बुधवार, 30 सितंबर 2020

लड़की को एक से अधिक लड़कों के साथ दोस्ती रखने का अधिकार!


लड़के-लड़कियों के बीच संबंधों में कितना नाटकीय बदलाव आने लगा है, इसका अहसास हाल ही एक प्रेंक वीडियो यूट्यूबर के एक शूट में देखने को मिला। उसे उचित अथवा अनुचित ठहराना मूर्खता ही कहलाएगी,  क्योंकि वक्त बदल गया है।

होता ये है कि एक गार्डन में एक लड़का-लड़की आपस में झगड़ रहे होते हैं। यूट्यूबर को क्यों कि रोजाना नया स्पॉट चाहिए होता है, इस कारण वे गार्डन में घात लगा कर बैठे होते हैं। जैसे ही एक यूट्यूबर ने देखा कि लड़के-लड़की के बीच में वाद-विवाद हो रहा है, वह फटे में टांग फंसाने पहुंच जाती है। वह विवाद का कारण पूछती है। इस पर लड़की बताती है कि लड़का उसके रिलेशनशिप में है और परेशान कर रहा है। बार-बार फोन करके मिलने को कहता है। उसे शक है कि वह अन्य लड़कों के भी संपर्क में है। उसके शक करने वाले ऐसे प्रेमी से अब रिश्ता तोडऩा है। वह यहां तक कह डालती है कि हां, उसके सौ लड़कों से संबंध हैं, मगर वह केवल फ्रेंडशिप है और उनसे बात जरूर करूंगी। चाहे प्यार छूट जाए। यदि उसके प्यार को साथ रहना है तो उसे उस पर यकीन करना ही होगा। यूट्यूबर एक महान नारी उद्धारक की तरह प्रवचन देती हुई लड़की का पक्ष लेती है। लड़का उसे बीच में न पडऩे को कहता है तो वह कहती है कि ये मेरी बहन के समान है। वह लड़के को धमकाते हुए कहती है कि यदि लड़की अब रिश्ता नहीं रखना चाहती तो तू क्यों जबरदस्ती पीछे पड़ा हुआ है। तू छोड कर चला जा। मानो, रिश्ता लाइट के बटन की तरह हो, जिसे जब चाहे ऑन किया जाए और जब मर्जी हो ऑफ कर दिया जाए। वह तर्क देती है कि ये तो अपने सभी फ्रेंड्स से बात करेगी, उसमें क्या ऐतराज है? तुम भी तो अन्य कई लड़कियों से बात करते होंगे। लड़की को भी अधिकार है कि वह अपने बहुत सारे पुरुष मित्र रखे और उनसे बात करे। आखिरकार लड़का कोई चारा नहीं देख कर चला जाता है।

इस प्रसंग ने मुझे इस विषय पर लिखने को मजबूर किया। बेशक आज के स्वछंद वातावरण में, जिसे मैं उत्छृंखलता कहता हूं, हर एक लड़के को अनेक लड़कियों से दोस्ती करने अधिकार मिला हुआ है। ठीक इसी तरह लड़कियां भी इस होड़ में अनेक लड़कों से दोस्ती करने का अधिकार जमाती हैं। सवाल ये है कि यदि लड़की बहुत सारे दोस्त रखती है तो उसे प्यार के संबंध वाले की भावना को ताक पर रख देना चाहिए? यदि लड़के को लड़की के अन्य बहुत सारे दोस्तों से बात करने पर ऐतराज है, तो क्या लड़की को केवल अनेक दोस्त रखने के अधिकार की रक्षा के नाते उससे प्यार का संबध तोड़ देना चाहिए? यदि वाकई प्यार है, जो कि मेरी नजर में दुनिया में है ही नहीं, क्या उसे अपने प्रेमी के शक को दूर करने का प्रयास नहीं करना चाहिए? क्य विश्वास कायम रखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए? कैसी विडंबना है कि एक समय में प्रेमी-प्रेमिका प्यार की खातिर दुनिया को छोड़ देते थे और आज ऐसा दौर आया है कि दुनिया की खातिर प्यार को ही तिलांजलि दी जा रही है। 

