। अमरता का अहसास ही पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका अगले जन्म में भी मिलने, जन्मों-जन्मों तक साथ निभाने की कसम दिलवाता है। कई लोग तो अपने बुजुर्ग के अगले जन्म में अपने ही परिवार में जन्म लेने की कामना करते हैं। सपने में हुई अनुभूति या लक्षणों के आधार पर हम यह भी यकीन कर लेते हैं हमारे अमुक संबंधी ने फिर हमारी संतान के रूप में जन्म लिया है।
यह जानते हैं कि हमारा अमुक संबंधी मर कर कहीं अन्य जन्म ले चुका है, लौट कर नहीं आएगा, फिर भी उससे नाता बनाए रखते हैं। यानि कि उसके भी अमर होने का विश्वास है। उसके लिए बाकायदा 15 तिथियों की श्राद्ध की व्यवस्था की हुई है। जिस तिथी पर संबंधी की मृत्यु हुई थी, उस पर ब्राह्मण को भोजन करवाते हैं। यह मान कर हमारे संबंधी की आत्मा उसके शरीर में आ कर भोजन कर रही है।
कुल जमा यह धारणा यह है कि आत्मा अमर है। भीतर भी यही विश्वास है कि हम अमर हैं। अमरता की चाह भी वहीं से पैदा होती है। पर चूंकि भौतिक जगत में विधि का विधान इसकी अनुमति नहीं देता, इस कारण शरीर नष्ट हो जाने पर भी हम अमर रहेंगे, यह यकीन बहुत आत्मिक संतुष्टि देता है।
अमरता की इस आस्था के कारण ही यह सीख दी जाती है कि अच्छे कर्म करें, ताकि अगले जन्म में सुख मिले। इसी विश्वास के कारण सद्कर्म करने का उपदेश दिया जाता है, ताकि उसे बाद की पीढिय़ां याद करें और हमारा नाम अमर बना रहे। बेशक, हमें याद किया जा रहा है या नहीं, इसे देखने को हम मौजूद नहीं रहने वाले हैं, मगर अमरता की चाह हमें सुकर्म करने को प्रेरित करती रहती है।
प्रसंगवश यहां उन आठ चिरंजीवियों का भी जिक्र कर लेते हैं, जिनके बारे में शास्त्रों में बताया गया है कि वे हजारों साल से जीवित हैं।
इनमें से भगवान रुद्र के 11 वें अवतार व भगवान श्रीराम के परम सेवक श्रीहनुमान के चारों युगों में होने की महिमा को हनुमान चालीसा में चारों युग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा कह कर गाते हैं। बाकी 7 काल विजयी दिव्य आत्माओं का विवरण इस प्रकार है:- महामृत्युंजय सिद्धि प्राप्त शिव भक्त ऋषि मार्कण्डेय, चारों वेदों व 18 पुराणों के रचनाकार भगवान वेद व्यास, जगतपालक भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम, भक्त प्रह्लाद के वंशज व भगवान वामन को अपना सब कुछ दान करने वाले राजा बलि, लंकापति रावण के साथ युद्ध में भगवान राम का साथ देने वाले विभीषण, कौरवों और पाण्डवों के कुल गुरु परम तपस्वी ऋषि कृपाचार्य, कौरवों और पाण्डवों के ही गुरु द्रोणाचार्य के सुपुत्र अश्वत्थामा।
इसी सिलसिले में एक श्लोक का भी जिक्र भी अप्रासंगिक नहीं रहेगा-
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप-परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:।।
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टम।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।
अर्थात इन आठ लोगों (अश्वथामा, दैत्यराज बलि, वेद व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम और मार्कण्डेय ऋषि) का स्मरण सुबह-सुबह करने से सारी बीमारियां समाप्त होती हैं और मनुष्य 100 वर्ष की आयु को प्राप्त करता है।

-तेजवानी गिरधर
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आरंभ से रहा है असत्य का बोलबाला

