गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

जाते हुए को पीछे से आवाज क्यों नहीं दी जाती?

हम सब जानते हैं कि जब भी कोई किसी काम से रवाना होता है तो जाते समय उसको पीछे से आवाज नहीं दिया करते। इसे अपशकुन माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि पीछे से आवाज देने पर उस कार्य के संपन्न होने में संशय उत्पन्न हो जाता है, जिसके लिए वह निकला है। इसके अतिरिक्त इसे किसी अनिष्ट की आशंका का संकेत भी माना जाता है। सलाह यही दी जाती है कि टोकने की बजाय उसे कुछ पल के लिए रोक लिया जाए। उस वक्त को टाल दिया जाए। यानि कि घर आ कर कुछ पल वापस पलंग या कुर्सी पर बैठा जाए या फिर पानी का एक गिलास पी लिया जाए। उसके बार रवाना हुआ जाए।
जरा गहराई में जाएं तो पाएंगे कि यकायक पीछे से आवाज देने का भाव हमारे मन में प्रकृति ही पैदा करती है। अर्थात जिस पल में वह भाव उत्पन्न होता है, वह किसी काम के निकलने के लिए उचित नहीं होता। प्रकृति उसे टाले जाने की सलाह दे रही होती है। अगर हम उसे अनसुना करते हैं तो उसका परिणाम विपरीत आ जाता है।
अगर इसको अंध विश्वास भी मान लें तो भी काम की सफलता इस कारण संदिग्ध हो जाती है, क्यों कि हमारे मन में यह धारणा पहले से बैठी हुई है कि पीछे से आवाज आई है, यानि कि कुछ गड़बड़ होगी ही, हमारी आत्मशक्ति में कुछ कमजोरी आ जाती है। हम वह कार्य उतने मनोयोग से नहीं कर पाते, जितने से किये जाने की जरूरत होती है। और वाकई काम ठीक से पूरा नहीं होता।
कई बार ऐसा भी होता है कि जैसे ही कोई रवाना होता है, और यकायक हमारे मन में उसे किसी बात की याद दिलाने का ख्याल आता है, मगर चूंकि हम मानते हैं कि पीछे से आवाज देना ठीक नहीं है, हम अपने आपको रोक लेते हैं और व्यक्ति को जाने देते हैं और पाते हैं कि वह स्वत: ही कुछ पल बाद वापस चला आता है, चूंकि तब तक टेलीपैथी से उसके मस्तिष्क में हमारा मस्तिष्क लौटने का संकेत भेज चुका होता है। ऐसा भी होता है कि भले ही हमने अपने आप को टोकने से रोक लिया हो फिर भी काम बिगड़ जाता है। इसका सीधा अर्थ है कि प्रकृति ने तो हमें संकेत दिया था, मगर हमने ही या तो अनसुना कर दिया या फिर बलात खुद को रोक दिया।
ऐसा नहीं कि केवल अन्य व्यक्ति के मन में ही पीछे से आवाज देने का भाव आता है, कई बार हम खुद काम के लिए निकलते हुए महसूस करते हैं कि पीछे से आवाज आ रही है, कुछ अधूरा-अधूरा सा है, या फिर हम कुछ भूल रहे हैं। कई बात तो दिमाग पर जोर डालने पर पकड़ लेते हैं कि हम क्या भूल रहे हैं, मगर कई बार ऐसा नहीं हो पाता। मजे की बात ये है कि क्या भूल रहे हैं, यह घर के भीतर जा कर उसी स्थान पर खड़े होने पर ही याद आता है, जहां से हमारे विचार या दृश्य की शृंखला टूटी है। ऐसा भी होता है कि लाख याद करने पर भी हमें याद नहीं आता तो हम काम के लिए रवाना हो जाते हैं और गन्तव्य स्थान पर पहुंचने के बाद ही पता लगता है कि अमुक चीज भूल गए।
सच में प्रकृति ने हमें मस्तिष्क नामक गजब का सुपर कंप्यूटर दिया है, जो अपने आस-पास से संकेत ग्रहण करता है और संकेत प्रेषित भी करता है। वैज्ञानिक भी इसे स्वीकार करने लगे हैं। हालांकि वे इसका वैज्ञानिक विवेचन नहीं कर पाते, मगर इसे टेली रेस्पोंस पॉवर के नाम से संबोधित करते हैं। टेली रेस्पोंस पॉवर के अनेक सफल प्रयोग हो चुके हैं। यह पूर्ण प्रमाणिक विज्ञान नहीं है, चूंकि यह हमारी मानसिक शक्ति पर निर्भर करता है। यह हमारे संदेश प्रसारण की क्षमता व संदेश ग्रहण करने की पात्रता पर निर्भर करता है। टेली रेस्पोंस पॉवर पर फिर कभी विस्तार से चर्चा करेंगे।
आखिर में एक बात कहना जरूर कहना चाहूंगा। वो ये कि प्रकृति में सदा दो और दो चार नहीं होता, कभी तीन तो कभी पांच हो जाता है। उसकी गणित अपनी अलग है, जो हमारी गणित से मेल नही खाती। बस यहीं से रहस्यवाद का आरंभ होता है।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

रविवार, 26 अप्रैल 2020

कोराना ईश्वर का ही एक रूप है!

कोरोना को साष्टांग प्रणाम।
हे भगवान, या खुदा, यह वायरस कितना शक्तिशाली है। इसने आपके सारे धर्म स्थलों, सभी उपासना स्थलों को बंद कर दिया है। लोग पूजा, आराधना, प्रार्थना, अरदास से वंचित हैं। मस्जिदों में सामूहिक नमाज से महरूम हैं। इसने दुनिया की सारी सत्ताओं को हिला कर रख दिया है। बड़ी से बड़ी साधन-संपन्न सभ्यताएं भी उसके आगे नतमस्तक हैं। लोग घरों में कैद रहने को मजबूर हैं। आम आदमी त्राहि-त्राहि माम करने के सिवाय कर ही क्या सकता है? इतना तो तय है कि वह कोई महाशक्ति है। सवाल उठता है कि क्या यह भगवान की सत्ता से भी अधिक ताकतवर है? प्रश्र उठना स्वाभाविक है कि क्या ईश्वर की सत्ता से अतिरिक्त भी कोई सत्ता है, जो उसे चुनौति दे रही है?
वस्तुत: सारी सकारात्मक शक्तियों के साथ नकारात्मक शक्तियां भी ईश्वर की संरचना, सृष्टि का ही अंग हैं। वे पृथक नहीं हैं। उनका अलग से कोई अस्तित्व नहीं है। वे कहीं और जगह से नहीं आतीं। इसी प्रकार राक्षस, आसुरी शक्तियां भी इसी सृष्टि में विद्यमान हैं, वे किसी अन्य ब्रह्माण्ड या गैलेक्सी से नहीं आतीं। ऐसे में यह मानना ही होगा कि कोराना महामारी को फैलाने वाला कोविड-19 भी ईश्वर की ही सत्ता का हिस्सा है। उसी का एक रूप है। उसी का एक पहलु है। उसी की इच्छा है, उसी का संकल्प है। कोरोना उसी परम सत्ता से वरदान हासिल कर तांडव कर रहा है, जिसके सामने देवता जा कर अपनी रक्षा की अर्जी लगाते हैं। वह ईश्वर की शक्ति को चैलेंज करने किसी अन्य ब्रह्मांड से नहीं आया है।
कहीं ये भगवान शिव का रुद्र तो नहीं?
ज्ञातव्य है कि सनातन संस्कृति में यह धारणा है कि भगवान ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण करते हैं, भगवान विष्णु पालन करते हैं और भगवान शिव संहारकर्ता हैं। जरूरी नहीं कि अकेला यह मिथ ही सही हो कि पहले सृष्टि का निर्माण होता है और अंत में संहार। संहार के बाद फिर से सृष्टि उत्पन्न होती हो। गले में आसानी से उत्पन्न होने वाला मिथ ये है कि निर्माण व संहार साथ-साथ चलता रहता हो। तभी तो जन्म भी है और मृत्यु भी। इधर नए जन्म हो रहे हैं और उधर जन्म ले चुके लोगों का मृत्यु वरण कर रही है। प्रकृति अपने हिसाब से बैलेंस करती है। इस मिथ के हिसाब से तो यही प्रतीत होता है कि कोरोना संहारकर्ता भगवान शिव का ही एक रूप है। हो सकता है शिव का ही एक रुद्र हो। एक नया रुद्रावतार हो।
जीवन शैली में परिवर्तन करने की प्रेरणा
गीता का श्लोक है ना, यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवतिभारत:, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृजाम्यहम्। क्या पता एक नए अभ्युत्थान का पुनरागमन हो। क्या यह किसी अभ्युत्थान से कम है कि कोरोना वायरस ने हमें साफ-सफाई से रहने को मजबूर कर दिया है, अनुशासित रहने की सीख दी है। जीवन शैली में परिवर्तन करने की प्रेरणा दी है। जितने काल तक के लिए भी यह अभ्युत्थान हुआ है, उसमें सृष्टि प्रदूषण से मुक्त हो रही है। मैली हो चुकी मां गंगा के बहते पानी में जमीन साफ नजर आने लगी है।
जहां तक माइथोलॉजी का सवाल है उसके अनुसार जीवन सृष्टि का मौलिक तत्व है, जीवन सत्य है। जीवन यदि आरंभिक सत्य है तो मृत्यु अंतिम। सृष्टि में जीवन विद्यमान है तो मृत्यु भी यहीं है। जरा बड़े स्पैक्ट्रम से देखें तो जिसे हम जीवन कह रहे हैं वह तो भ्रम है ही, मृत्यु भी भ्रम ही तो है। जीवन मृत्यु को प्राप्त हो रहा है तो मृत्यु से ही फिर जीवन उत्पन्न हो रहा है।  प्रकृति के पास एक तराजू है। संतुलन बनाए रखना उसका धर्म है।
मूर्ति के वजूद पर भी खड़ा कर दिया सवाल
मौजूदा हालात में आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती की ख्याल आता है। वे मूर्ति पूजा के विरोधी थे। एक चूहे के मूर्ति पर चढ़ कर प्रसाद खा जाने पर उन्हें लगा कि जब मूर्ति खुद अपनी ही रक्षा नहीं कर पा रही तो वह हमारी क्या रक्षा करेगी? आज देखने में यही आ रहा है कि जिन मूर्तियों के सामने हम नतमस्तक हो कर अपनी रक्षा की गुहार लगाते हैं, मनोकामना की पूर्ति की प्रार्थना करते हैं, वे हमारे द्वारा बनाए गए मंदिरों में बंद है। हम उनसे मिल तक नहीं पा रहे।
कहां गई साधु-संतों की शक्ति
विशेष रूप से हमारे देश में अनगिनत साधु-सन्यासी हैं। उनमें से कई शक्तिमान भी माने जाते हैं। कुछ एक कथित रूप से चमत्कार भी दिखा चुके हैं। ऐसे भी बाबा हैं, जिन्होंने अपने आप को भगवान के समकक्ष जाहिर किया है। तंत्र-मंत्र से उलटा-पुलटा करने वाले भी कम नहीं हैं। अनेक प्रकांड ज्योतिषी भी हैं, जो दुनियाभर के उपाय बताते हैं। आज वे सब कहां हैं? उनकी शक्तियां क्यों नाकाम हैं? क्या कोराना उनके भी पिताश्री हैं, जिन पर उनका जोर नहीं चलता?
सभी को बना दिया श्वेताम्बर
प्रकृति की कैसी विचित्र लीला है। अब तक अकेले जैन दर्शन का अनुसरण करने वाले श्वेताम्बर आचार्य, साधु, मुनि, साधक ही मुंह पर मोमती बांधते रहे हैं, आज कोरोना ने हर एक आदमी को मुंह पर मोमती बांध दी है। फर्क ये है कि वे सांस की उष्णता से अदृश्य जीवों को मृत्यु से बचाते हैं और हम अदृश्या कोरोना से अपनी मौत न हो जाए, इसलिए मोमती को बांधने को मजबूर हैं।
एक अर्थ में इसने कुछ को दिगम्बर, मेरा मतलब निरवस्त्र भी किया है कि उनमें समाज सेवा का जज्बा कितना सच्चा है, कि उनकी प्रषासनिक क्षमता कितनी कुषल है, कि ताकत हासिल हो जाए तो आदमी कितना बौरा जाता है, कि समय खराब हो तो कैसे दुम दबाता है, कि कालाबाजारिये कैसे मौके का फायदा उठा कर लूट मचाते हैं, कि कुछ लोग संकट काल में भी राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे, कि इस संकट काल में भी राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे, कि मौत सामने खडी है, मगर धर्म के नाम पर बांटने की आदत नहीं छूट रही। इसने हमारी उस मनोदषा को भी बेपर्दा किया गया है कि हमारे हित में किए गए उपायों को भी कैद समझते हैं।
जान है तो जहान है, जान ईश्वर से भी अधिक प्यारी
खैर, कोरोना महामारी के इस दौर में यह मत भी उभर कर आया है कि बेशक ईश्वर की हम उपासना इसलिए करते हैं क्योंकि वह हम से अधिक शक्तिमान है, सर्व शक्तिमान है, उससे हमें कुछ चाहिए, मगर उससे भी अधिक हमें अपनी जान प्यारी है। यह ठीक है कि हम अपने घरों में बनाए गए मंदिरों में उसकी आराधना कर रहे हैं, मगर अपनी जान बचाने के लिए सार्वजनिक मंदिर की उपासना तक को भी छोडऩे को तैयार हैं। कहते हैं न कि जान है तो जहान है। अर्थात इस दुनिया का मूल्य तभी है, जब कि हमारी जान महफूज रहे। भगवान का महत्व भी तभी तक है, जब तक कि हम जीवित हैं, मरने के बाद किसने देखा कि भगवान है भी या नहीं। यदि जान ही सुरक्षित नहीं तो जहान बेकार है। और इसी जहान में कोरोना नामक दैत्य, दानव अथवा भगवान शिव के रुद्र ने अवतार लिया है। उसे दंडवत प्रणाम।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