जहां तक मेरी समझ है, पहले होता ये था कि पुरुष एक से अधिक संबंध रखता था तो भी औरत को पता नहीं लग पाता था। असल में वह बाहर निकलती ही नहीं थी, तो पता लगता कैसे? वह एकनिष्ठ ही बनी रहती थी। कुछ हमारी पुरुषवादी संस्कृति ने पति को परमात्मा मान कर चलना सिखाया, इस कारण भी वह उसके अलावा किसी के बारे में सोचने में भी पाप समझती थी। अब जमाना बदल गया है। महंगाई इतनी अधिक है कि अकेले पुरुष के कमाने से काम नहीं चलता। महिला को भी दहलीज से बाहर कदम रखना पड़ा है। जाहिर तौर पर वह बहुत से पुरुषों के संपर्क में आती है। पुरुष भी अपने स्वभाव के कारण कहीं भी लाइन मारने को उत्सुक रहता है। वह येन-केन-प्रकारेण सहकर्मी अथवा संपर्क में आई अन्य महिलाओं को प्रभावित करने की कोशिश करता है, जिसे कि अंग्रेजी में फ्लर्ट करते हैं। पुराने संस्कारों से प्रभावित महिला तो इग्रोर कर देती है, मगर नए युग के संस्कारों से प्रभावित महिला पुरुष की मनोवृत्ति को जानते हुए भी दुनियादारी के नाते पुरुषों से व्यवहार निभाती है। एक जमाना था, जब पुरुष मित्र अथवा महिला मित्र शब्द होते ही नहीं थे। इन शब्दों को पाप माना जाता था। यदि मित्रता थी भी तो उसे भाई-बहिन के शब्दों से संबोधित कर छिपाया जाता था। लेकिन अब ऐसा नहीं है। पुरुष के एक से अधिक महिलाओं के साथ फ्रेंडशिप को तो सामान्य माना ही जाता है, महिला के भी एक से ज्यादा पुरुष मित्र हों तो कोई ऐतराज नहीं करता। महिलाएं इतनी खुले दिमाग की हो गई हैं कि वे बड़ी आसानी से किसी पुरुष को अपना मित्र, अच्छा मित्र, खास मित्र इत्यादि बताने में जरा भी नहीं हिचकती। तुर्रा ये कि केवल मित्र हैं, उससे ज्यादा नहीं, जबकि उससे ज्यादा का रास्ता यहीं से हो कर गुजरता है।

बहरहाल, एक से अधिक महिलाओं के साथ दोस्ती रखने वाले पुरुष को यह बर्दाश्त नहीं होता कि उसके रिलेशन वाली महिला अन्य पुरुषों के संपर्क में नहीं हो। प्रेंक वीडियो वाले पुरुष की भी वही स्थिति है। यह स्थिति उसके रिलेशनशिप वाली महिला को नागवार गुजरती है। उसे अन्य पुरुषों से भी व्यवहार रखने की आजादी चाहिए, कदाचित पुरुष की होड़ में। वह अब  रिलेशनशिप वाले पुरुष को पहले से कम समय ही दे पाती है। इसी कारण विवाद शुरू होता है, जो अंतत: कट ऑफ की स्थिति में आ जाता है। अफसोसनाक है कि महिला दुनिया से संबंधों को रखने के चक्कर में प्यार को भी लात मारने को उतारू हो जाती है। रही सही कसर तथाकथित नारी स्वातंत्र्य की झंडाबरदार महिला के अधिकारों की दुहाई देते हुए महिला के कदम को उचित करार दे कर और हवा देती है।