आज के युग में अमूमन सभी को यह कहते हुए सुना जा सकता है कि आजकल झूठ का बोलबाला है। असत्य का साम्राज्य है। उससे ऐसा प्रतीत होता है कि पुराने जमाने में ऐसा नहीं होता था। हमारे बुजुर्गों और उनके भी बुजुर्गों के काल में लोग सच बोला करते थे। लेकिन ऐसा है नहीं। वैदिक काल में भी असत्य का अस्तित्व था। यदि ऐसा नहीं होता तो मुण्डकोपनिषद में यह नहीं कहा जाता कि सत्यमेव जयते। सत्यमेव जयते का अर्थ है कि सत्य की ही जीत होती है। अर्थात उस काल में भी यह धारणा थी कि असत्य मजे में है, वही जीतता प्रतीत होता था, तभी तो किसी ऋषि को यह कहना पड़ा कि नहीं सत्य की ही जीत होती है। यह बात दीगर है कि जब तक सत्य जीतता है, तब तक वह बहुत पीडि़त हो चुका होता है। और यही वजह है कि हमें असत्य बेहतर स्थिति में नजर आता है।
आपकी जानकारी के लिए यहां उल्लेख करना जरूरी है कि मुण्डकोपनिषद में से लिए आदर्श वाक्य सत्यमेव जयते का पूर्ण मंत्र इस प्रकार है:-
सत्यमेव जयते नानृतम सत्येन पंथा विततो देवयान:।
येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत् सत्यस्य परमम् निधानम।।
अर्थात अंतत: सत्य की ही जय होती है, न कि असत्य की। यही वह मार्ग है, जिससे होकर आप्तकाम (जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों) मानव जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।
ज्ञातव्य है कि भारत सरकार के राजकीय चिह्न अशोक चक्र के नीचे यह वाक्य अंकित है। जहां तक प्रतीक का प्रश्न है, वह उत्तर प्रदेश में वाराणसी के निकट सारनाथ में 250 ई. पू. में सम्राट अशोक द्वारा बनवाये गए सिंह स्तम्भ के शिखर से लिया गया है, परंतु उसमें यह आदर्श वाक्य नहीं है। जानकारी के अनुसार इस आदर्श वाक्य को राष्ट्रीय क्षितिज पर लाने में अहम भूमिका सन् 1918 में पंडित महन मोहन मालवीय की है।
भारत ही नहीं बल्कि चेक गणराज्य और इसके पूर्ववर्ती चेकोस्लोवाकिया का आदर्श वाक्य प्रावदा वीत्येजी सत्यमेव जयते का समानार्थी है। उसका भी अर्थ है सत्य जीतता है।
सच तो ये है कि सत्य व असत्य मानव सभ्यता के आरंभ से ही अस्तित्व में रहे हैं। तभी तो हम भगवान श्रीराम की रावण पर जीत को असत्य पर सत्य की विजय कहते हैं। पूरे भारत में दशहरा पर्व पर रावण का पुतला जला कर इस वाक्य का शंखनाद करते हैं। इससे इतर कुछ विद्वान तो असत्य के अस्तित्व को महत्वपूर्ण बताते हुए यहां तक कहते हैं कि राम की महिमा भी रावण के वजूद पर टिकी हुई है। अगर रावण न हो तो भला राम उभार कैसे मिल सकता है? अर्थात सत्य की महिमा का महल असत्य की जमीन पर खड़ा होता है।
इसी प्रकार महाभारत में भी श्रीकृष्ण व पांच पांडवों की सौ कोरवों पर जीत को सत्य की असत्य पर जीत की उपमा दी जाती है। ज्ञातव्य है कि धृतराष्ट्र, दुर्योधन, दु:शासन सहित कौरवों को असत्य व अधर्म का प्रतीक माना गया है। गीता में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृजाम्यहम। अर्थात जब जब भी धर्म की हानि होती है, मैं अधर्म का नाश करने के लिए धरती पर आता हूं। इसका भी यही तात्पर्य है कि असत्य व अधर्म सृष्टि के आरंभ से मौजूद रहे हैं, जिनसे निपटने के लिए सत्य के रूप में भगवान अवतार लेते हैं।
सत्य की इतनी महिमा है कि वेद और पुराण के विरोधियों ने भी सत्य को पंचशील व पंचमहाव्रत का प्रमुख अंग माना है।
महात्मा गांधी ने तो सत्य को ईश्वर की उपमा दी है। वे ऐसे महापुरुष हैं, जिन्होंने सत्य पर व्यावहारिक प्रयोग किए। आजादी के आंदोलन में समय सत्याग्रह के बल पर उन्होंने अंग्रेजों को भारत छोडऩे को विवश किया।

-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, 21 मार्च 2020

असुरों को वरदान देते ही क्यों हैं त्रिदेव?