गिलास से नहीं, लोटे से पीयें पानी

हाल ही सोशल मीडिया पर एक रोचक पोस्ट देखी, जिसमें गिलास की बजाय लोटे से पानी पीने की सलाह दी गई है। हालांकि उसमें वैज्ञानिक तथ्यों को आधार बनाया गया है, जिनकी प्रमाणिकता के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, मगर प्रस्तावना में स्वदेशी की पैरवी और विदेशी का परित्याग करने का भाव अधिक है। विषय दिलचस्प है, लिहाजा सोचा कि इसे विमर्श के लिए आपके समक्ष रखा जाए। इस पोस्ट में अनावश्क विस्तार था, जिसे हटा दिया गया है। भाषा को भी परिमार्जित किया गया है।
इसमें लिखा है कि भारत में हजारों साल की पानी पीने की जो सभ्यता है, वो गिलास नही है, ये गिलास जो है, विदेशी है। गिलास भारत का नहीं है। गिलास यूरोप से आया। और यूरोप में पुर्तगाल से आया था। ये पुर्तगाली जब से भारत देश में घुसे थे, तब से गिलास में हम फंस गये। गिलास अपना नहीं है, अपना लौटा है। लौटा कभी भी एकरेखीय नहीं होता, तो वागभट्ट जी कहते हैं कि जो बर्तन एकरेखीय हैं, उनका त्याग कीजिये।
आपको तो सबको पता ही है कि पानी को जहां धारण किया जाए, उसमे वैसे ही गुण उसमें आते हैं। पानी के अपने कोई गुण नहीं हैं, जिसमें डाल दो उसी के गुण आ जाते हैं। दही में मिला दो तो छाछ बन गया, दूध में मिलाया तो दूध का गुण। जिस आकार के पात्र में डाला जाएगा, उसी का गुण धारण कर लेता है। अगर थोड़ा भी गणित आप समझते हैं तो हर गोल चीज का सरफेस टेंशन कम रहता है। क्योंकि सरफेस एरिया कम होता है। स्वास्थ्य की दष्टि से कम सरफेस टेंशन वाली चीज ही आपके लिए लाभदायक है। अगर ज्यादा सरफेस टेंशन वाला पेय आप पीयेंगे तो बहुत तकलीफ देने वाला है।
चूंकि कुआं गोल है, इस कारण उसका पानी सबसे अच्छा है। आपने देखा होगा कि सभी साधु-संत कुएं का ही पानी पीते हैं। न मिले तो प्यास सहन कर जाते हैं। साधु-संत अपने साथ जो केतली रखते हैं, वह लोटे के तरह के आकार वाली होती है। गोल कुए का पानी है तो बहुत अच्छा है। गोल तालाब का पानी, पोखर अगर गोल हो तो उसका पानी बहुत अच्छा है। नदी में गोल कुछ भी नहीं है। वो सिर्फ लम्बी है, उसमे पानी का फ्लो होता रहता है। नदी का पानी हाई सरफेस टेंशन वाला होता है और नदी से भी ज्यादा खराब पानी समुद्र का होता है। उसका सरफेस टेंशन सबसे अधिक होता है।
प्रकृति में देखेंगे तो बारिश का पानी गोल होकर धरती पर आता है। सभी बूंदें गोल होती हैं, क्योंकि उसका सरफेस टेंशन बहुत कम होता है।
एक तर्क ये दिया गया है। सरफेस टेंशन कम होने से पानी का सफाई करने वाला गुण लम्बे समय तक जीवित रहता है। पानी का ये गुण इस प्रकार काम करता है- बड़ी आंत और छोटी आंत में मेम्ब्रेन है और कचरा उसी में जा कर फंसता है। उसकी सफाई तभी संभव है, जब कम सरफेस टेंशन वाला पानी आप पी रहे हो। अगर ज्यादा सरफेस टेंशन वाला पानी है तो ये कचरा बाहर नहीं आएगा, मेम्ब्रेन में ही फंसा रह जाता है।
एक प्रयोग भी बताया गया है-
थोड़ा सा दूध लें और उसे चेहरे पे लगाइए। 5 मिनट बाद रुई से पोंछिये, रुई काली हो जाएगी। स्किन के अन्दर का कचरा और गन्दगी बाहर आ जाएगी। इसे दूध बाहर लेकर आया। असल में दूध का सरफेस टेंशन सभी वस्तुओं से कम है। दूध ने स्किन का सरफेस टेंशन कम किया व त्वचा थोड़ी सी खुल गयी और त्वचा खुली तो अंदर का कचरा बाहर निकल गया। यही क्रिया लोटे का पानी पेट में करता है।
अगर आप गिलास का हाई सरफेस टेंशन का पानी पीयेंगे तो आंतें सिकुड़ेंगी क्योंकि तनाव बढ़ेगा। तनाव बढ़ते समय चीज सिकुड़ती है और तनाव कम होते समय चीज खुलती है। अब तनाव बढ़ेगा तो सारा कचरा अंदर जमा हो जायेगा और वो ही कचरा भगन्दर, बवासीर जैसी बीमारियां उत्पन्न करेगा।
कुल मिला कर गिलास की बजाय पानी लौटे में पीयें। गिलास का प्रयोग बंद कर दें। जब से आपने लोटे को छोड़ा है, तब से भारत में लोटे बनाने वाले कारीगरों की रोजी रोटी खत्म हो गयी। गांव-गांव में कसेरे कम हो गये। वो पीतल और कांसे के लोटे बनाते थे। सब इस गिलास के चक्कर में भूखे मर गये। तो वागभट्ट जी की बात मानिये और लोटे वापस लाइए।

गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

सांस में छिपे हैं चमत्कारिक प्रयोग

भारतीय सनातन संस्कृति में शिव स्वरोदय एक ऐसा विज्ञान है, जिसका प्रयोग हर आम-ओ-खास कर सकता है, मगर दु:खद पहलु ये है कि इसके बारे में चंद लोगों को ही जानकारी है। हालांकि विस्तार में जाने पर यह बहुत गूढ़ भी है, पूरे ब्रह्मांड का रहस्य इसमें छिपा है, जिसे योगाभ्यास करने वाला ही जान-समझ सकता है, लेकिन इसमें वर्णित अनेक तथ्य ऐसे हैं, जो न केवल आसानी से समझ में आते हैं, अपितु उनका प्रयोग भी बहुत सरल है। शास्त्रों के अनुसार यह विज्ञान मूलत: भगवान शिव व शक्ति के बीच का संवाद है, जिसमें जन कल्याण के लिए भगवान इसकी विस्तार से व्याख्या करते हैं। इस आलेख में हम आम आदमी के हितार्थ कुछ टिप्स पर चर्चा करेंगे, ताकि वह उनका लाभ ले सके।
टिप्स के वर्णन से पहले हम जरा इस विज्ञान के बारे में मोटी-मोटी जानकारी हासिल कर लें। यह तो आपके अनुभव में है ही हम अपनी नासिका छिद्रों से सांस लेते हैं और छोड़ते हैं। सांस ही प्राण वायु है। सांस हर पल चल रही है, खाते, पीते, चलते-फिरते, कुछ भी करते। स्वत: चल रही है। यहां तक सोते समय भी यह स्वत: चलती है। यह एक सामान्य प्रक्रिया है। हम सोच भी नहीं सकते कि इसके पीछे प्रकृति का एक अनूठा विज्ञान काम कर रहा है। जरा गौर करेंगे तो पाएंगे कि कभी तो हमारे नाक के बायें छिद्र से सांस आती-जाती है तो कभी दायें छिद्र से। हमें उसके महत्व का कोई भान नहीं, मगर इसके पीछे एक गहरा रहस्य छिपा है।
बायें छिद्र से चलने वाली सांस को चंद्र स्वर कहते हैं और दायें छिद्र से चलने वाली सांस को सूर्य स्वर करते हैं। चंद्र स्वर स्त्री प्रधान है एवं इसका रंग गोरा है, यह शक्ति अर्थात पार्वती का रूप है। सूर्य स्वर पुरुष प्रधान है। इसका रंग काला है। यह शिव स्वरूप है। इड़ा नाड़ी शरीर के बाईं तरफ स्थित है तथा पिंगला नाड़ी दाहिनी तरफ अर्थात इड़ा नाड़ी में चंद्र स्वर स्थित रहता है और पिंगला नाड़ी में सूर्य स्वर। सुषुम्ना मध्य में स्थित है, अत: दोनों ओर से श्वास निकले तो वह सुषम्ना स्वर कहलाएगा। मध्यमा स्वर क्रूर है। यह चलने पर हर काम के विघ्न आते हैं।
चंद्र स्वर में किए जाने वाले कार्य
विवाह, दान, मंदिर, जलाशय निर्माण, नया वस्त्र धारण करना, घर बनाना, आभूषण खरीदना, शांति अनुष्ठान कर्म, व्यापार, बीज बोना, दूर प्रदेशों की यात्रा, विद्यारंभ, धर्म, यज्ञ, दीक्षा, मंत्र, योग क्रिया आदि कार्य आदि चंद्र स्वर के चलते करने चाहिए। इसी प्रकार पानी, चाय, काफी आदि पेय पदार्थ पीने, पेशाब करने आदि में बांया स्वर होना चाहिए।
सूर्य स्वर में किए जाने वाले कार्य
उत्तेजना, आवेश और जोश के साथ करने पर जो कार्य ठीक होते हैं, उनमें सूर्य स्वर उत्तम कहा जाता है। अर्थात यदि हम ऐसे कार्य के लिए जा रहे हैं, जिसमें वाद-विवाद होना है, तो सूर्य स्वर जीत दिलवाता है। सूर्य स्वर में स्नान, भोजन, शौच, औषधि सेवन, विद्या, संगीत अभ्यास आदि कार्य सफल होते हैं। घुड़सवारी अथवा वाहन पर चढ़ते समय सूर्य स्वर बेहतर होता है।
सुषम्ना स्वर का महत्व
सुषुम्ना स्वर साक्षात् काल स्वरूप है। इसमें ध्यान, समाधि, प्रभु स्मरण भजन-कीर्तन आदि सार्थक होते हैं। सुषुम्ना स्वर में अच्छी बात का चिन्तन न करें अन्यथा वह बिगड़ जाएगी। इस समय यात्रा न करें, अन्यथा अनिष्ट होगा। इस समय सिर्फ भगवान का चिन्तन ही करें। सुषुम्ना नाड़ी मोक्ष प्राप्त करवाती है।
कुछ उपयोगी टिप्स
सुबह उठते वक्त जो भी स्वर चल रहा हो, उसी तरफ का पैर जमीन पर पहले रखें। इसके अतिरिक्त उसी तरफ के हाथ के दर्शन करें व हाथ को चूमें। उसके बाद दोनों हाथों को मिला कर दर्शन करें। स्नान के बाद जब भी कपड़े पहनें, तो जिस तरफ स्वर चल रहा हो, उस तरफ से कपड़े पहनना शुरू करें।
जब शरीर में अत्यधिक गर्मी महसूस करें, तब दाहिनी करवट लेट लें और बायां स्वर शुरू कर दें। इससे तत्काल शरीर ठंडक अनुभव करेगा। जब शरीर ज्यादा शीतलता महसूस करे तब बांयी करवट लेट लें, इससे दाहिना स्वर शुरू हो जाएगा और शरीर जल्दी गर्मी महसूस करेगा।
यदि किसी क्रोधी पुरुष के पास जाना है तो जो स्वर नहीं चल रहा है, उस पैर को आगे बढ़ाकर प्रस्थान करना चाहिए तथा अचलित स्वर की ओर उस पुरुष या महिला को लेकर बातचीत करनी चाहिए। ऐसा करने से क्रोधी व्यक्ति को शांत हो जाएगा। गुरु, मित्र, अधिकारी, राजा, मंत्री आदि से वाम स्वर से ही वार्ता करनी चाहिए।
सवाल ये उठता है कि यदि भोजन का समय हो गया हो और चंद्र स्वर चल रहा हो तो क्या करें? ऐसे में स्वर को बदलना ही होगा। यदि सूर्य स्वर चल रहा हो और चंद्र स्वर चलाना है तो दाहिनी करवट लेट जाना चाहिए। इसी प्रकार इसका विलोम भी किया जा सकता है। अनुलोम-विलोम के अतिरिक्त चल रहे स्वर नासिका को कुछ देर बंद करके भी स्वर बदल जा सकता है। जिस नथुने से श्वास नहीं आ रही हो, उससे दूसरे नथुने को दबाकर पहले नथुने से श्वास निकालें। इस तरह कुछ ही देर में स्वर परिवर्तित हो जाएगा। घी खाने से वाम स्वर और शहद खाने से दक्षिण स्वर चलना प्रारंभ हो जाता है।
इस विज्ञान में यात्रा के लिए कुछ उपयोगी जानकारी दी गई है। पूर्व तथा उत्तर दिशा में चन्द्र स्वर, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में सूर्य रहता है। दाहिना स्वर चलने पर पश्चिम या दक्षिण दिशा की यात्रा नहीं करनी चाहिए। बायें स्वर के चलते समय पूर्व तथा उत्तर दिशा की यात्रा नहीं करनी चाहिए। इससे यात्री को शत्रु का भय होता है और कभी-कभी तो यात्री घर वापस भी नहीं आता है। बायां या दाहिना कोई भी स्वर चल रहा हो और साथ ही सुषुम्ना भी चल रही हो तो मुख्य स्वर की तरफ वाला पांव आगे बढ़ा कर यात्रा करनी चाहिए। ऐसा करने से सफलता प्राप्त होती है।
आयु व मृत्यु के बारे में यह विज्ञान में विस्तार से जानकारी देता है। यदि किसी व्यक्ति का बायां स्वर लगातार चले और दाहिना स्वर बिलकुल न चले, तो समझना चाहिए कि उसकी मृत्यु एक माह में होगी। जिस व्यक्ति की आयु समाप्त हो गयी है उसे अरुन्धती, धु्रव, विष्णु के तीन चरण और मातृमंडल नहीं दिखायी पड़ते। जिह्वा को अरुन्धती, नाक के अग्र भाग को धु्रव, दोनों भौहें और उनके मध्य भाग को विष्णु के तीन चरण तथा आंखों के तारों को मातृमंडल कहते हैं। जिस व्यक्ति को अपनी भौहें न दिखें, उसकी मृत्यु नौ दिन में, सामान्य ध्वनि कानों से न सुनाई पड़े तो सात दिन में, आंखों का तारा न दिखे तो पांच दिन में, नासिका का अग्रभाग न दिखे तो तीन दिन में और जिह्वा न दिखे तो एक दिन में मृत्यु होती है। आंखों के कोनों को दबाने पर चमकते तेज बिन्दु यदि न दिखें, तो समझना चाहिए कि उस व्यक्ति की मृत्यु दस दिन में होगी।
ऐसा बताया गया है कि जो लोग चन्द्र नाड़ी से सांस अन्दर लेकर सूर्य नाड़ी से रेचन करते हैं और फिर सूर्य नाड़ी से सांस अन्दर लेकर चन्द्र नाड़ी से उसका रेचन करते हैं, वे दीर्घजीवी होते हैं। इसे ही अनुलोम-विलोम या नाड़ी-शोधक प्राणायाम कहा गया है।
ज्योतिषी भी इस विज्ञान का उपयोग करते हैं। प्रश्नकर्ता यदि अप्रवाहित स्वर की ओर से आकर प्रवाहित स्वर की ओर बैठ जाए और किसी रोग के सम्बन्ध में प्रश्न करे, तो मृत्यु शैया पर पड़ा व्यक्ति भी ठीक हो जाएगा। प्रश्नकर्ता सक्रिय स्वर की ओर से किसी रोग के विषय में प्रश्न करे, तो रोग किसी भी स्टेज पर क्यों न हो ठीक हो जाएगा। रोगी के बारे जानकारी चाहने वाला दूत प्रश्न करे तथा उस समय सूर्य स्वर प्रवाहित हो रहा हो, तो समझना चाहिए कि रोगी स्वस्थ हो जाएगा। परन्तु यदि उस समय चन्द्र स्वर प्रवाहित हो, तो समझना चाहिए कि रोगी अभी और बीमार रहेगा।
वशीकरण में भी इस विज्ञान का उपयोग किया जाता है। चूंकि हमारी व्यवस्था पुरुष प्रधान है, इस कारण इसमें स्त्री को वश में करने की विधि बताई गई है। पुरुष यदि स्त्री के प्रवाहित स्वर को अपने प्रवाहित स्वर के द्वारा ग्रहण करे और पुन: उसे स्त्री के सक्रिय स्वर में दे, तो वह स्त्री सदा उसके वश में रहती है। रजस्वला होने के पांचवें दिन यदि स्त्री का चन्द्र स्वर प्रवाहित हो और पुरुष का सूर्य स्वर प्रवाहित हो, तो समागम करने से पुत्र उत्पन्न होता है।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

क्या शगुन निर्मित करना कारगर टोटका है?

मेरे एक परिचित जब भी शहर से बाहर जाते हैं अथवा किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए घर से निकलते हैं तो उनकी माता जी घर से बाहर आ कर सिर पर जल से भरा कलश लेकर खड़ी हो जाती हैं। जैसे ही मेरे परिचित अपनी कार स्टार्ट करते हैं तो उनकी माता जी उनके सामने से गुजरती हैं। ऐसा मैने कई बार देखा है।
मेरे मन में सवाल उठता है कि क्या वाकई ऐसा टोटका करने का फल मिलता है?
वस्तुत: भारतीय परंपरा में शगुन का बड़ा महत्व है। ऐसी मान्यता है कि जब हम किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए निकलते हैं तो शव यात्रा, झाडू़ लगाती महिला सफाई कर्मचारी, पानी का घड़ा भर कर लाती महिला आदि के सामने आने को शुभ माना जाता है। अर्थात जिस कार्य के लिए हम जा रहे हैं, उसके संपन्न होने की पूरी संभावना होती है। ठीक इसके विपरीत काली बिल्ली के रास्ता काटने, विधवा महिला, धोबी या स्वर्णकार का सामना होने सहित अन्य कई दृश्य निर्मित होने को अच्छा नहीं माना जाता। ऐसे में लोग कुछ मिनट रुक कर उसके बाद में निकलते हैं। अर्थात अशुभ समय को टाला जाता है।
शुभ-अशुभ समय की बात आई तो इस पर भी चर्चा कर लेते हैं। आपको जानकारी होगी कि लोग चौघडिय़ा, दिशा शूल आदि देख कर यात्रा करते हैं। यदि शुभ चौघडिय़े में निकलने में देरी हो रही हो तो यात्रा में साथ लिया जाना वाला सामान, यथा संदूक, थैला आदि शुभ के चौघडिय़े में घर से बाहर रख देते हैं। एक तरह से यह प्रकृति को चकमा देने के समान है।
एक ओर उदाहरण देखिए। कहा जाता है कि रास्ते में अगर सामने से गधा आ जाए तो उसके बायीं हो कर गुजरना चाहिए। यह शुभ होता है। इसे भले ही सही माना जाए कि सामने से आ रहा गधा हमारे बायीं ओर से गुजरे तो इससे प्रकृति शुभ होने का संकेत दे रही है, मगर सायास गधे के बायीं ओर से गुजरना कैसे शुभ फल दायक हो सकता है?
इसी प्रकार भिन्न-भिन्न वार के दिन बाहर निकलते समय अमुक-अमुक वस्तु मुंह में रखते हैं, यथा गुड़, दही आदि। ये मान्यताएं कितनी सही हैं, इसके पीछे कौन सा विज्ञान काम करता है, इस पर अलग से बहस हो सकती है, लेकिन मेरा सवाल अलग है। वो ये कि चलो यात्रा पर निकलने के वक्त शुभ या अशुभ शगुन स्वत: निर्मित होते हैं तो इसका मतलब ये है कि प्रकृति हमें संकेत दे रही है। वहां तक ठीक है। लेकिन क्या यदि प्रकृति अपनी ओर से कोई शगुन नहीं दे रही और हम अपनी ओर से शुभ शगुन निर्मित करते हैं, क्या वाकई वह काम करता है? क्या प्रकृति की अपनी व्यवस्था में हम दखल कर सकते हैं? हो सकता है, इसका पूरा नहीं, आंशिक असर पड़ता हो। ऐसा भी हो सकता है कि चूंकि हमारे मन में धारणा है कि मेरे बाहर निकलते ही जल का कलश लिए हुए महिला सामने से आना शुभ सूचक है, इस कारण हमारे मन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता हो, जो कि हमारे की संपन्नता में मदद करती हो।
स्थितियों अथवा दृश्य के प्रति हम कितने सतर्क हैं, इसका अनुमान इन उदाहरणों से समझ सकते हैं। आपने देखा होगा कि हमारे यहां भोजन परोसते समय पहले जल पेश किया जाता है। उसके बाद भोजन की थाली। अज्ञानतावश कोई यदि भोजन की थाली एक हाथ में व दूसरे हाथ में पानी का गिलास ले कर आए या पानी का गिलास भोजन की थाली में लाए तो इसे अपशगुन माना जाता है। ज्ञातव्य है कि हमारे यहां मान्यता है कि ऐसा मृतक के लिए किया जाता है। इसी प्रकार अगर कोई मकान की चौखट पर बैठे तो उसे वहां न बैठने को कहा जाता है, क्यों कि चौखट पर बैठने से दरिद्रता आती है। इसके विपरीत तथ्य है कि जो दरिद्र हो जाता है, जिसके पास खाने को भी नहीं होता, वह चौखट पर बैठता है।
बहरहाल, मैने विषय आपके समक्ष रखा है, विद्वान या सुधिजन ही इस विषय पर बेहतर खुलासा कर सकते हैं। आप भी अपने परिचित विद्वानों से चर्चा कीजिए और संतोषजनक जवाब मिले तो शेयर जरूर कीजिए।