-तेजवानी गिरधर

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सोमवार, 28 सितंबर 2020

फालतू की बातें बहुत करते हैं हम


हम कई बार फालतू के सवाल करते हैं। जैसे किसी के घर गए और वह खाना खा रहा है तो यकायक हम पूछ बैठते हैं, खाना खा रहे हो। या ये ही पूछ बैठते हैं कि बैठे हो? अव्वल तो ये सवाल ही बेमानी हैं। जो दिख रहा है, उसी के बारे क्या पूछना? दिलचस्प बात ये है कि खाना खाने वाला भी जवाब देता है कि हां, खाना खा रहा हूं, मानो उसके पास ये विकल्प हो कि वह यह कह सके कि नहीं खाना नहीं खा रहा। वह भी जवाब देता है कि हां, बैठा हूं, मानो कुछ और कहने, यथा नहीं, नाच रहा हूं का विकल्प हो उसके पास। हम अगर ये पूछते हैं कि कैसे हो तो फिर भी ठीक है, क्यों हमें पता नहीं कि उसके क्या हालचाल हैं?

इसी प्रकार फालतू के काम भी बहुत किया करते हैं हम। जैसे रास्ते से गुजरते वक्त और कुछ नहीं तो, दुकानों के साइन बोर्ड ही पढ़ते जाते हैं। एक बार नहीं। बार-बार। जब भी गुजरते हैं, फिर पढ़ते हैं। वस्तुत: उसका कोई मतलब नहीं। हां, यह तो ठीक है कि हमने एक बार पढ़ लिया तो वह काम का है। इससे हमको ख्याल रहता है कि अमुक दुकान कहां पर है। वस्तुत: हम अपने मस्तिष्क के स्मरण कक्ष में फालतू का कचरा भरते रहते हैं। वैसे विज्ञान का मानना है कि मस्तिष्क नामक सुपर कंप्यूटर की जितनी रेम है, उसका हम पूरे जीवन में एक प्रतिशत भी उपयोग नहीं कर पाते। मगर फालतू का कचरा भरना तो ठीक नहीं।

मैं अपनी ही बता दूं। जब भी साइन बोर्ड पढ़ता हूं तो संपादन की आदत के कारण उसकी स्पेलिंग मिस्टेक पर ही ध्यान रहता है और व्यर्थ ही कुंठित होता हूं।

फालतू की एक बात का जिक्र कर रहा हूं। गर्मी या सर्दी होने पर अपने पास बैठे व्यक्ति से कहते हैं कि आज तो बहुत गर्मी या सर्दी है। वह भी हामी भरते हुए कहता है कि वाकई बहुत गर्मी या सर्दी है। जब दोनों का पता है कि बहुत गर्मी या सर्दी है, उस पर चर्चा की जरूरत ही नहीं, फिर भी किसी भी अनुभूति को अभिव्यक्त करने के मानव स्वभाव के कारण हम ऐसा करते हैं। 

इस बारे में ओशो ने अपने एक प्रवचन में जिक्र किया है। वे बताते हैं कि एक दार्शनिक प्रात:कालीन सैर किया करते थे। कुछ दिन बाद देखा कि एक अन्य व्यक्ति भी सैर कर रहा है। उन्होंने देख कर अनदेखा कर दिया। दो-तीन दिन ऐसा चलता रहा। फिर उस व्यक्ति ने अभिवादन करना शुरू कर दिया। दार्शनिक भी अनमने मन से प्रत्युत्तर दे देते। फिर उस व्यक्ति ने बातें करना शुरू कर दिया। जैसे आज मौसम कितना सुहावना है, ये फूल कितना खूबसूरत है, आज सर्दी ज्यादा है इत्यादि। दार्शनिक महाशय बहुत परेशान हो गए। आखिर, उनसे रहा नहीं गया और उस व्यक्ति से कहा कि मान्यवर, आप बहुत बातूनी हैं। मेरी सैर का मजा खराब कर रहे हैं। अरे भाई, मौसम सुहावना है, वह मुझे भी महसूस हो रहा है, फूल की खूबसूरती मुझे भी दिखाई दे रही है, सर्दी के ज्यादा होने का अहसास भी मुझे है। क्यों, व्यर्थ ही इनका जिक्र करते हो। बेहतर ये है कि आप भी सुहावने मौसम का आनंद लो। उसका जिक्र करना जरूरी है क्या? न तो वह आपके कहने से कम होना है और न ही ज्यादा। क्यों नहीं हम दोनों ही मौसम, फूल व सर्दी की अनुभूति का मजा अंदर ही अंदर लें। खैर, अगले दिन से उस व्यक्ति ने आना बंद कर दिया।