पुराणों और रामायण व महाभारत से जुड़ी कथाओं में इस बात का स्पष्ट जिक्र है कि अमुक असुर ने त्रिदेव या किसी देवी-देवता से प्राप्त वरदान का दुरुपयोग करते हुए देवताओं, ऋषि-मुनियों आमजन को बहुत पीडि़त किया। इस पर दुखी हो कर वे त्रिदेव के पास गए और त्राहि माम त्राहि माम कहते हुए उस असुर की यातानाओं से मुक्ति के लिए प्रार्थना की। उन्होंने अपने वरदान की महत्ता को तो कायम रखा, मगर साथ ही दया की और अपने ही वरदान का तोड़ निकाला। और इस प्रकार अंतत: देवी-देवता, ऋषि-मुनि व आमजन परेशानी से मुक्ति पाते हैं। ऐसे अनेकानेक प्रसंग हैं। कोई गिनती ही नहीं।
सवाल ये है कि त्रिदेव या देवता असुरों को ऐसे वरदान देते ही क्यों हैं कि वे उसका दुरुपयोग कर सकें? क्या उन्हें इस बात का अहसास और इल्म भी नहीं कि असुर उस वरदान को दुनिया पर जुल्म ढ़हाने के लिए उपयोग करेगा? क्या किसी के आराधना, कठोर साधना व तप करने के बाद वरदान देना उनकी मजबूरी है, चाहे वह उसका दुरुपयोग करे? ऐसे वरदान भी जानकारी में हैं, जिनके साथ ये शर्त लगाई जाती है कि वे उसका उपयोग जनकल्याण के लिए करने की बजाय दुरुपयोग करेंगे तो वह स्वत: ही बेअसर हो जाएगा। मगर सच्चाई ये है कि असुरों द्वारा हासिल वरदानों की प्रकृति ही ऐसी होती है कि उनका दुरुपयोग किया ही जाएगा। स्वाभाविक ही है कि असुर ऐसा ही करेंगे। वरना वे असुर ही क्यों कहलाते? वरदान भी ऐसे-ऐसे कि ओ माई गॉड। जिनसे साफ झलकता है कि असुर उसका दुरुपयोग करेंगे ही। असल में वे शक्ति का वरदान हासिल ही इसलिए करते हैं, ताकि उसका उपयोग कर देवताओं का दमन करें। अपने साम्राज्य का विस्तार कर सकें। कोई असुर अजेय होने का वरदान पा लेता है तो कोई ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र व अन्य कई प्रकार के अमोघ अस्त्र वरदान स्वरूप हासिल कर लेता है, जिनका उपयोग महाविनाश के लिए किया जा सकता है। जब यह पहले से संज्ञान में है कि उनका उपयोग सृष्टि को नष्ट करने के लिए किया जा सकता है तो उसे देना ही नहीं चाहिए।
जरा गौर कीजिए। भस्मासुर शंकर भगवान से किसी के भी सिर पर हाथ फेरने पर उसके भस्म हो जाने का वरदान पा लेता है। बाद में माता पार्वती का वरण करने की खातिर भगवान को ही भस्म करने पर आमादा हो जाता है। बड़ी युक्ति से भगवान को उससे मुक्ति मिल पाती है। उसकी भी एक कहानी है। ब्रह्मा जी व विष्णु भगवान भी पहले तो ऐसे ही अनेक वरदान असुरों को देते हैं और बाद में खुद ही उनके निवारण के रास्ते निकालते हैं। यानि समस्या भी वे ही पैदा करते हैं और समाधान भी खुद ही करते हैं। हिरण्यकश्यप की कथा सर्वविदित है। उसे न अस्त्र से न शस्त्र से, न अंदर न बाहर, न जमीन पर न आसमान में, न मानव द्वारा न पशु द्वारा मारे जाने की वरदान हासिल होता है। अर्थात भगवान पहले तो ऐसा वरदान दे देते हैं कि उसे विभिन्न तरीकों से मारा नहीं जा सकेगा और बाद में खुद ही तोड़ निकालते हुए नृसिंह अवतार लेकर युक्तिपूर्वक उसका वध करते हैं, ताकि उनका वरदान की कायम रहे और हिरण्यकश्यप भी मारा जा सके।
इन सब में एक बात कॉमन है, वो यह कि मृत्यु अवश्यंभावी है, जगत के इस अटल सत्य को ध्यान में रख कर ही वरदान दिए जाते हैं। किसी को भी अमरता का वरदान नहीं दिया जाता। दिया भी नहीं जा सकता। जैसे भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान था, मगर में उसमें भी मृत्यु सुनिश्चित थी। बस इतना था कि उन्हें तभी काल वरण पाएगा, जब उनकी इच्छा होगी।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ असुर ही प्राप्त वरदान का दुरुपयोग करते हैं, ऐसे कई प्रसंग हैं, जिनमें देवता भी अपनी शक्तियों का बेजा इस्तेमाल करते हैं। बिलकुल वैसा ही व्यवहार करते हैं, जैसा कि आम मनुष्य करता है। ऋषि-मुनि तक मानवीय कामनाओं के वशीभूत हो कर कृत्य करते हैं। हां, इतना जरूर है कि ऐसे प्रसंगों की संख्या कम है। दुरुपयोग करने पर बाद में उन्हें भी शापित होना पड़ता है।
खैर, कुल मिला कर यह सवाल सिर ही चकरा देता है कि क्यों तो असुरों को वरदान दे कर उन्हें शक्तिशाली बनाया जाता है और फिर बाद में देवताओं के अनुनय-विनय पर दया करके असुरों का अंत किया जाता है।
यह तो हुई मोटी बु्द्धि और तर्क की बात। विषय का एक पहलु। जरा गहरे में जाएं तो और ही दृष्टिकोण उभरता है। ऐसा प्रतीत होता है कि परमसत्ता या प्रकृति द्वारा जगत के संचालन के लिए नकारात्मक व सकारात्मक शक्तियों का संतुलन बैठाया जाता है। यह जगत है ही द्वैत। अच्छाई और बुराई से मिल कर ही बना है। दोनों जगत के अस्तित्व के लिए आवश्यक तत्त्व हैं। इनका जोड़, बाकी, गुणा, भाग सृष्टि के रचनाकार भगवान ब्रह्मा, सृष्टि के पालक भगवान विष्णु व सृष्टि के संहारकर्ता भगवान शंकर करते हैं। ये तीनो सृष्टि के नियामक आयोग के डायरेक्टर हैं, जो स्वयं भी शक्ति के आदि केन्द्र के नियमों की पालना करवाने के लिए बाध्य हैं।
दूसरा तथ्य ये समझ में आता है कि कठोर साधना करके कोई भी शक्ति हासिल कर सकता है, चाहे असुर हो या देवता। प्रकृति की आदि शक्ति उसमें कोई भेद नहीं करती। वह सदैव निरपेक्ष रहती है।
इस विषय पर कभी और विस्तार से गहरे में चर्चा करेंगे।