-तेजवानी गिरधर
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सोमवार, 13 अप्रैल 2020

कोराना जैसे वायरस से जैविक युद्ध करने का वर्णन मौजूद है पुराणों में

आज जब पूरा विश्व कोराना वायरस की महामारी से त्रस्त है, तो यकायक पूर्व में विद्वानों व वैज्ञानिकों द्वारा अगला विश्व युद्ध जैविक अस्त्रों से होने की भविष्यवाणी का ख्याल आ जाता है। कोरोना के भयंकर प्रकोप के बीच विद्वानों ने तो यह तक खोज निकाला है कि शिव पुराण में कोरोना रक्षा कवचम् का उल्लेख है। आपके अवलोकनार्थ शिव पुराण के संबंधित पृष्ठ भी प्रस्तुत है। हालांकि अभी इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा गया है कि यह महामारी प्रकृति के प्रकोप के रूप में उत्पन्न हुई या यह कोई षड्यंत्र है। बावजूद इसके चूंकि इसकी शुरुआत चीन से हुई, इस कारण इसे चाइनीज वायरस कहा जाने लगा है। कुछ लोगों का मानना है इसके पीछे चीन का साजिशाना हाथ है। महाशक्तियों की राजनीति के चलते चीन को इस साजिश के लिए दोषी तक ठहराया जा रहा है। इसमें कितनी सच्चाई है, इसके बारे में पक्के तौर पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन इस किस्म के जैविक अस्त्रों का प्रयोग पुराणों में जरूर वर्णित है। उनके नाम माहेश्वर ज्वर व वैष्णव ज्वर बताए गए हैं। ज्ञातव्य है कि कोराना वायरस की मौजूदगी का प्राथमिक लक्षण भी तीव्र ज्वर को माना गया है।
ऐसी जानकारी है कि भगवान शिव व भगवान कृष्ण के बीच जो युद्ध हुआ था, उसमें इन जैविक अस्त्रों का प्रयोग किया गया था। बताया जाता है कि कृष्ण ने असम में बाणासुर और भगवान शिव से युद्ध के समय माहेश्वर ज्वर के विरुद्ध वैष्णव ज्वर का प्रयोग कर विश्व का प्रथम जीवाणु युद्ध लड़ा था। भागवत पुराण के दसवें स्कंध में अध्याय 62 में वर्णित है कि कृष्ण के पुत्र का नाम प्रद्युम्न था और प्रद्युम्न के पुत्र का नाम अनिरुद्ध। अनिरुद्ध की पत्नी उषा थी। उषा शोणितपुर के राजा वाणासुर की कन्या थी। अनिरुद्ध और उषा आपस में प्रेम करते थे। उषा ने अनिरुद्ध का हरण कर लिया था। वाणासुर को अनिरुद्ध-उषा का प्रेम पसंद नहीं था। उसने अनिरुद्ध को बंधक बना लिया था। वाणासुर को शिव का वरदान प्राप्त था। भगवान शिव को इसके कारण श्रीकृष्ण से युद्ध करना पड़ा था। बाणासुर द्वारा अनिरूद्घ के बंदी बनाए जाने की बात श्री कृष्ण को पता लगी तो वे, बलराम तथा प्रद्युम्र गरुण पर सवार होकर बाणासुर के नगर पहुंचे, जहां उनका सामना महान महेश्वर ज्वर से हुआ, जो तीन सींग, तीन पैर वाला था, उस ज्वर का ऐसा प्रभाव था कि उसके फेंके भस्म के स्पर्श से संतप्त हुए श्री कृष्ण के शरीर का आलिंगन करने पर बलराम जी बेहोश हो गए, तब श्री हरि के शरीर में समाहित वैष्णव ज्वर ने उस महेश्वर ज्वर को बाहर निकाल दिया। श्री हरी विष्णु के प्रहार से पीडि़त उस माहेश्वर ज्वर को देख ब्रह्मा जी ने श्री कृष्ण से कहा कि इसे क्षमा प्रदान करें, तब श्री हरी ने उस वैष्णव ज्वर को अपने अंदर समाहित के लिया। यह देख माहेश्वर ज्वर बोला कि जो मनुष्य आपके साथ मेरे इस युद्ध को याद करेगा, वह तुरंत ज्वरहीन हो जाएगा, यह कह कर वह वहां से चला गया।
एक अन्य प्रसंग के अनुसार दक्ष नाम से प्रसिद्ध प्रजापति यज्ञ करने का संकल्प लेकर उसके लिये तैयारी आरम्भ कर दी। उसमें सभी देवी-देवताओं को तो आमंत्रण था, मगर शिवजी को नहीं बुलाया गया। वस्तुत: देवताओं ने पहले सभी यज्ञों में से किसी में भी उनके लिये भाग नियत नहीं किया था। इस पर उमा ने दु:ख व्यक्त किया। जिससे क्रोधित होकर शिव ने योग बल का आश्रय ले अपने भयानक सेवकों द्वारा उस यज्ञ को सहसा नष्ट करा दिया। ऐसे में वह यज्ञ मृग का रूप धारण करके आकाश की ओर ही भाग चला। भगवान् शिव ने उसका पीछा किया। भगवान शिव के क्रोध के कारण उनके ललाट से पसीने की बूंद प्रकट हुई। उस पसीने की बूंद के पृथ्वी पर गिरते ही कालाग्नि के समान विशाल अग्नि पुंज का प्रादुर्भाव हुआ। उस समय उस आग से एक नाटा-सा पुरुष उत्पन्न हुआ, जो अत्यंत भयावह था। उसने दक्ष नाम से प्रसिद्ध प्रजापति के यज्ञ को दग्ध कर दिया। तत्पश्चात् वह देवताओं तथा ऋषियों की ओर दौड़ा। देवता भयभीत हो दसों दिशाओं में भाग गये। सारे जगत में हाहाकार मच गया। इस पर ब्रह्माजी ने शिव जी से आग्रह किया कि वे अपने क्रोध को शांत करें, आज से सब देवता आपके भी यज्ञ का भाग दिया करेंगे। उन्होंने कहा कि आपके पसीने से जो यह पुरुष प्रकट हुआ है, इसका नाम होगा ज्वर। यह समस्त लोकों में विचरण करेगा। यह ज्वर जब तक एक रूप में रहेगा, तब तक यह सारी पृथ्वी इसे धारण करने में समर्थ न हो सकेगी। अत: इसे अनेक रूपों में विभक्त कर दीजिये। इस पर शिव जी प्रसन्न हुए। उन्होंने यज्ञ में भाग प्राप्त कर लिया। भगवान शिव ने ज्वर को अनेक रूपों में बांट दिया। हाथियों के मस्तक में जो ताप या पीड़ा होती है, वही उनका ज्वर है। पर्वतों का ज्वर शिलाजीत के रूप में प्रकट होता है। सर्पों का ज्वर केंचुल है। गाय-बैलों के खुरों में जो खोरक नाम वाला रोग होता है, वही उनका ज्वर है। पशुओं की दृष्टि-शक्ति का जो अवरोध होता है, वह भी उनका ज्वर ही है। घोड़ों के गले में जो मांसखण्ड बढ़ जाता है, वही उनका ज्वर है। मोरों की शिखा का निकलना ही उनके लिये ज्वर है। कोकिल का जो नेत्र रोग है, उसे ज्वर बताया है। तोतों के लिये हिचकी को ही ज्वर बताया गया है। सिंहों में थकावट का होना ही ज्वर कहलाता है। मनुष्यों में यह ज्वर के नाम से ही प्रसिद्ध है। यह यह मृत्युकाल में, जन्म के समय तथा बीच में भी मनुष्यों के शरीर में प्रवेश कर जाता है। इसी ने वृत्रासुर के शरीर में प्रवेश किया था। पीडि़त होकर जब वह जंभाई लेने लगा, उसी समय इन्द्र ने उस पर वज्र का प्रहार किया। वज्र ने उसके शरीर में घुस कर उसे चीर डाला। वह परम धाम को चला गया।

-तेजवानी गिरधर
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पूरे दिन में एक पल जिह्वा पर सरस्वती विराजमान होती है

वाणी का चमत्कार देखिए, भारतीय संस्कृति में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनमें देवता, ऋषि-मुनि, सती आदि के मुख से जो भी श्राप या वरदान निकलता है, वह अक्षरश: सत्य साबित होता है। उन पर विस्तार से विचार फिर कभी, अभी सिर्फ दो उदाहरण। ये दोनों उदाहरण अपने आप में अद्वितीय हैं।
महाराज धृतराष्ट्र की पतिव्रता धर्मपत्नी महारानी गांधारी ने अपने सौ पुत्रों के वध के लिए भगवान श्रीकृष्ण को जिम्मेदार ठहराते हुए उन्हें श्राप दिया कि जैसे कौरव वंश को उन्होंने नष्ट कर दिया, वैसे ही युद वंश का भी नाश हो जाएगा। बताते हैं कि यह श्राप पूरी तरह से सफल हुआ।
इसी प्रकार महाराजा दशरथ ने आखेट करते समय नदी किनारे पानी की कल-कल आवाज को सुन कर वहां हिरण होने व उसके पानी पीने के भ्रम में तीर चलाया और वृद्ध माता-पिता को तीर्थाटन को निकले श्रवण की उससे मौत हो गई। इस पर उनके माता-पिता ने पुत्र वियोग में दशरथ को श्राप दिया कि उनकी मृत्यु भी पुत्र वियोग में होगी। ज्ञातव्य है कि भगवान राम के चौदह वर्ष के वनवास के दौरान पुत्र वियोग में ही दशरथ का देहांत हो गया था।
खैर, अब शीर्षक में दिए गए विषय पर चर्चा करते हैं। ऐसी मान्यता है कि प्रकृति ने हर मनुष्य को भी इसी प्रकार की शक्ति प्रदान कर रखी है। लेकिन उसकी सीमा ये है कि पूरे चौबीस घंटे में केवल किसी एक पल में मनुष्य की जिव्हा पर वाणी की देवी सरस्वती विराजमान होती है। उस पल में मनुष्य के मुख से जो भी वचन निकलता है, वह सच साबित हो जाता है। यही वजह है कि हमारे यहां परंपरा है कि सामान्य बोलचाल में भी पूरी सावधानी बरती जाती है। यानि कि शब्दों का चयन सोच-समझ कर किया जाता है, कहीं कोई गलत शब्द उस पल की वजह से किसी पर फलित न हो जाए।
जैसे जब कोई दुकानदार पूरे दिन काम करने के बाद दुकान के पट बंद करता है तो यह नहीं कहता कि दुकान बंद कर दी। कहता है कि दुकान मंगल कर दी। कहीं दुकान बंद शब्द का इस्तेमाल कर दे और वाकई दुकान सदा के बंद न हो जाए। इसी प्रकार रात्रि में शयन के वक्त दीया शांत करने को यह नहीं कहते कि दीया बुझा दिया, बल्कि ये कहते हैं कि दीया बढ़ा दिया। यहां तक कि किसी को गुस्से में अपशब्द कहने के दौरान भी पूरी सावधानी बरती जाती है। अपशब्द के विलोम शब्द का उपयोग किया जाता है। जैसे किसी से कोई वस्तु टूट जाए या कोई और गलती हो जाए तो सिंधी भाषा में यह नहीं कहा जाता कि अंधो आहीं छा, बल्कि ये कहा जाता है कि सजो आहीं छा? अंधो माने अंधा व सजा माने आंख का पूरा।
यदि कोई घर से बाहर गया हुआ हो तो उसके बारे में पूछने पर पहले उसकी खैर की कामना की जाती है, तब उसका नाम लिया जाता है।
इतना ही नहीं घर में कोई वस्तु के बारे पूछने पर यह नहीं कहा जाता कि क्या अमुक वस्तु नहीं है क्या, बल्कि ये पूछा जाता है कि अमुक वस्तु है क्या? अर्थात नकारात्मकता से बचा जाता है।
इसी प्रकार किसी के घर से बाहर जाने के वक्त पीछे से ये नहीं पूछा जाता कि कहां जा रहे हो। यह अशुभ माना जाता है।
हम सब की जानकारी में है कि जब किसी अतिथि अथवा घर के ही किसी सदस्य को पानी पिलाते हैं तो यह नही कहते कि पानी दो, बल्कि ये कहते हैं कि पानी पिलाओ। वजह ये कि पानी देना शब्द का इस्तेमाल मृतक के लिए किया जाता है। वैसे प्रसंगवश यह जिक्र करना भी जरूरी है कि पानी पिलाने को किसी को परास्त करने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है।
मान्यता ये भी है कि किसी-किसी की जुबान काली होती है और उसके मुख से निकली वाणी सत्य साबित हो जाती है। जब उस व्यक्ति को भी इसका ज्ञान हो जाता है तो वह कुछ बोलने से पहले सावधानी बरतता है, ताकि किसी का अनिष्ट न हो जाए।
वाणी की सदाशयता देखिए। कई लोगों को आपने देखा होगा कि हर बात कहने के साथ यह जोड़ देते हैं कि भगवान आपको नेकी दे। वाणी के उपयोग में अतिरिक्त सावधानी का उदाहरण ये है कि जब कि कोई भगवान, देवी-देवता या गुरु से जुड़ा कोई प्रसंग बताते हैं तो कान पकड़ते हैं। इसका मतलब ये है कि कोई भूलचूक हो जाए तो अग्रिम माफी मांग ली जाए।
वाणी की महिमा अपरंपार है। एक दिलचस्प अपवाद मेरी जानकारी है, वह आपसे शेयर करता हूं। स्वामी हिरदाराम साहेब के बारे कहा जाता था कि वे अपने शिष्यों में से जिस को भी नाराज हो कर अपशब्द कहते थे, उसका सौभाग्य उदय हो जाता था। वह अपने आप को धन्य समझता था। यानि अपशब्द उसी को बोलते थे, जिसके प्रति उनका स्नेह होता था।
यह तो हुई वाणी की महिमा। ऐसी मान्यता है कि कभी-कभी दृ्रश्य या स्थिति भी फलित हो जाती है। इस कारण ऐसे अनिष्टकारी दृश्यों से बचा जाता है। जैसे उसके बारे में चर्चा फिर कभी।