दार्शनिक अपनी जगह ठीक थे। जो बात दोनों का ज्ञात है, उसके बारे में चर्चा क्या करना? चर्चा तो उस पर होनी चाहिए, जो एक को पता हो और दूसरे को नहीं।

इसी संदर्भ में ओषो ने अपने प्रवचन में एक प्रसंग का जिक्र किया है। एक बार यह तय हुआ कि अमुक दिन अमुक गांव में गुरू नानक व कबीर की मुलाकात होगी। दोनों चेले बहुत प्रसन्न थे कि मुलाकात के दौरान दोनों के बीच ज्ञान की बातें होंगी तो हमें बहुत आनंद आएगा। एक दिन मुलाकात का अवसर आ ही गया। दोनों की मुलाकात हुई। एक दूसरे का अभिवादन किया। और बैठ गए। एक दूसरे को एकटक निहारते रहे। बात कुछ भी नहीं की। मुलाकात का समय समाप्त हुआ। दोनों ने एक दूसरे का अभिवादन किया और अपने-अपने गंतव्य स्थान की ओर प्रस्थान कर गए। दोनों के चेले बहुत निराष हुए। सोचा था कि ज्ञान चर्चा का आनंद लेंगे, मगर इन्होंने तो कोई बात ही नहीं की। दोनों के चेलों ने अपने-अपने गुरू से पूछा कि आपने आपस में कोई बात क्यों नहीं की। दोनों का एक ही उत्तर था। चर्चा करने को कुछ था ही नहीं। जो एक जानता था, वही दूसरा भी जानता था। अर्थात भगवान के बारे में। तो चर्चा किस पर करते।

इस प्रसंग की ऐतिहासिक तथ्यात्मकता भिन्न हो सकती है, मगर सार की बात ये है कि चर्चा उसी पर होती है, जिसके बारे में एक जानता हो और दूसरा नहीं। तभी उसकी सार्थकता है, अन्यथा व्यर्थ है।

अपने पल्ले तो यही आया कि व्यर्थ की बातों में अपनी क्षमता व समय को नहीं गंवाना चाहिए। बात उतनी ही करें, जितनी बहुत जरूरी हो। इससे हमारी ताकत का क्षरण बच जाएगा।

-तेजवानी गिरधर

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रविवार, 27 सितंबर 2020

नमस्ते व नमस्कार में क्या अंतर है?


हाल ही मेरे मित्र जाने-माने फोटो जर्नलिस्ट सत्यनारायण जाला ने एक पोस्ट भेजी, जिसमें बताया गया है कि नमस्ते व नमस्कार पर्यायवाची नहीं हैं। इनका भिन्न अर्थ है। बाद में सोशल मीडिया पर यह पोस्ट अलग शब्दावली में भी पायी। स्वाभाविक है कि उन्होंने किसी अन्य सज्जन की ओर से भेजी गई पोस्ट को कॉपी-पेस्ट किया होगा, मगर मुझे इस पोस्ट ने इस पर चर्चा के लिए प्रेरित किया।

पहले वह पोस्ट, जो कि उन्होंने भेजी:-

कौनसा अभिवादन उचित?