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

गुरुवार, 12 मार्च 2020

मोक्ष प्राप्त संत की समाधि के क्या मायने?

हम संत-महात्माओं की समाधियां बनाते हैं। वहां अपना सिर झुकाते हैं। हर साल उन समाधियों पर मेले लगते हैं। उनकी महिमा गाई जाती है। अपनी किसी मनोकामना को लेकर हम भी अरदास करते हैं। बिना किसी स्वार्थ के केवल श्रद्धा भाव से किसी समाधि पर मत्था टेकने वाले भी होंगे, मगर अमूमन किसी इच्छा की पूर्ति के लिए ही लोग समाधि की पूजा करते हैं।
जो महान आत्माएं अच्छे कार्य करके स्वर्ग चली गईं, मैं उनकी बात नहीं करता, वे कदाचित हमारी मनोकामना पूरी करती ही होंगी, चूंकि वे देवताओं की श्रेणी में मानी जा सकती हैं। मैं उनकी बात कर रहा हूं, जिनके बारे में हमारी मान्यता है कि वे मोक्ष को प्राप्त हो गईं। मोक्ष का अर्थ ही है कि संसार से पूर्ण मुक्ति और परम सत्ता में विलीन हो जाना। उसके बाद भौतिक जगत से उनका कोई वास्ता ही नहीं रहता। यानि कि अगर हम ऐसी महान आत्मा की समाधि बनाते हैं तो वह वहां तो मौजूद नहीं हो सकती। उसका कोई अंश भी वहां नहीं है, चूंकि वे तो यहां से छूट कर परम धाम को चली गईं। तो फिर वहां किसी मनोरथ से सिर झुकाने का कोई अर्थ ही नहीं रह गया। हां, समाधि स्थल उनकी याद के लिए तो ठीक है, उनके गुणों का स्मरण कर उन्हें आत्मसात करने के लिए उचित है, लेकिन यदि हम अगर ये सोचें कि वह हमारी मनोकामना भी पूरी करेंगी तो यह हमारा भ्रम मात्र है। चूंकि वह वहां है ही नहीं, हमारी बात सुनने के लिए। न ही हमारा उससे कोई कनैक्शन है, चूंकि वह तो मुक्त ही हो चुकी। उसका जगत से संबंध ही विच्छेद हो गया। बुलाएंगे कैसे, सुनने वाला ही नहीं रहा। परम सत्ता में भी उसका अलग से कोई अस्तित्व नहीं है, चूंकि वह तो उसमें विलीन ही हो गई। फिर भी यदि हम समाधि के आगे खड़े हो कर उनका आह्वान करते हैं तो यह न केवल बेवकूफी है, अपितु घोर स्वार्थपरता है। हम कितने मतलबी हैं। उनको मोक्ष मिल गया, इसके प्रति अहोभाव तो है नहीं, उलटे खींच कर इसी जगत में रखना चाहते हैं, ताकि वे हमारे काम आते रहें।
इस सिलसिले में मैने एक महंत से चर्चा की व मेरी शंका का समाधान करने का आग्रह किया तो वे कुछ सोच कर बोले कि मेरी सोच बौद्धिक स्तर पर तर्कपूर्ण ही है। उनका कहना था कि बेशक मोक्ष प्राप्त संत की समाधि इच्छा पूर्ति का स्थल नहीं हो सकता। वह हमारी श्रद्धा का केन्द्र जरूर हो सकता है। वहां मन की शांति भी मिल सकती है। वहां से अच्छे कार्य करने की प्रेरणा भी मिल सकती है। लेकिन अगर हम वहां जा कर इच्छाओं का इजहार करते हैं, तो वह बेमानी है। आम आदमी इस बात को समझ नहीं पाता। वह तो स्वार्थ लेकर ही वहां जाता है। और अगर उसकी मनोकामना पूरी नहीं हुई तो फिर उसे निराशा ही हाथ लगेगी। सिद्धांतत: उन महंत के मन्तव्य से मेरी सोच मिलती है, वे मेरे नजरिये पर मुहर लगा रहे हैं, बावजूद इसके यही अंतिम सत्य है, ऐसा कहना इसलिए उचित नहीं क्योंकि हो सकता है कि मेरी समझ से भी परे कोई रहस्य हो, जो मुझे दिखाई न दे रहा हो। अगर आपको इस बारे में कोई जानकारी हो तो जरूर मेरा ज्ञानवद्र्धन कीजिएगा।