-तेजवानी गिरधर
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शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

सत्यनारायण भगवान की मूल कथा कौन सी है?

हमारे यहां पूर्णिमा के दिन भगवान सत्यनारायण की कथा करने का प्रचलन है। किसी शुभारंभ के मौके पर भी यह कथा करवाई जाती है। इस कथा में पांच अध्याय होते हैं, जिनमें यह वर्णन होता है कि अमुक व्यक्ति ने कथा की तो उसे बहुुत फायदा हुआ और अमुक ने भूल से कथा नहीं की या कथा का अनादर किया तो उसका अनिष्ट हो गया। आज हम जो कथा कर रहे हैं, वह वाकई सत्यनाराण भगवान की कथा ही है, चूंकि उसमें भगवान की महिमा है, मगर सवाल ये उठता है कि पांचों अध्यायों में जिन लोगों ने कथा की वह आखिर कौन सी कथा थी? यह बिलकुल साफ है कि हम जो कथा कर रहे हैं, वह उन पांच अध्यायों में कथा करने वालों ने नहीं की थी। वह कथा कोई और ही है। वह कहां खो गई? यदि पांच अध्याय वाली कथा से हमें सुख-संपत्ति मिलती है तो मौलिक कथा का न जाने कितना लाभ होगा।
इस बारे में मैने अनेक विद्वानों व पंडितों से जानकारी चाही तो वे ये नहीं बता पाए कि वह कथा कौन सी थी।
जहां तक मुझे समझ में आता है, पांच अध्यायों में जिस कथा का उल्लेख है, वह मूलत: कोई कथा नहीं थी। वह व्रत करते हुए धार्मिक विधि विधान पूर्वक सत्यनारायण भगवान की पूजा-अर्चना व आरती थी। गलती से उसे कथा कह दिया गया है। वर्तमान में हम जिस कथा की पुस्तक का पूजा-अर्चना  के दौरान पाठ करते हैं, वह तो भिन्न-भिन्न प्रकरणों के पांच अध्यायों का संगलन मात्र है।

-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

कोरोना ने ज्योतिष को भी कर दिया ठप?

वैश्विक महामारी कोराना से जहां पूरा जनजीवन ठप सा हो गया है, मंदिरों में भगवान की पूजा तक नहीं रुक गई है, वहीं ज्योतिषीय राशिफल  को भी निष्फल कर दिया है। कहते हैं न कि समय बड़ा बलवान है, यह कहावत चरितार्थ होती दिख रही है। उसके आगे ग्रहों-नक्षत्रों का भी जोर नहीं है।
आइये ताजा राशिफल पर नजर डालते हैं:-
मेष राशि-आज आपको शासन द्वारा सम्मानित किए जाने की संभावना रहेगी। यदि आप किसी व्यक्ति, बैंक या संस्था से कर्ज लेना चाहें तो कदापि न लें, आज लिए गए कर्ज का उतरना कठिन रहेगा।
सवाल ये है कि जब किसी भी प्रकार के समारोह नहीं हो रहे तो मेष राशि वाले सम्मानित कैसे होंगे? इसी प्रकार कर्ज न लेेने की सलाह दी जा रही है। अरे भाई, अभी लोन दे कौन रहा है?
वृषभ राशि-आज रुके हुए कार्यों की पूर्ति होगी।
प्रश्र ये है कि जब सब कुछ ठप है तो रुके हुए काम पूरे होंगे कैसे?
मिथुन राशि-सामाजिक कार्यकलापों में व्यवधान उपस्थित हो सकता है।
जनाब, जब कोई भी सामाजिक कार्यकलाप हो ही नहीं रहा तो व्यवधान उत्पन्न किसमें होगा?
कर्क- आज अपनी शान शौकत के लिए धन खर्चा करेंगे, जिससे आपके शत्रु परेशान होंगे।
महाशय, जब कोई घर से ही नहीं निकल पा रहा तो वह शान शौकत पर खर्च कहां करेगा?
सिंह राशि-ससुराल पक्ष से आज नाराजगी के संकेत मिलेंगे, मधुरवाणी का प्रयोग करें, अन्यथा संबंधों में कटुता आएगी।
हां, ये राशिफल शायद सही हो, क्योंकि आपने यदि अपनी बीवी को ठीक से नहीं रखा तो उसके पीहर वाले आपसे नाराज हो सकते हैं।
कन्या राशि-व्यर्थ व्यय का योग भी है। व्यापार में धन लाभ होगा।
ये राशिफल कदाचित सही हो सकता है। जब रुपए का माल डेढ़ या दो रुपए में मिल रहा है तो ये व्यर्थ व्यय ही कहलाएगा, मगर यह राशिफल तो सभी राशि वालों पर भी फिट बैठता है। रहा सवाल व्यापार में धन लाभ को हो सकता है कि आप कोई ऐसा धंधा करते हों, जिसमें कि इन दिनों जम कर कालाबाजारी हो रही है।
तुला राशि-आपके अधिकार व संपत्ति में वृद्धि होगी। आज नए कार्यों में इनवेस्ट करना पड़े तो शुभ रहेगा।
जब सब कुछ थम सा गया है तो अधिकार व संपत्ति में वृद्धि कैसे हो जाएगी? ऐसे में जब काम ही बंद हैं तो आप इन्वेस्ट कहां करेंगे?
वृश्चिक राशि-व्यापार वृद्धि के लिए किए गए प्रयास निष्फल हो सकते हैं।
अरे भाई, जब व्यापार-धंधा ही चौपट हो गया है तो उसमें वृद्धि के प्रयास चाह कर भी कोई कैसे कर सकता है?
धनु राशि-आज आपकी विद्या-ज्ञान की वृद्धि होगी।
समझ में नहीं आता कि मौजूदा परिस्थिति में विद्या व ज्ञान कैसे बढ़ेगा?
मकर राशि-रुके कार्य पूर्ण हो जाएंगे। किसी नए कार्य में इनवेस्ट करना पड़े तो अवश्य करें, भविष्य में लाभ होगा।
ये राशिफल भी कामकाज के ठप रहते कैसे सही साबित होगा। भविष्य में लाभ तो तब मिलेगा ना, जब आप नया कार्य कर पाएंगे।
कुम्भ राशि- सांसारिक सुख भोग, नौकर-चाकरों का सुख पूर्ण रूप से मिलेगा।
भई वाह, नौकर-चाकर काम पर ही नहीं आ रहे तो सुख मिलेगा कैसे?
ये तो हुई रशिफल की बात। अब जरा इस पर विचार कीजिए कि जिन लोगों की कुंडली में इस लॉक डाउन के दिनों के दौरान एक्सीडेंट का योग था, वह भी काल के प्रभाव से टल गया है। जब लोग बाहर निकल ही नहीं रहे तो एक्सीडेंट होगा कैसे?
एक और दिलचस्प बात ये है कि जरा गौर करेंगे तो पाएंगे कि इस काल में रूटीन में मरने वालों की संख्या में भी कमी आई है। यकीन न हो तो श्मशान जा कर देख लें। ऐसा लगता है कि यमदूत भी लॉक डाउन के कारण अपने घर से बाहर नहीं निकल रहे।
मेरी तो छोटी बुद्धि है, इसकी असली विवेचना तो कोई पंडित जी ही कर सकते हैं।