नमस्ते या नमस्कार?

प्राय: लोग अभिवादन के लिए नमस्ते और नमस्कार दोनों शब्दों का प्रयोग करते हैं। कुछ लोग मानते हैं नमस्ते और नमस्कार दोनों का अर्थ एक ही है। दोनों का अर्थ एक तब ही कहा जाएगा, जब ये एक दूसरे के पर्यायवाची हों।  किंतु ये दोनों भिन्न अर्थ वाले शब्द हैं। नमस्कार में अंत में कार धातु लगने से यह क्रियासूचक बन गया।

नम: का अर्थ सम्मान 

ते का अर्थ आप

आपका सम्मान करता हूं

अर्थात मैं आपका सम्मान करता हूं

नमस्कार शब्द जड़ (बिना क्रिया)अर्थात जो जीवित हो कर भी प्रत्यक्ष रूप से आपको अपनी प्रत्यक्षता अनुभव न होने दे, उन वस्तुओं के लिए किया जाता है।

जैसे सूर्य नमस्कार, चन्द्र नमस्कार, सागर नमस्कार इत्यादि, जबकि नमस्ते सम्मानसूचक शब्द है, जो कि चेतन (सजीव) के लिए प्रयोग किया जाता है। इसलिए नमस्कार त्यागें और नमस्ते शब्द का ही प्रयोग करें।

जिन भी सज्जन ने यह पोस्ट बनाई है, उनका मकसद यही प्रतीत होता है कि वे उपयुक्त स्थान पर उपयुक्त शब्द के इस्तेमाल के लिए जोर दे रहे हैं।

इस बारे में जब मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया में देखा तो वहां बताया गया है कि नमस्ते या नमस्कार मुख्यत: हिन्दुओं और भारतीयों द्वारा एक दूसरे से मिलने पर अभिवादन और विनम्रता प्रदर्शित करने हेतु प्रयुक्त शब्द है। इस भाव का अर्थ है कि सभी मनुष्यों के हृदय में एक दैवीय चेतना और प्रकाश है, जो अनाहत चक्र (हृदय चक्र) में स्थित है। यह शब्द संस्कृत के नमस शब्द से निकला है। इस भावमुद्रा का अर्थ है एक आत्मा का दूसरी आत्मा से आभार प्रकट करना। दैनन्दिन जीवन में नमस्ते शब्द का प्रयोग किसी से मिलते हैं या विदा लेते समय शुभकामनाएं प्रदर्शित करने या अभिवादन करने हेतु किया जाता है। नमस्ते के अतिरिक्त नमस्कार और प्रणाम शब्द का प्रयोग करते हैं।

संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से इसकी उत्पत्ति इस प्रकार है- नमस्ते= नम:+ते। अर्थात् तुम्हारे लिए प्रणाम। संस्कृत में प्रणाम या आदर के लिए नम: अव्यय प्रयुक्त होता है, जैसे-सूर्याय नम: (सूर्य के लिए प्रणाम है)। इसी प्रकार यहां- तुम्हारे लिए प्रणाम है, के लिए युष्मद् (तुम) की चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग होता है। वैसे तुम्हारे लिए के लिए संस्कृत का सामान्य प्रयोग तुभ्यं है, परन्तु उसी का वैकल्पिक, संक्षिप्त रूप ते भी बहुत प्रयुक्त होता है। यहां वही प्रयुक्त हुआ है। अत: नमस्ते का शाब्दिक अर्थ है- तुम्हारे लिए प्रणाम। इसे तुमको प्रणाम या तुम्हें प्रणाम भी कहा जा सकता है, परन्तु इसका संस्कृत रूप हमेशा तुम्हारे लिए नम: ही रहता है, क्योंकि नम: अव्यय के साथ हमेशा चतुर्थी विभक्ति आती है, ऐसा नियम है।