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

बुधवार, 11 मार्च 2020

फल की इच्छा के बिना कर्म हो ही कैसे सकता है?

गीता के सूत्र कर्मण्येवाधिकारस्ते, माफलेषु कदाचन पर एक नजर
गीता का एक सूत्र है:- कर्मण्येवाधिकारस्ते, माफलेषु कदाचन। इसका तात्पर्य है कि कर्म करो, मगर फल की इच्छा मत करो। अर्थात वह ईश्वर पर छोड़ दो। चूंकि यह सूत्र कर्मयोग के महानतम ग्रंथ गीता का है, इस कारण इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। जरूर इसका कोई गहरा अर्थ होगा। शब्दों में यह संदेश जितना सीधा सादा है, इसका अर्थ उतना ही गहरा है। यूं भी यह सीधी से बात है कि हम केवल कर्म पर ही ध्यान दें। वही हमारे हाथ में है। उसका फल क्या होगा, इसका पता नहीं। हमारी इच्छा करने से कुछ होना भी नहीं है। फल तो प्रकृति को ही तय करना है। हालांकि वास्तव में ऐसा है नहीं। फल तो हमारे कर्म के अनुसार ही तय होता है, प्रकृति तो केवल उसका आकलन करती है। जैसे परीक्षा में जितने भी सवाल हमने सुलझाए हैं, उसी के तहत नंबर मिलते हैं, मगर चूंकि उसकी गणना परीक्षक करता है, इस कारण यह प्रतीत होता है कि फल वह निर्धारित कर रहा है।
हालांकि बहुत गहरे अर्थों में गीता का सूत्र पूर्णत: सत्य है, मगर मोटे तौर पर इसमें बड़ा विरोधाभास नजर आता है। इसे यूं समझिये। हम जब भी कोई कर्म करते हैं, तो उससे पहले फल की इच्छा जागती है, तभी हम कर्म करते हैं। यदि किसी फल की कामना ही न तो हम कर्म ही क्यों करेंगे? जैसे यदि सामने परोसी हुई थाली में रखी वस्तु हमें खानी है तो मस्तिष्क हाथ को कर्म करने का आदेश देते हुए वह वस्तु पकड़ कर मुख में रखने को कहेगा। अर्थात खाने की इच्छा पहले जागृत हुई और हाथ ने कर्म बाद में किया। इसे अन्य उदाहरणों व तरीकों से भी समझा जा सकता है। यदि हमें परीक्षा में अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण होना है तो उसी के अनुरूप कर्म करना होगा, यानि कि हमारी दृष्टि में परिणाम या लक्ष्य पहले सामने रखना होता है, तभी उसके लिए अपेक्षित मेहनत करेंगे। लेकिन गीता का सूत्र इसके सर्वथा विपरीत है। वह कहता है कि फल ही इच्छा ही न कर, केवल कर्म कर। यह सूत्र समझ से परे प्रतीत होता है। ईश्वर ने हमें जो बुद्धि या समझ दी है, उसमें यह बैठता थोड़ा कठिन है।
जहां तक मेरी समझ पहुंच पाई है, गीता का सूत्र गहरे मायने लिए हुए है। उसका संदर्भ अलग है। एक तो ये कि जैसे ही हम आसक्त भाव से कर्म करते हैं तो उसका बंधन हो जाता है। विद्वान तो यहां तक कहते हैं कि कर्म क्या, केवल विचार मात्र भी कर्म का बंधन कर देता है। किसी का हत्या करना तो दूर, हत्या का विचार भी दूषित कर्म का बंधन कर देता है। दूसरी बात ये कि जैसे ही हम फल की इच्छा करते हुए कर्म करते हैं तो भीतर अहम का भाव जागृत हो जाता है कि हमने कर्म किया, इस कारण फल मिला है। इस अहम के भाव से मुक्ति के लिए ही फल का निर्धारण प्रकृति पर छोड़ देना होता है। यही वजह है कि ज्ञानी जन किसी भी उपलब्धि का श्रेय प्रकृति को ही देते हैं, खुद को उससे अलग ही किए रखते हैं, ताकि अंहकार घनीभूत न हो।
इस सूत्र के एक मायने ये भी हैं कि जैसे ही फल की कामना लिए हुए हम कर्म करते हैं तो अपेक्षित फल न मिलने पर दुखी होते हैं। जो भी फल हो उसके लिए जैसे ही अपने आपको मन के स्तर पर तैयार कर लेते हैं, तो पीड़ा नहीं होती।
जरा और गहरे में जाएं। वह एक अलग ही तल है। चूंकि हम सांसारिक प्राणी हैं, इस कारण जीवन यापन के लिए कर्म करना जरूरी है, मगर वह हम कर्तव्य की तरह, ड्यूटी की तरह करें। उसके प्रति आसक्ति न रखें तो जीते जी हम मुक्ति की राह पर चल पड़ेंगे। यह अवस्था तब आएगी, जब हम अपने आपको थर्ड पर्सन की तरह देखना शुरू कर देंगे। ऐसे जैसे हम अपने आपको अपने से पृथक देखना शुरू कर दें। इसे इस तरह से समझें। मानो हमारा नाम राम है। तो जब भी हम कुछ करें तो यह जाने कि राम हमसे अलग है। राम रो रहा है, राम हंस रहा है, राम दौड़ रहा है, हम तो दृष्टा मात्र हैं। यह विधि जगत में रहते हुए जगत से अलग रहना सिखाती है। हालांकि यह है कठिन, मगर कदाचित गीता का सूत्र इसी दिशा में हमें ले जाना चाहता है।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शनिवार, 7 मार्च 2020