-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

33 करोड़ न सही, अनगिनत तो जरूर हैं देवी-देवता

आम तौर पर कहा जाता है कि हिंदुओं के 33 करोड़ देवी देवता हैं। यह 33 करोड़ का आंकड़ा वस्तुत: ऋग्वेद से आया है। उसमें 33 कोटि देवता बताए गए हैं। कोटि का एक अर्थ करोड़ है तो दूसरा अर्थ प्रकार होता है। चूंकि आम जन मानस ने पहले वाले अर्थ को आत्मसात कर लिया, इस कारण वह मान कर बैठा है कि देवी-देवता 33 करोड़ होते हैं। चूंकि 33 करोड़ की गिनती करना संभव नहीं है, अर्थात सूची बना कर नहीं बताया जा सकता कि उनके नाम क्या हैं तो इस आंकड़े की सत्यता पर सवालिया निशान बन गया। बाद में विद्वानों ने इस शंका का समाधान यह कह कर किया कि कोटि का दूसरा अर्थ अर्थात प्रकार ही सही है और बाकायदा 33 प्रकार के देवताओं की गितनी करके दिखा दी। अब वे जोर दे कर कहने लगे हैं कि हिंदू समाज 33 करोड़ की मान्यता को छोड़ कर 33 करोड़ को स्वीकार करे।
33 करोड़ व 33 प्रकार की इस मतभिन्नता में पहले हम 33 प्रकार के देवी-देवताओं पर विचार करते हैं। देवताओं की इन 33 कोटि में आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इंद्र और प्रजापति शामिल हैं। 8 वसुओं में आप, धुव्र, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभाष शामिल हैं। वसु का अर्थ ये है कि हमें वसाने वाली आत्मा का जहां वास होता है। इनके नाम धरती, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चंद्रमा, सूर्य और नक्षत्र भी गिनाए जाते हैं। 12 आदित्य में अंशुमान, आर्यमन, इंद्र, त्वष्टा, धातु, पर्जन्य, पूषा, भग, मित्र, वरुण, वैवस्त और विष्णु हैं। इसकी इस रूप में भी व्याख्या की गई है:-आदित्य सूर्य को कहते हैं। 12 माह को 12 आदित्य कहते हैं। इन्हें आदित्य इसलिए कहते हैं क्योंकि यह हमारी आयु को हरते हैं। 11 रुद्र में मनु, मन्यु, शिव, महत, ऋतुध्वज, महिनस, उम्रतेरस, काल, वामदेव, भव और धृत ध्वज शामिल हैं। 11 रुद्र के नाम शम्भु, पिनाकी, गिरीश, स्थाणु, भर्ग, भव, सदाशिव, शिव, हर, शर्व और कपाली भी बताए गए हैं। इन्हें प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कुर्म, किरकल, देवदत्त और धनंजय आदि के नाम से भी जाना जाता है। पहले पांच प्राण व दूसरे पांच उपप्राण हैं तथां 11वां जीवात्मा हैं। ये 11 जब शरीर से निकल जाते हैं तो शरीर शव हो जाता है कि सगे-संबंधी रोने लग जाते हैं। इसीलिए इन्हें कहते हैं रुद्र, अर्थात रुलाने वाला। 2 अश्विनी में एक अश्विनी तथा दूसरे कुमार। हैं। इन्हें नासत्य और द्स्त्र। भी कहा गया है। कुछ विद्वान इन्द्र और प्रजापति की जगह 2 अश्विनी कुमारों को रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं। कुल मिला कर इस तरह से 33 प्रकार के देवी-देवता गिनाए गए हैं।
अपने तर्क के पक्ष में वे ये तर्क देते हैं कि वेदों में जिन देवताओं का उल्लेख किया गया है, उनमें से अधिकतर प्राकृतिक शक्तियों के नाम है, जिन्हें देव कह कर संबोधित किया गया है। दरअसल वे देव नहीं है। उक्त प्राकृतिक शक्तियों को मुख्यत: आदित्य समूह, वसु समूह, रुद्र समूह, मरुतगण समूह, प्रजापति समूह आदि समूहों में बांटा गया है। चूंकि वैदिक ऋषि इन प्राकृतिक शक्तियों की स्तुति करते हैं और साथ ही अपने किसी महान पुरुष की तुलना उनसे करते हुए उनकी भी देव मान कर स्तुति करते हैं, इस कारण 33 करोड़ के आंकड़े की भ्रांति उत्पन्न होती है। वैदिक विद्वानों के अनुसार 33 प्रकार के अव्यय या पदार्थ होते हैं, जिन्हें देवों की संज्ञा दी गई है। उन अव्यवों से ही प्रकृति और जीवन का संचालन होता है।
आइये, अब सिक्के के दूसरे पहलु पर विचार करते हैं। बताते हैं कि स्वामी विवेकानंद के एक कथित कथन में कहा गया है कि देश के सभी 33 करोड़ देशवासियों को देवता मानकर निस्वार्थ भाव से मानवता और देश की सेवा करनी चाहिए। कदाचित इसी को कोटि के करोड़ वाले अर्थ से जोड़ कर मान लिया गया कि 33 करोड़ देवी देवता होते हैं।
यह मान भी लिया जाए कि 33 कोटि का अर्थ 33 प्रकार है। इसका अर्थ ये है कि देवता तो अधिक, मगर उन्हें 33 प्रकारों में बांटा गया है। अब कुछ कितने हैं, इसका कोई हिसाब नहीं। हमारे यहां प्रत्येक तिथि पर किसी न किसी देवी-देवता की पूजा की जाती है। इनकी गिनती करना कठिन है।  अब देखिए न, अकेले आदि शक्ति देवी के ही नौ रूप हैं। सृष्टि के संहारकर्ता के भी अनेक रूप हैं, अवतार हैं। भगवान विष्णु अब तक 10 अवतार ले चुके हैं। उनकी तरह कितने ही देवी-देवताओं के अवतार और रूप हैं।
एक तर्क ये है कि देव योनि में मात्र 33 देव ही नहीं। इनके अतिरिक्त मणिभद्र आदि अनेक यक्ष, चित्ररथ, तुम्बुरु, आदि गंधर्व, उर्वशी, रम्भा आदि अप्सराएं, अर्यमा आदि पितृगण, वशिष्ठ आदि सप्तर्षि, दक्ष, कश्यप आदि प्रजापति, वासुकि आदि नाग, इस प्रकार और भी कई जातियां देवों में होती हैं। अन्य कई देवदूत हैं, जिनके अलग-अलग कार्य हैं। देवताओं के 49 सैनिकों को मरुतगण कहा गया है, कदाचित इन्हें भी देवता मान लिया गया है। हमारे यहां तो कुल देवी-देवता, गुरु तथा पूर्वजों तक को देवता के समान पूजा जाता रहा है। ऐसे में यह कहना कठिन है कि आखिर देवी-देवता कितने हैं।

-तेजवानी गिरधर
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सोमवार, 6 अप्रैल 2020

क्यों जरूरी है इष्ट देवता?

यह सर्वविदित है कि इस्लाम एकेश्वरवाद के तहत केवल खुदा में ही यकीन रखता है। हिंदू दर्शन में भी एके साधे, सब सधे की मान्यता है, मगर  बहुदेववाद चलन में है। हिंदू मान्यता के अनुसार देवी-देवता तैंतीस करोड़ हैं। उनमें वे प्रचलित देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना किया करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण, भगवान राम, विष्णु, ब्रह्मा, महेश के अतिरिक्त दुर्गा, सरस्वती, हनुमान, गणेश सहित अनेक देवी-देवताओं के साथ लोक देवता यथा बाबा रामदेव, तेजाजी महाराज, भैरों जी महाराज आदि की आराधना की जाती है। इसी प्रकार ग्राम देवता, कुल देवता भी होते हैं। जिस देवी-देवता के प्रति निजी आस्था होती है, उसे इष्ट देवता कहते हैं।
इष्ट देवता क्या है, हमारा इष्ट देवता कौन होना चाहिए, इस विषय पर चर्चा से पहले एक प्रचलित कहानी की बात करते हैं। कहते हैं कि एक बार एक नाव में एक हिंदू व एक मुसलमान सवार थे। अचानक तूफान आया। दोनों अपने-अपने भगवान को याद करने लगे। मुसलमान ने केवल खुदा को ही याद किया, तो वह बच गया। हिंदू ने कभी हनुमान जी को याद किया तो कभी दुगा मां को पुकारा, कभी गणेश जी का स्मरण किया तो कभी श्रीकृष्ण को और वह डूब गया। यह कहानी बहुदेववाद पर तंज कसती है। कहानी का प्रयोजन ये है कि सफलता के लिए एकनिष्ट होना चाहिए। एकनिष्ट होने से एकाग्रता बढ़ती है, जबकि भिन्न देवी-देवताओं को एक साथ इष्टदेव मान लेने से एकाग्रता भंग होती है। भले ही कोई देवी या देवता सर्वशक्तिमान भगवान या ईश्वर नहीं हैं, मगर वे भगवान की ही शक्ति से संचालित हैं। देवता भिन्न-भिन्न है और उनकी प्रकृति भी अलग-अलग है, मगर उनमें मौजूद शक्ति एक ही है। जैसे दीपक, मोमबत्ती, चूल्हा, यज्ञ आदि में स्थित अग्रि एक ही है। भिन्न-भिन्न देवी-देवता की आराधना का अलग-अलग फल है, मगर मनुष्य को इष्ट देव का सर्व प्रथम व सर्वाधिक ध्यान करना चाहिए। जब भी विपत्ति आए तो केवल इष्ट देव का ही ध्यान करना चाहिए। जैसे कहते हैं न कि जीवन में गुरु होना जरूरी है, वैसे ही इष्ट भी उतना ही जरूरी है।
आइये, जरा विस्तार में जाते हैं। हर इंसान किसी एक देवी या देवता की ओर सबसे ज्यादा आकर्षित होता है और वही देवी या देवता उसका इष्ट देव होता है। कुछ लोग इष्ट देव या देवी का निर्धारण कुंडली में अंकित जन्म नक्षत्र के आधार पर करते हैं, जबकि कुछ की मान्यता ये है कि इष्ट देव का संबंध ग्रह-नक्षत्रों से नहीं होता। वे मानते हैं कि इष्ट देव पिछले जन्मों के संस्कारों से तय होता है। वस्तुत: जो देव स्वत: पसंद हो, वही इष्ट देव होता है। इस बारे में ज्योतिष कहता है कि आपका जन्म जिस नक्षत्र में होता है, उसी के देवता आपको आकर्षित करते हैं।
जो लोग मानते हैं कि ज्योतिष हमारे इष्ट देव का निर्धारण करता है, उनके अनुसार आप अपनी जन्म तारीख, जन्म दिन, बोलते नाम की राशि या अपनी जन्म कुंडली की लग्न राशि के अनुसार जान सकते हैं। जिनका जन्म जनवरी या नवंबर माह में हुआ हो वे शिव या गणेश की पूजा करें। फरवरी में जन्मे शिव की उपासना करें। मार्च व दिसंबर में जन्मे व्यक्ति विष्णु की साधना करें। अप्रेल, सितंबर, अक्टूबर में जन्मे व्यक्ति गणेशजी की पूजा करें। मई व जून माह में जन्मे व्यक्ति मां भगवती की पूजा करें। जुलाई माह में जन्मे व्यक्ति विष्णु व गणेश का घ्यान करें।
जिनको वार का पता हो, परंतु समय का पता न हो, तो वार के अनुसार इष्ट देव इस प्रकार होंगे- रविवार- विष्णु, सोमवार- शिवजी, मंगलवार- हनुमान जी, बुधवार- गणेश जी, गुरुवार- शिव जी, शुक्रवार- देवी, शनिवार- भैरव जी।
इसी प्रकार पंचम स्थान में स्थित राशि के आधार पर आपके इष्ट देव इस प्रकार होंगे- मेष:- सूर्य या विष्णु जी की आराधना करें। वृष:-गणेशजी। मिथुन:- सरस्वती, तारा, लक्ष्मी। कर्क:- हनुमानजी। सिंह:- शिवजी। कन्या:- भैरव, हनुमान जी, काली। तुला:- भैरव, हनुमान जी, काली। वृश्चिक:- शिवजी, धनु:- हनुमान जी। मकर:- सरस्वती, तारा, लक्ष्मी। कुंभ:- गणेश जी, मीन:- दुर्गा, राधा, सीता या कोई देवी।
जिनको जन्म समय ज्ञात हो, उनके लिए जन्म कुंडली के पंचम स्थान से पूर्व जन्म के संचित कर्म, ज्ञान, बुद्धि, शिक्षा, धर्म व इष्ट का बोध होता है। अरुण संहिता के अनुसार व्यक्ति के पूर्व जन्म में किए गए कर्म के आधार पर ग्रह या देवता भाव विशेष में स्थित होकर अपना शुभाशुभ फल देते हैं। पंचम स्थान में स्थित ग्रहों या ग्रह की दृष्टि के आधार पर आपके इष्ट देव तय होते हैं। सूर्य:- विष्णु, चंद्रमा:- राधा, पार्वती, शिव, दुर्गा, मंगल- हनुमानजी, कार्तिकेय, बुध- गणेश, विष्णु, गुरू- शिव, शुक्र- लक्ष्मी, तारा, सरस्वती। शनि- भैरव, काली।
जन्मकुंडली के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के इष्ट देवी या देवता निश्चित होते हैं। यदि उन्हें जान लिया जाए तो कितने भी प्रतिकूल ग्रह हो, आसानी से उनके दुष्प्रभावों से रक्षा की जा सकती है।
लग्न के अतिरिक्त पंचम व नवम भाव के स्वामी ग्रहों के अनुसार देवी-देवताओं का ध्यान पूजन भी सुख-सौहार्द्र बढ़ाने वाला होता है। इष्ट देव की पूजा करने के साथ रोज एक या दो माला मंत्र जाप करना चमत्कारिक फल दे सकता है और आपकी संकटों से रक्षा कर सकता है। ज्योतिष में इस बात का भी उल्लेख है कि कई बार स्वभाव व समय परिवर्तन के साथ इष्ट देवता भी बदल जाता है।
विषय को थोड़ा आगे बढ़ाते हुए यह जानने की कोशिश करते हैं कि जीवन में आने वाली समस्याओं के निवारण के लिए शास्त्रों में किन-किन ग्रहों की उपासना करने को कहा गया है। मानसिक समस्याओं के लिए शिवजी की उपासना, शारीरिक दर्द और चोट की समस्या के लिए हनुमान जी, शीघ्र विवाह के लिए पुरुष मां दुर्गा व स्त्रियां भगवान शिव की, बाधाओं के नाश के लिए भगवान गणेश की पूजा करें, धन के लिए मां लक्ष्मी की, विद्या अध्ययन के लिए सरस्वति, मोक्ष या आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए श्रीकृष्ण या महादेव की उपासना करें। 
ऐसी भी मान्यता है कि भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं की हमारे प्रति अनुकूलता व प्रतिकूलता भी होती है। जैसे यदि हम मोटापे से ग्रस्त हैं और निरंतर लक्ष्मी की ही पूजा करते हैं तो स्वास्थ्य बिगड़ सकता है। इसी प्रकार यदि काम-क्रोध-उत्तेजना अधिक है और आप काली माता या भैरव जी की पूजा कर रहे है, आप कलह -झगड़े -राजदंड और अकाल मृत्यु को आमंत्रित कर रहे है, आपको तो शिव की पूजा करनी चाहिए। इसी प्रकार सरस्वती की पूजा भावुक व्यक्तियों के लिए उचित नहीं है। चंचल प्रकृति के व्यक्ति दुर्गा जी की पूजा करेंगे तो उनकी संदेवनशीलता और बढ़ जाएगी और शांति समाप्त हो जाएगी।
तर्क ये है कि यदि सभी देवी-देवता सभी के लिए उपयुक्त होते तो उनमे इतनी विभिन्नता क्यों होती। आप किसी भी देवी-देवता की पूजा कर रहे है तो इसका मतलब है कि आप उस देवी-देवता को आप अपने शरीर में बुला रहे हैं। जिस तत्व की अधिकता है, उसी के देवी-देवता को बुलाने पर शरीर का शक्ति संतुलन बिगड़ सकता है।