मुंडे-मुंडे मतिभिन्ना। जितने मुंह, उतनी बातें।

एक सज्जन ने सोशल मीडिया पर व्याख्या की है कि संस्कृत शब्द नमस्कार को मिलते वक्त किया जाता है और नमस्ते को जाते वक्त। कुछ लोग इसका उल्टा भी करते हैं। उनकी यह व्याख्या समझ में नहीं आई।

एक सज्जन बताते हैं कि कुछ विद्वानों के अनुसार नमस्कार सूर्य उदय के पश्चात्य और नमस्ते सूर्यास्त के पश्चात किया जाता है। इसके पीछे के तर्क का उन्होंने उल्लेख नहीं किया है।

मैंने एक व्याख्या बहुत पहले यह भी सुनी है- समान स्टेटस के व्यक्ति को नमस्ते कहा जाता है, जबकि अपने से उच्च पदस्थ को नमस्कार कहा जाता है।

यदि श्री जाला की पोस्ट पर नजर डालें तो उसमें बताया गया है कि नमस्कार शब्द जड़ (बिना क्रिया)अर्थात जो जीवित हो कर भी प्रत्यक्ष रूप से आपको अपनी प्रत्यक्षता का अनुभव न होने दे, उन वस्तुओं के लिए किया जाता है। ऐसे में सवाल उठता है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की प्रार्थना का आरंभ नमस्ते सदा वस्तले मातृभूमे कहा गया है। यदि नियम के तहत नमस्कार शब्द सूर्य को प्रणाम करने के लिए कहा जाता है तो यह नियम मातृभूमि पर लागू क्यों नहीं हुआ। मातृभूमि को नमस्ते क्यों कहा गया है? वह भी तो जीवित होते हुए भी अपनी प्रत्यक्षता का अनुभव नहीं देती।

खैर, मूल बात ये है कि दोनों शब्द नम धातु से ही बने हैं। दोनों का मूल भाव नमन करना है। नमस्ते का अर्थ है, तुमको प्रणाम या तुमको नमन। और नमस्कार चूंकि क्रियावाचक है, इसलिए इसका अर्थ हुआ मैं तुमको नमन करता हूं। अब तुमको नमन व तुमको नमन करता हूं में क्या फर्क है?

बहरहाल, ऐसा प्रतीत होता है कि जिस भी शब्दविद् ने नमस्ते अथवा नमस्कार शब्द का प्रयोग किया है तो या तो उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि उन्होंने समानार्थी का निकट समानार्थी शब्दों का इस्तेमाल भिन्न-भिन्न स्थान पर क्यों किया या उन्होंने स्पष्ट किया भी हो, मगर वह व्याख्या उपलब्ध नहीं है। इसी कारण हम माथापच्ची कर रहे हैं। 

कुल मिला कर भले ही दोनों शब्दों में बारीक अंतर हो, मगर भाव नमन करने से ही है। दिलचस्प बात ये है कि गूगल पर यदि आप इन शब्दों का अंग्रेजी अनुवाद करेंगे तो दोनों के लिए हेलो शब्द ही आएगा।

चलते-चलते एक बात आपसे साझा करना चाहता हूं। नमस्ते व नमस्कार तो फिर भी भिन्न शब्द हैं, मगर एक शब्द को विपरीत स्थितियों में प्रयुक्त किया जाता है। राजस्थान में किसी के आने पर भी पधारो सा कहा जाता है और विदा होने पर भी पधारो सा कहा जाता है। मेरी एक पत्रकार साथी डॉ राशिका महर्षि तो मिलते समय और विदा होते समय अथवा फोन पर बात करते समय आरंभ व अंत में एक ही शब्द नमस्ते का का इस्तेमाल किया करती है। है न दिलचस्प बात।