मैं एक पेंडुलम हूं

भीतर के होश व बाहर की अनिवार्यता के बीच संतुलन बनाना वाकई कठिन है। आत्मा का सत्य तो आत्यंतिक है ही, भौतिक जगत का सत्य भी नकारा नहीं जा सकता, भले ही वह नश्वर है। प्रतिपल भस्म होता है, मगर जब गुजर रहा होता है, तब तो तात्कालिक सत्य होता है। परस्पर सर्वथा विरोधी धु्रवों के बीच कभी-कभी अपने आप को पेंडुलम सा प्रतीत करता हूं। कभी इस छोर पर तो कभी इस छोर पर। और कभी एक साथ दोनों की मौजूदगी। बेशक सतत भाव स्थिर चित्त का है, लेकिन चिदाकाश में विचरण शारीरिक मौजूदगी की अनिवार्य स्थिति है। उसके अपने सुख-दुख हैं, मगर संतोष इस बात से होता है कि अवतार भी तो सशरीर होने के कारण सांसारिक स्थितियों को भोगते हैं, भले ही इसे उनकी लीला कहा जाए। खैर, असलियत का पता है, मगर नाटक तो करना ही पड़ता है। इस संदर्भ में यह सूत्र मुझे प्रीतिकर लगता है:-

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभ्य सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वाऽमृतमश्नुते।।
बुद्धिमान मनुष्य विद्या एवं अविद्या, दोनों को ही एक साथ जानता है। वह अविद्या के सहारे मृत्युमय इस संसार को पार करता है, अर्थात् उसका उपयोग करते हुए सार्थक ऐहिक जीवन जीता है, तभी भौतिक कष्टों तथा व्यवधानों से मुक्त होकर वह विद्या पर ध्यान केंद्रित करते हुए देहावसान के उपरांत सच्चिदानंद परमात्मा के रूप में प्राप्य अमृतत्वपूर्ण परलोक का भागीदार बनता है।


