आपने देखा होगा कि दरगाहों, गुरुद्वारों व सिंधी दरबारों में सिर ढ़कने की परंपरा है। इस परंपरा का सख्ती से पालन भी किया जाता है। दरगाहों में अमूमन टोपी पहनने की परंपरा है। टोपी न हो तो रुमाल से सिर ढ़कते हैं। गुरुद्वारों में पगड़ी न होने पर रुमाल का इस्तेमाल किया जाता है। कई सिंधी दरबारों में टोपी की व्यवस्था होती है, लेकिन आम तौर पर रुमाल से ही सिर ढ़का जाता है। अगर आपने लापरवाही में सिर नहीं ढ़ंका है तो अन्य श्रद्धालु आपको तुरंत टोक देते हैं। सिर ढ़कने की परंपरा क्यों है, यह सवाल कभी आपके जेहन में भी उठता होगा। मैने इस बारे में कई लोगों से चर्चा की। अनेक लोग इसे महज एक परंपरा मानते हैं और इसकी वजह नहीं जानते। कुछ लोग ऐसे हैं, जो कि इसे आदर का सूचक मानते हैं। कुछ जानकार लोग इसका धार्मिक कारण बताते हैं। वे कहते हैं कि इसके पीछे भी एक साइंस है।
आइये, जरा इस पर विस्तृत चर्चा करते हैं। ऐसी मान्यता है कि धर्म स्थलों में शुद्ध व पवित्र भाव होने के कारण किसी क्षण विशेष में शक्तिपात होने की संभावना रहती है। हमारा शरीर में उस शक्तिपात को सहन करने की क्षमता नहीं होती। विक्षिप्त होने अथवा मृत्यु होने का खतरा रहता है। चूंकि टोपी या रुमाल, यानि कि कपड़ा, कुचालक होता है, इस कारण वह शक्तिपात होने की स्थिति में उसे रोक देता है। आपने यह भी देखा होगा कि हिंदुओं में तिलक करते समय भी सिर ढ़कने की परंपरा है। अगर उस वक्त कपड़ा उपलब्ध नहीं है तो सिर पर हाथ रखते हैं। हालांकि हम जब हाथ रखते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह आदर का सूचक है, लेकिन उसके पीछे भी शक्तिपात होने की संभावना का तर्क दिया जाता है। वैसे हाथ रखना पर्याप्त नहीं है, क्योंकि हाथ कुचालक नहीं है। अलबत्ता रुकावट जरूर है। ऐसी मान्यता है कि भ्रूमध्य में अदृश्य तीसरा नेत्र सुप्तावस्था में विद्यमान है। तिलक से प्रतिष्ठित करने पर उस स्थान के जागृत होने की संभावना रहती है। इसे कुंडलिनी जागरण भी कहा जाता है। उस अवस्था में शक्तिपात होने की भी संभावना होती है। यज्ञादि में दौरान भी सिर पर कुशा या मौली का धागा रखने की परंपरा है। इसका संबंध भी कदाचित शक्तिपात से ही होगा।
हमारे यहां मंदिर में प्रवेश व आरती के वक्त, अरदास के समय और किसी के पैर छूने के दौरान, बड़े-बुजुर्गों के सामने स्त्रियां आवश्यक रूप से साड़ी अथवा चुन्नी के पल्लू से सिर ढ़कती हैं। इसे एक मर्यादित आचरण के रूप में लिया जाता है। इस मर्यादा की पालना मुस्लिमों में अधिक पायी जाती है। वे नमाज के वक्त सिर ढ़कते ही हैं। आपने देखा होगा कि मदरसों में जाते वक्त छोटे-छोटे बच्चे टोपी पहनते हैं और बच्चियां चुन्नी ओढ़ती हैं। सिख तो सदैव पगड़ी पहनते हैं। गांवों में अलग-अलग तरह की टोपियां व साफे पहनने का चलन है। इस पर चर्चा फिर कभी।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
आइये, जरा इस पर विस्तृत चर्चा करते हैं। ऐसी मान्यता है कि धर्म स्थलों में शुद्ध व पवित्र भाव होने के कारण किसी क्षण विशेष में शक्तिपात होने की संभावना रहती है। हमारा शरीर में उस शक्तिपात को सहन करने की क्षमता नहीं होती। विक्षिप्त होने अथवा मृत्यु होने का खतरा रहता है। चूंकि टोपी या रुमाल, यानि कि कपड़ा, कुचालक होता है, इस कारण वह शक्तिपात होने की स्थिति में उसे रोक देता है। आपने यह भी देखा होगा कि हिंदुओं में तिलक करते समय भी सिर ढ़कने की परंपरा है। अगर उस वक्त कपड़ा उपलब्ध नहीं है तो सिर पर हाथ रखते हैं। हालांकि हम जब हाथ रखते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह आदर का सूचक है, लेकिन उसके पीछे भी शक्तिपात होने की संभावना का तर्क दिया जाता है। वैसे हाथ रखना पर्याप्त नहीं है, क्योंकि हाथ कुचालक नहीं है। अलबत्ता रुकावट जरूर है। ऐसी मान्यता है कि भ्रूमध्य में अदृश्य तीसरा नेत्र सुप्तावस्था में विद्यमान है। तिलक से प्रतिष्ठित करने पर उस स्थान के जागृत होने की संभावना रहती है। इसे कुंडलिनी जागरण भी कहा जाता है। उस अवस्था में शक्तिपात होने की भी संभावना होती है। यज्ञादि में दौरान भी सिर पर कुशा या मौली का धागा रखने की परंपरा है। इसका संबंध भी कदाचित शक्तिपात से ही होगा।
हमारे यहां मंदिर में प्रवेश व आरती के वक्त, अरदास के समय और किसी के पैर छूने के दौरान, बड़े-बुजुर्गों के सामने स्त्रियां आवश्यक रूप से साड़ी अथवा चुन्नी के पल्लू से सिर ढ़कती हैं। इसे एक मर्यादित आचरण के रूप में लिया जाता है। इस मर्यादा की पालना मुस्लिमों में अधिक पायी जाती है। वे नमाज के वक्त सिर ढ़कते ही हैं। आपने देखा होगा कि मदरसों में जाते वक्त छोटे-छोटे बच्चे टोपी पहनते हैं और बच्चियां चुन्नी ओढ़ती हैं। सिख तो सदैव पगड़ी पहनते हैं। गांवों में अलग-अलग तरह की टोपियां व साफे पहनने का चलन है। इस पर चर्चा फिर कभी।
-तेजवानी गिरधर
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