-तेजवानी गिरधर
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शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

ज्योतिषियों की भविष्यवाणी मुझ पर फलित क्यों नहीं होती?

हालांकि ज्योतिष के माध्यम से भविष्य जानने में मेरी कोई रुचि नहीं रही, मगर कुछ काल तक उतार-चढ़ाव अधिक होने पर इच्छा हुई कि मेरे भविष्य के बारे में जानकारी हासिल करूं। इस सिलसिले में चार-पांच ज्योतिषियों से संपर्क साधा तो उनमें से सभी ने यही कहा कि आगामी कुछ माह में आपके सितारे बुलंदी पर होंगे। लोकप्रियता शिखर पर होगी। मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं। उसकी वजह क्या रही, मुझे आज तक समझ में नहीं अया।
भविष्य जानने की इस यात्रा में सबसे पहले मेरे एक सहयोगी की चचेरी बहिन, जो कि कुंडली, टैरो व तंत्र-मंत्र की गहरी जानकार हैं, उनसे मिला। उन्होंने कुछ तांत्रिक उपाय बताए, जो कि वाकई सौ फीसदी कारगर रहे। कुछ दिन बाद उन्होंने बताया कि यदि आपकी कुंडली सही है तो आपके गर्दिश के दिन समाप्त हो जाएंगे और आपकी प्रसिद्धि चरम पर होगी।  जब यह भविष्यवाणी असत्य साबित हुई तो उन्होंने अपने गुरू से मिलवाया। उन्होंने भी यही कहा कि जल्द ही आप इतने ऊंचे ओहदे पर पहुंचने वाले हैं कि हमें आपसे मिलने के लिए अपॉइंटमेंट लेना होगा। वह भविष्यवाणी भी फलित नहीं हुई। इसके बाद मेरे एक वरिष्ठ साथी पत्रकार मुझे केकड़ी के पास एक गांव में ले गए। वहां जिन ज्योतिषी से मिलवाया, वे करीब 90 साल के थे और विशेष रूप से अंक ज्योतिष व कुंडली के जानकार थे। जैसे ही हमने उनकी बैठक में प्रवेश किया, उन्होंने हमारे आने का समय नोट कर लिया। जब हमारा नंबर आया तो उन्होंने कहा कि क्या कुंडली ले कर आए हो। मैने कहा कि हां, ओर मैने कुंडली उनके हाथ में थमा दी। उन्होंने कुंडली को बिना देखे ही साइड में रख दिया। फिर मेरे चेहरे की ओर देखने लगे व मारवाड़ी भाषा में कुछ दोहे बुदबुदाते हुए आसमान में ही काल्पनिक कुंडली बनाने लगे। उन्होंने विभिन्न ग्रहों को अलग-अलग खाने में बैठने का आदेश दिया। तत्पश्चात कागज पर कुंडली बनाई व मेरे द्वारा लाई गई कुंडली से मिलान करके दिखाया। कुंडल हूबहू मेल खा रही थी। उन्होंने मेरे परिवार व शिक्षा आदि की जानकारी दी, वह भी शत प्रतिशत सही थी। इसके बाद मारवाड़ी में बोले- अठे क्यूं आयो। थने कठे ही जाबा की जरूरत कोनी। थारा ठंका बोलवा वाला है। खूब नाम होसी। कोई उपाय भी करबा की जरूरत कोनी। यह भविष्यवाणी भी असफल हुई।
इसके बाद संयोग से एक अध्ययनशील ज्योतिषी मेरे घर आए। उनसे मैने पूछा कि आखिर क्या वजह है कि सारी भविष्यवाणियां झूठी निकल रही हैं। क्या कुंडली में कोई गड़बड़ है या फिर कुंडली का जो विज्ञान है, उसकी कोई सीमा है। उन्होंने बताया कि यह सही है कि कुंडली में जीवन के सारे भावों की गणना होती है, उसके बाद भी कुछ छूट जाता है। पकड़ से बाहर रह जाता है। विशेष रूप कुल देवी अथवा पूर्वजों की नाराजगी को हम नहीं समझ पाते हैं।
एक अन्य ज्योतिषी ने कहा कि वे सटीक भविष्यवाणी कर सकते हैं, मगर कुंडली सही बनी हुई होनी चाहिए। उन्होंने इस सिलसिले में भीलवाड़ा के एक ज्योतिषी से मिलने को कहा, जो कि सटीक जन्म समय बता देते हैं। मैने उनसे मुलाकात की तो चकित रह गया। उन्होंने मेरी ओर देखा व केल्कूलेटर पर बड़ी तेजी से गणना शुरू कर दी। मेरे पिता व दादा का नाम बता दिया। परिवार के बारे में भी पूरी जानकारी दी। फिर मेरा जन्म दिन व जन्म समय भी बता दिया। कुंडली से मिलान करने पर वही समय उस पर अंकित था। उन्होंने भी शानदार समय आने की भविष्यवाणी की और कहा कि उनकी नब्बे फीसदी बातें सही साबित होंगी। केवल एक प्रतिशत त्रुटि रह सकती है।
खैर, उसके बाद मैने किसी भी ज्योतिषी से संपर्क नहीं किया। ये सोचा कि शायद यही एक प्रतिशत है, जो कि कुंडली में पकड़ में नहीं आता।
यह ब्लॉग लिखने का मात्र इतना मकसद है कि अगर कोई ज्योतिषी  उस एक प्रतिशत की भी गणना करना जानता हो तो कृपया मुझे जानकारी दीजिए।

-तेजवानी गिरधर
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सदा अधिकारी के बायीं ओर खड़े होइये, काम सिद्ध होगा

बताया जाता है कि सामुद्रिक शास्त्र में कहा गया है कि अगर आपको किसी अधिकारी या किसी ओर से भी कोई काम हो तो उसके बायीं ओर खड़े हो कर अपनी बात कहिये, वह आसानी से आपकी बात मान जाएगा। इसके पीछे तर्क ये दिया जाता है कि बायीं ओर हृदय होता है। हृदय अर्थात दिल, जो कि संवेदना का केन्द्र है। वाम अंग पर चंद्रमा का प्रभाव होता है। जब हम बायीं ओर खड़े हो कर उससे कोई मांग रखते हैं तो वह संवेदनापूर्वक हमारी बात मान जाता है। अर्थात दायीं ओर की तुलना में बायीं ओर खड़े होने पर काम सिद्ध होने की संभावना अधिक रहती है। इसलिए जब भी किसी अधिकारी के पास जाएं तो कोशिश करके उसके बायीं ओर खड़े होइये। मैने स्वयं इसे आजमाया है। मुझे तो यह तथ्य सही लगा। मैं गलत भी हो सकता हूं, अत: आप स्वयं आजमाइये। संभव है, हम इस तथ्य की बारीकी को न समझ पाएं, मगर बायीं ओर खडे होने में हर्ज ही क्या है? क्या पता तथ्य सही हो। अगर विद्वानों ने बताया है तो कोई तो राज होगा।

-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

इसलिए बदल गई भूखे को भोजन देने की आस्था

कमल गर्ग
इसे क्या कहेंगे, मैं और मेरी बड़ी बहन इंदौर से अजमेर ट्रेन से आ रहे थे। यह लगभग 40 साल पुरानी बात है। ट्रेन के सफर में 15 घंटे लगभग लगते थे। हमारी बहन ने अपने साथ इंदौर से खाना ले लिया था, जिसमे पराठे,  आलू की सब्जी एवं आचार था। खाने के टाइम पर उन्होंने जैसे ही खाना मुझे देना शुरू किया, एक भिखारी चाय के लिए पैसे मांगने लगा। हमारी बहन ने उसे दो पराठे और आलू की सब्जी उसे दे दी। उससे बोला, हम खाना खा रहे हैं, आप भी खाना खा लो। वह भिखारी कुछ नहीं बोल कर परांठे लेकर आगे सरक गया और उसी दौरान ट्रेन रुकी और प्लेटफार्म आया तो वह उस पर उतर गया। मैं भी पानी के लिए बर्तन लेकर उतरने लगा तो मैंने देखा की उस भिखारी ने उसको दिए पराठे और सब्जी उतरते समय दरवाजे के पास रख दी थी। मैंने यह सब बात अपनी बहन को बताई और मुझे लगा कि लोग भीख पैसे के लिए मांगते हैं, खाने के लिए नहीं। भूखे को अपने खाने से पहले खाना खिलाने का उद्देश्य किस तरह से अविश्वास में बदल गया। उसका यह एक  उदाहरण है। जरूर वह भिखारी शाम की दारू के पैसे इक्कठा करता होगा?
-कमल गर्ग, अजमेर

सुपरिचित वरिष्ठ बुद्धिजीवी श्री कमल गर्ग की यह प्रतिक्रिया मेरे एक ब्लॉग पर आई है, जो दान के विषय में था और उसका शीर्षक था- चोरी होना भी दान का एक रूप है? चूंकि उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया ब्लॉग पर जा कर नहीं दी है और वाटृस ऐप पर दी है, इस कारण अलग से ब्लॉग लिखा है।
ब्लॉग पढऩे के लिए इस लिंक पर क्लिक कीजिए:-


-तेजवानी गिरधर
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बाल विवाह प्रतिबंध कानून बनवाने वाले शारदा खुद शिकार थे बाल विवाह के