-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

मंगलवार, 3 मार्च 2020

रखी है और पड़ी है, में फर्क है

दैनिक न्याय पत्रकारिता की प्राथमिक पाठशाला थी। गुरुकुल जैसी। यूनिवर्सिटी भी थी, मगर उनके लिए, जिन्होंने उसे गहरे से आत्मसात किया। बाद में वे बड़े से बड़े अखबार में भी मात नहीं खाए। प्राथमिक पाठशाला इस अर्थ में कि जिसने भी वहां काम किया, उसे पत्रकारिता के साथ-साथ मौलिक रूप से शुद्ध हिंदी भी सीखने को मिली। इसके प्रकाशक व संपादक स्वर्गीय बाबा श्री विश्वदेव शर्मा शुद्ध हिंदी के प्रति अत्यंत सजग थे। रोजाना सुबह अखबार की एक-एक लाइन पढ़ा करते थे। वर्तनी की छोटी से छोटी गलती पर गोला मार्क कर देते। यहां तक कि बिंदी व कोमा की गलती भी नहीं छोड़ते थे। प्रूफ रीडिंग पर बहुत ज्यादा ध्यान दिया करते थे। दो प्रूफ निकालने की तो हर अखबार में परंपरा थी, मगर वे तीसरा प्रूफ भी पढ़वाया करते थे, ताकि एक भी गलती न जाए। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उनके एक पुत्र सनत शर्मा तीसरा प्रूफ पढ़ा करते थे। वर्तनी व व्याकरण की त्रुटियों को लेकर इतने  सख्त थे कि एक बिंदी की गलती पर भी प्रूफ रीडर की तनख्वाह में से पच्चीस पैसे काट लेते थे। शब्दों के ठीक-ठीक अर्थ की भी उनको गहरी समझ थी। उन्हें यह बर्दाश्त ही नहीं होता था कि कोई कर्मचारी गलत शब्द का इस्तेमाल करे। अपनी टेबल पर सदैव हिंदी शब्द कोष व अंग्रेजी-हिंदी डिक्शनरी रखा करते थे। किसी शब्द को लेकर कोई भी शंका हो तो शब्द कोष देख कर कन्फर्म करने को कहते थे।
एक बार की बात है। उन्होंने एक क्लर्क को पूछा कि अमुक फाइल कहां पर है? क्लर्क ने जवाब दिया- अलमारी में  पड़ी है। बाबा ने दुबारा पूछा- अमुक फाइल कहां है? वही जवाब मिला- अलमारी में पड़ी है। इस पर उनको गुस्सा आ गया। तीसरी बार सख्ती से पूछा- अमुक फाइल कहां पर है? क्लर्क को समझ में नहीं आया कि तीसरी बार फिर वही सवाल क्यों किया जा रहा है। उसने जैसे ही कहा कि अलमारी में पड़ी है तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने क्लर्क को झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिया। बोले कि ये मत कहो कि पड़ी है, ये कहो कि रखी है। पड़ी का मतलब तो ये होता है कि लावारिस पड़ी है, जबकि रखी का मतलब होता है कि सुरक्षित और ठिकाने पर रखी है। आम तौर पर हम पड़ी और रखी शब्दों में हम फर्क नहीं समझते, मगर गौर से देखें तो वाकई बहुत अंतर है। मामूली अंतर है, मगर बड़ा भारी अंतर है। तात्पर्य यही कि बाबा शुद्ध हिंदी के प्रति अत्यधिक कटिबद्ध थे। यही वजह थी कि दैनिक न्याय में जिन्होंने पकारिता सीखी, वे पारंगत हो गए। बाद में जब किसी बड़े अखबार में गए तो पत्रकारिता की स्कूलिंग उन्हें बहुत काम आई। अच्छे-अच्छे पत्रकारों को टक्कर  देने में काबिल थे। दैनिक न्याय जैसी पाठशालाएं अब कहां?
गजब का अनुशासन 
केवल पत्रकारिता ही नहीं, अपितु अनुशासन भी गजब का था दैनिक न्याय में। एक ऑलपिन तक यदि फर्श पर गिर जाए तो जिम्मेदार कर्मचारी के वेतन में से पैसे काट लिया करते थे। अनुशासन के ऐसे माहौल का ही परिणाम था कि सभी कर्मचारी अनुशासित रहने के आदी हो गए थे। उन दिनों टेलीफोन हर घर में नहीं हुआ करता था। पर हर कॉल के पैसे लगा करते थे। व्यवस्था ये थी कि अगर किसी आगंतुक को कॉल करना होता था तो उससे एक रुपया लिया जाता था। बाबा के एक पुत्र वृहस्पति शर्मा उन दिनों जयपुर कार्यालय में थे। कभी कभार अजमेर आया करते थे, इस कारण कई कर्मचारी उन्हें नहीं जानते थे। एक बार वे आए और उन्हें फोन करने की जरूरत पड़ी तो वे सीधे गए टेलीफोन के पास और एक कॉल कर लिया। जैसे ही जाने लगे तो वहां मौजूद सहायक संपादक संजय भट ने उनके एक रुपया मांग लिया। वे तो भौंचक्क ही रह गए। अपने ही संस्थान में कोई कर्मचारी अगर एक फोन कॉल के पैसे मांग ले तो बुरा लगेगा ही। मगर संजय भट अड़ गए। वृहस्पति शर्मा ने अपना परिचय दिया कि वे बाबा के पुत्र हैं। इस पर संजय भट बोले कि मैं आपको नहीं जानता। आप बाबा के सुपुत्र हैं, मगर यहां तो यही नियम है कि कोई भी कॉल करेगा तो उसे एक रुपया देना ही होगा। आखिरकार वृहस्पति शर्मा को एक रुपया निकाल कर देना ही पड़ा, मगर वे इस अनुशासन को देख कर बहुत प्रसन्न हुए और संजय भट को शाबाशी दी।

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

सोमवार, 2 मार्च 2020

बुराई हर जगह है, छोड़ कर कहां जाओगे?