-तेजवानी गिरधर

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शनिवार, 26 सितंबर 2020

ढ़ाई प्याला शराब पीती है देवी मां


ये सुनी-सुनाई बात नहीं। आंखों देखी है। काली माता की एक मूर्ति ढ़ाई प्याला शराब पीती है। यह नागौर जिले में मुख्यालय से 105 किलोमीटर दूर, रियां तहसील में, मेड़ता से जैतारण जाने वाले मार्ग पर स्थित गांव भंवाल के एक मंदिर में है। इसकी गिनती राजस्थान के प्रसिद्ध शक्तिपीठों में होती है। इसकी बहुत मान्यता है। मंदिर तक जाने के लिए मेड़ता रोड में हर वक्त वाहन उपलब्ध रहते हैं।

तकरीबन बीस साल पहले मैंने स्वयं ने इस मंदिर के दर्शन किए थे। कुछ मित्रों के साथ एक जीप में मुझे वहां जाने का मौका मिला। वहां के नियम के मुताबिक, जिन भी मित्रों के पास बीड़ी-सिगरेट या तम्बाकू था, उसे मंदिर के बाहर ही रख दिया। चमड़े के बेल्ट व पर्स भी बाहर ही रखे। हमने शराब की एक बोतल के साथ मंदिर में प्रवेश किया। जब हमारा नंबर आया तो पुजारी ने हमसे बोतल लेकर उसे खोला और उनके पास मौजूद चांदी एक प्याले में शराब भरी। वह प्याला उन्होंने मूर्ति के होठों पर रखा। देखते ही देखते प्याला खाली हो गया। फिर दूसरा प्याला पेश किया। वह भी खाली हो गया। तीसरे प्याले में से आधा ही खाली हुआ। विशेष बात ये थी कि हम तो इस नजारे को थोड़ी दूर से देख रहे थे, मगर जब भी पुजारी प्याला मूर्ति के होंठों पर रखता तो खुद का मुंह हमारी ओर कर लेता। अर्थात वह स्वयं इस दृश्य को नहीं देख रहा था। कदाचित यह परंपरा रही हो कि पुजारी इस चमत्कार को बेहद नजदीक से नहीं देखता हो। हमारे लिए यह वाकई चमत्कार ही था। हमने जब पुजारी से इस बाबत पूछा कि यह कैसा चमत्कार है, तो उसने बताया कि कुछ बुद्धिजीवी और विज्ञान के विद्यार्थियों ने इसका रहस्य जानने की कोशिश की कि कहीं कोई तकनीक तो नहीं, मगर उन्हें भी चमत्कार को देख कर दातों तले अंगुली दबाने को विवश होना पड़ा। 

ऐसा नहीं कि मूर्ति हर व्यक्ति की शराब की बोतल ग्रहण कर रही हो। कुछ ऐसे भी थे, जिनकी बोतल देवी ने स्वीकार नहीं की। उनके बारे में बताया गया कि या तो अपनी जेब में चमड़े का पर्स या तम्बाकू पदार्थ लेकर गए थे, या फिर उनकी श्रद्धा में कहीं कोई कमी थी। इसे इस रूप में भी लिया जा रहा था कि देवी मां जिनकी मनोकामना पूर्ण करना चाहती हैं, केवल उनके हाथों लाई शराब ही ग्रहण करती हैं। 

मंदिर के इतिहास के बारे में जानकारी पता करने पर बताया गया कि भंवाल माता की मूर्ति खेजड़ी के एक पेड़ के नीचे प्रकट हुई थी। बताया जाता है कि इस स्थान पर राजा की फौज ने लूट के माल के साथ डाकुओं की घेराबंदी कर ली थी। इस पर उन्होंने काली मां को याद किया तो मां ने स्वयं प्रकट हो कर डाकुओं को भेड़-बकरियों के झुंड में तब्दील कर दिया। इस तरह से डाकू बच गए। उन्होंने ही लूट के माल से यहां मंदिर बनवाया था। वहां मौजूद शिलालेख के अनुसार मंदिर का निर्माण विक्रम संवत 1119 में हुआ था। यह पुरातन स्थापत्य कला से पत्थरों को जोड़ कर बनाया गया था। 