यह सर्वविदित है कि बाल विवाह की रोकथाम के लिए सरकार हर साल कई उपाय करती है। प्रशासन की सख्ती से बाल विवाह रुकते भी है, बावजूद इसके अब भी गुपचुप तरीके से सामूहिक बाल विवाह होने के समाचार यदाकदा सुनाई देते हैं। अजमेर के लिए यह बड़े गौरव की बात है कि बाल विवाह प्रथा रोकने के लिए बने कानून शारदा एक्ट का श्रेय अजमेर के दीवान रायबहादुर हरविलास शारदा के खाते में दर्ज है, मगर यह उतना ही दिलचस्प है कि वे खुद बाल विवाह की चपेट में आए थे।
इतिहास में दर्ज यह तथ्य कई साल पहले दैनिक भास्कर में वरिष्ठ पत्रकार श्री सुरेश कासलीवाल ने उजागर किया था। अपनी स्टोरी में उन्होंने खुलासा किया था कि शारदा की पहली शादी मात्र साढ़े नौ साल की उम्र में 16 नवंबर 1876 को श्री लालचंद की पुत्री काजीबाई के साथ हुई थी। कम उम्र में ही काजीबाई का निधन हो गया। इस पर उन्होंने 1889 में दूसरी शादी की, मगर दूसरी पत्नी की भी कुछ समय बाद निधन हो गया। इस पर उन्होंने 1901 में तीसरी शादी की। उन्होंने अपनी पुस्तक री कलेक्शंस एंड रेमीनीसेंसेज में लिखा कि कम उम्र में ही शादी हो जाने के कारण लड़कियों की कम उम्र में ही मृत्यु हो जाती है क्यों कि वे शारीरिक रूप से परिपक्व नहीं हो पातीं।
कुछ वर्ष पहले राजस्थान पत्रिका ने इस विषय पर काम किया और वे शारदा के प्रपौत्र की बहू ममता शारदा का साक्षात्कार लेने में कामयाब हो गया। ममता शारदा ने बताया कि हरबिलास शारदा शुरुआत से समाज सुधार के लिए प्रयासरत थे। उनकी पत्नी पार्वती गांव की थी। इसलिए उनका गांव में आना-जाना लगा रहता था गांव में बालक बालिकाओं की कम उम्र में शादी को देखते हुए उन्होंने कुछ करने की ठान ली। उन्होंने कई पुस्तकों का अध्ययन कर वैज्ञानिक आधार पर शारीरिक और मानसिक रूप से परिपक्वता की उम्र के अनुसार विवाह का एक प्रस्ताव बनाया। वे इसे लेकर तत्कालीन ब्रिटिश अधिकारियों के पास गए। ब्रिटिश अधिकारियों को वह प्रस्ताव बहुत पसंद आया। तत्कालीन ब्रिटिश भारत में 1 अक्टूबर 1929 को को शारदा एक्ट पारित किया गया। एक अप्रैल 1930 को यह कानून लागू हो गया। इसके बाद बाल विवाह एक अपराध की श्रेणी में आ गया। इसके बाद लड़की की 18 वर्ष एवं लड़के के विवाह की आयु 21 वर्ष रखी गई। हरविलास शारदा ने अभियान चलाकर बाल विवाह का विरोध किया। तब की ब्रिटिश सरकार ने भी उनका सहयोग किया। साथ ही एक्ट को लागू करने में सख्ती दिखाई । इस दौरान उन्हें कई बार विरोध भी झेलना पड़ा। समाज सुधार के इस विशेष प्रयास के लिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें दीवान रायबहादुर की उपाधि प्रदान की। साथ ही समय पर कहीं अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया।
हरविलास शारदा का जन्म 3 जून, 1867 को राजस्थान के अजमेर शहर में हुआ था। उनके पिता धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे, जिसका प्रभाव उनके जीवन पर पड़ा। उन्होंने आगरा कॉलेज से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। शिक्षा पूरी करने के बाद वे अदालत में अनुवादक के पद पर कार्य करने लगे। वे राजस्थान में जैसलमेर के राजा के अभिभावक रहे और 1902 में अमजेर के कमिश्नर के कार्यालय में 'वर्नाक्यूलर सुपरिटेंडेटÓ के पद पर कार्य किया। रजिस्ट्रार, सब जज और अजमेर-मारवाड़ के स्थानापन्न जज के रूप में काम करने के बाद 1924 में वे इस सेवा से निवृत्त हुए।
हरविलास शारदा ने आजादी के दौरान भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के लिए काफी संघर्ष किया। उन्होंने स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित 'परोपकारिणी सभाÓ के सचिव के रूप में कार्य किया और लाहौर में हुए 'इंडियन नेशनल सोशल सम्मेलनÓ की अध्यक्षता की।
वर्ष 1924 में हरविलास शारदा अजमेर-मेरवाडा से केंद्रीय विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। वह पुन: इस क्षेत्र से 1930 में निर्वाचित हुए थे। किया था। शारदा ने अपने जीवन में लेखन का कार्य भी किया था। उनका सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ-'हिंदू सुपीरियॉरिटीÓ है। हरविलास शारदा का 20 जनवरी, 1952 को निधन हो गया।

-तेजवानी गिरधर
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चोरी होना भी दान का एक रूप है?

सुना है कि चोरी होना भी दान का एक रूप है। अर्थात जब हमारी कोई वस्तु चोरी हो जाती है तो उसका वैसा ही महत्व है, जैसा कि अपनी ओर से किसी वस्तु का दान करना। इस सिलसिले में एक कहानी भी सुनी है। हुआ यूं कि एक बार एक ठेले वाले से नजर चुरा कर एक ग्राहक दो आम अपनी थैली में रख रहा था। उसे दूसरे ग्राहक ने देख लिया। वह चिल्लाया- अरे देखो, तुम्हारे ठेले से अमुक व्यक्ति आम चुरा रहा है। इस पर ठेले वाला नाराज हो कर बोला कि तुम्हारा क्या मतलब, तुम अपना काम करो। तुम मुझे मिलने वाले पुण्य में बाधा क्यों डाल रहे हो? मेरे यहां से भले ही आम चोरी हो रहे हैं, मगर असल में यह भी दान का ही रूप है। गुप्त दान। जिसका फल मुझे बाद में मिलेगा। शायद इसी वजह से चोरी या कोई नुकसान होने पर मन को यह तसल्ली देने का कहा जाता है कि मलाल न करो, जो वस्तु चली गई, वह या तो आपकी थी नहीं, या फिर वह दान के रूप में चली गई है।
असल में दान प्रकृति की आदान-प्रदान, लेन-देन, क्रिया-प्रतिक्रिया की व्यवस्था का ही रूप प्रतीत होता है। जैसे कोई वस्तु किसी स्थान से कहीं और जाएगी तो वह जो अंतराल उत्पन्न हुआ है, उसे प्रकृति किसी न किसी रूप में भर देती है। दान का सिद्धांत इसी व्यवस्था का आधार है। जब भी हम किसी को कोई वस्तु दान में देते हैं तो बाद में पलट कर वापस मिलती है। कब और कैसे, पता नहीं। प्रकृति की अपनी व्यवस्था है, जिसे समझना व जानना संभव नहीं है। कर्म का सिद्धांत भी तो ऐसा ही है। हम अच्छा कर्म करते हैं तो बाद में उसका फल भी अच्छा मिलता है। बुरे कर्म का बुरा फल।  इसी सूत्र से जुड़ी एक उक्ति आपने सुनी होगी कि बोये पेड़ बबूल का, आम कहां से होय।
दान के कई प्रकार हैं। अन्नदान, वस्त्रदान, विद्यादान, अभयदान और धनदान। इसी क्रम में रक्तदान, किडनी दान, मृत्योपरांत नेत्रदान व संपूर्ण शरीर का दान आदि आते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि दान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है। इतना ही नहीं दान की प्रवृत्ति से सांसारिक आसक्ति यानी मोह माया से छुटकारा मिलता है। हवन-यज्ञ में अग्नि देवता को विभिन्न वस्तुओं की आहुति देने का भी अपना विधान है।
ज्योतिष के अनुसार दान करने से ग्रहों की पीड़ा से भी मुक्ति पाना आसान हो जाता है। अलग-अलग वस्तुओं के दान से अलग-अलग समस्याएं दूर होती हैं। ज्योतिष में तो इस पर पूरा विधान बना हुआ है कि अमुक वस्तु के दान को कब करने से क्या फल मिलता है। यहां तक बताया गया है कि उसी स्तर के कपड़ों का दान करें, जिस स्तर के कपड़े आप पहनते हैं। फटे-पुराने वस्त्रों का दान कभी न करें। ये भी बताया गया है कि मृत्यु आसान हो, इसके लिए दान किया जाता है। यही कारण है कि हमारे यहां मृत्यु शैया पर पड़े व्यक्ति के हाथों से दान करवाया जाता है, ताकि उसकी सद्गति हो। हमारे यहां मकर संक्रांति जैसी तिथियों पर दान करने की परंपरा है। और तो और अपनी बेटी का विवाह करने को कन्यादान कहा गया है, जिसका बड़ा महत्व बताया गया है। कहते हैं कि कन्यादान न करने से मुक्ति नहीं मिलती। इसी कारण जिन के बेटी नहीं होती, वे किसी अन्य की कन्या की शादी करवा का पुण्य कमाते हैं। हिंदुओं में कई लोग ऐसे हैं, जिनकी मान्यता है कि अपनी कमाई का दसवां हिस्सा दान करना चाहिए। इससे विभिन्न प्रकार के कष्टों से मुक्ति मिलती है।
इस्लाम में भी दान की बड़ी महिमा बताई गई है। हैसियतमंद मुसलमान को जकात देना जरूरी है। आमदनी से पूरे साल में जो बचत होती है, उसका 2.5 फीसदी हिस्सा किसी गरीब या जरूरतमंद को दिया जाता है, जिसे जकात कहते हैं। ईद से पहले यानी रमजान में जकात अदा करने की परंपरा है। यह जकात खासकर गरीबों, विधवा महिलाओं, अनाथ बच्चों या किसी बीमार व कमजोर व्यक्ति को दी जाती है। जकात और फितरे में बड़ा फर्क ये है कि जकात देना रोजे रखने और नमाज पढऩे जैसा ही जरूरी होता है, बल्कि फितरा देना इस्लाम के तहत जरूरी नहीं है। फितरे की कोई सीमा नहीं होती। इंसान अपनी हैसियत के हिसाब से कितना भी फितरा दे सकता है।
कोरोना वायरस की हाहाकार के दौरान गरीबों व जरूरतमंदों को फूड पैकेट्स व सूखी खाद्य सामग्री के वितरण को भले ही सभ्य व सुसंस्कृत समाज का प्रतीक माना जाए, मगर वस्तुत: अंश दान देने वाले के मन में दान का ही भाव पाया जाता है। इन दिनों यह देखने में आ रहा है कि अपात्र या अपेक्षाकृत कम जरूरतमंद भी फूड पैकेट्स हासिल कर रहे हैं। जरा गहरे में जाएं तो उसका एक पहलु ये जानकारी में आ रहा है कि ऐसा आगामी नगर निगम चुनाव के कारण है।
कई लोग संस्थागत दान की बजाय जांच-परख कर पात्र व्यक्ति को दान देने को अधिक उचित मानते हैं।  यही वजह है कि अनेक लोग परंपरागत व आदतन भिखारी को दान देने की बजाय उसी को दान देना अधिक उपयुक्त मानते हैं जो कि वाकई जरूरतमंद हो। जरूरतमंद को सहायता करने से वह सच्चे दिल से दुआ करता है। कई लोग भिखारी को खाना तो खिलवा देते हैं, मगर धन नही देते। उनकी मान्यता है कि पेशे से भिखारी व्यक्ति उसका उपयोग नशे के लिए कर सकता है, जिससे पुण्य की बजाय उलटे पाप लगेगा। लोगों की इस प्रवृत्ति को भिखारी भी जान गए हैं, इस कारण वे खाने या दवाई के नाम पर पैसा मांगते हैं। सिद्धांत के पक्के लोग किसी भिखारी को पैसे देने की बजाय खुद भोजन व दवाई दिलवाते हैं।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
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शरीर के सर्वांग विकास के लिए षट् रस जरूरी

भारतीय भोजन की विशेषता यह है कि इसमें विभिन्न रसों का समावेश होता है, जिन्हें मिलाकर संपूर्ण भोजन तैयार किया जाता है। भारतीय खाने में शट् रस...