एक बार की बात है। तब दैनिक न्याय के प्रकाशक व संपादक स्वर्गीय बाबा श्री विश्वदेव शर्मा अजमेर में थे। बाद में वे अहमदाबाद शिफ्ट हो गए। न्याय में एक प्रूफ रीडर थे। नाम भूल गया। शायद सरनेम मिश्रा था। निहायत सज्जन। निहायत सज्जन माने निहायत सज्जन। एकदम सीधे। अल्लाह की गाय समान। बिलकुल शुद्ध हिंदी में बात करते थे। बहुत मीठा बोलते थे। धीरे से बात करते थे। प्रूफ रीडिंग का काम रात में होता था। तब लेटर टाइप से कंपोजिंग हुआ करती थी। स्वाभाविक रूप से उनका कंपोजीटरर्स से वास्ता पड़ता था। हालांकि कंपोजीटर्स उनसे अच्छे से बात करते थे, लेकिन आपस में गाली गलौच में ही बतियाते थे। जैसा कि आम बोलचाल में गालियां बकी जाती हैं, उनका उपयोग किया करते थे। उनकी अश्लील बातें उन सज्जन मिश्राा जी को बहुत इरीटेट किया करती थी। वे बहुत परेशान रहते थे। नौकरी छोडऩे का ही मन बना लिया। आखिरकार एक दिन तंग आ कर उन्होंने इस्तीफा दे दिया। बाबा ने उनको बुलाया। पूछा कि क्या तकलीफ है। वे बोले कंपोजीटर गंदी भाषा में बात करते हैं। बाबा ने पूछा कि क्या आपसे बदतमीजी करते हैं तो वे बोले नहीं। इस पर बाबा ने कहा कि तो फिर आपको क्या परेशानी है? उन्होंने कहा कि कंपोजीटरर्स की आपस की गाली-गलौच की बातचीत उनको पसंद नहीं। बाबा ने समझाया कि वे आपस में ही तो गालियां बकते हैं, आपको तो कुछ कहते नहीं, फिर काहे को परेशान होते हो। इस पर उन सज्जन ने कहा कि वे ऐसे माहौल में काम नहीं कर सकते। तब बाबा ने उनको जो जवाब दिया, वह मेरे इस राइट अप का मूल सूत्र है।
बाबा ने अपने जीवन का सार बताते हुए समझाया कि बेटा दुनिया तो बुरी ही है। हर जगह बुरे लोग हैं। हर जगह कोई न कोई समस्या है। ऐसी कोई जगह नहीं, जहां समस्या नहीं। यहां से छोडोगे और दूसरी जगह जाओगे तो वहां भी कोई ने कोई समस्या होगी। बस समस्या का रूप बदल जाएगा। किसी भी जगह बिलकुल आपके अनुकूल माहौल नहीं मिलेगा। इस दुनिया में जीना है तो समझौते करने ही होंगे। आप तो अपने काम से काम रखो। दूसरे क्या करते हैं, इस पर ध्यान मत दो। आप तो सज्जन बने रहो ना, कौन रोक रहा है आपको सज्जन बने रहने से? बाबा ने बहुत समझाया, मगर वे इस्तीफा देने पर अड़ ही गए। नौकरी छोड़ कर ही माने।
खैर, इस प्रसंग से बाबा की अनुभव सिद्ध बात मेरे मन में घर कर गई। वाकई चारों ओर बेईमानी है, चालाकी है, स्वार्थपरता है, उसे ठीक करना हमारे बस की बात नहीं। ठीक करना हमारा ठेका भी नहीं। कितनों को ठीक कर लोगे। उलटे खुद की खराब हो जाओगे। बेहतर ये है कि केवल अपने आप को देखो। स्वांत: सुखाय जीयो। आपको जैसा उचित लगता है, वैसा आचरण करो, दुनिया को छोड़ हो अपने हाल पर। उस पर अपना दिमाग अप्लाई मत करो। खुद की सज्जनता से वास्ता रखो, दूसरे की दुर्जनता से क्या लेना देना। अपने मन को शांत रखो। मन चंगा तो कठौती में गंगा। अगर दुनिया की आपाधापी से टकराओगे तो तनाव ही मिलेगा। वाकई ये कहावत सही है कि जो सुख चावे जीव को तो बौंदू बन कर रह।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शरीर के सर्वांग विकास के लिए षट् रस जरूरी

भारतीय भोजन की विशेषता यह है कि इसमें विभिन्न रसों का समावेश होता है, जिन्हें मिलाकर संपूर्ण भोजन तैयार किया जाता है। भारतीय खाने में शट् रस...