यात्रियों के विश्राम के लिए बैंगाणी परिवार ने मंदिर के पास ही एक धर्मशाला बनवा रखी है।


-तेजवानी गिरधर

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गुरुवार, 24 सितंबर 2020

प्रेंक वीडियो के नाम पर परोसी जा रही है अश्लीलता

 


इन दिनों यूट्यूब पर प्रेंक वीडियो खूब चलन में हैं। प्रेंक का मतलब होता है शरारत या मजाक। कई लड़के-लड़कियों ने इसे धंधा बना रखा है। वे इसमें विज्ञापन डाल कर कमा रहे हैं। धंधे तक तो ठीक है, मगर इनमें से कई ने इसे अश्लीलता परोसने का जरिया बना लिया है, जिसे देख कर नए युवक-युवतियां आकर्षित होती है। कुछ ने अपने लाखों फॉलोअर्स के नाम ब्लैकमेलिंग का कारोबार भी कर रखा है।   

यूं प्रेंक वीडियो मनोरंजन के लिहाज से ठीक है। कोई बुराई नहीं। मगर अधिसंख्य प्रेंक वीडियो प्रेम प्रसंग, ब्रेक अप व शरीर बेचने पर बनाए जा रहे हैं। यह सच है कि ब्वॉय फ्रेंड व गर्ल फ्रेंड की कल्चर पाश्चात्य संस्कृति की देन है, जिसने हमारे महानगरीय परिवेश को बुरी तरह से प्रभावित कर रखा है। इसमें प्रेम के नाम पर शारीरिक शोषण के अलावा कुछ भी नहीं। आए दिन ब्वॉय फ्रेंड्स व गर्ल फ्रेंड्स के नए जोड़े बनते हैं, लीव इन रिलेशन तक पहुंचते हैं और बेक अप भी हो जाता है, मानो गुड्डे-गुड्डियों का खेल हो। हो सकता है कि प्रेंक वीडियो बनाने वालों का यह तर्क हो कि वे तो दर्पण की भांति हमारी संस्कृति का दिग्दर्शन मात्र करवा रहे हैं, मगर सच्चाई ये है कि यह संस्कृति अभी महानगरों तक ही सीमित है, उसे ये वीडियो के जरिए गांव-गांव तक अभी परोस रहे हैं। अर्थात इस कुसंस्कृति को गांवों तक स्वाभाविक रूप से पहुंचने में संभव है दस-बीस साल लगें, मगर ये उसे अभी से सर्व कर रहे हैं, जिसका कुप्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। जगजाहिर है कि नए युवक-युवतियां अच्छाई की बजाय बुराई को जल्द अपनाती हैं। दिखाने को भले ही यह इस रूप में गिनाई जा रही हो कि वे तो समाज की इस बुराई को उजागर कर रहे हैं, मगर वस्तुत: वे इसका प्रचार कर रहे हैं। कई प्रेंक तो इतने घटिया व अश्लील होते हैं कि उन्हें देख कर घिन आने लगती है। भाभी, साली, चाची व दोस्त की बीवी जैसे मर्यादित रिश्तों को इतने घटिया तरीके से पेश किया जा रहा है, मानो इन रिश्तों में अश्लीलता व यौन शोषण एक स्वाभाविक बात हो। मगर वीडियो बनाने वाले लड़के-लड़कियां बड़ी बेशर्मी से इनको शूट कर यूट्यूब पर डाल रहे हैं। ऐसे कई वीडियो तो पोर्न की श्रेणी के होते हैं, मगर उन पर कोई नियंत्रण नहीं। अनेकानेक वीडियो ऐसे हैं, जो गार्डन में शूट किए जाते हैं और उनमें किसी भी अनजान लड़के या लड़की को मजाक व शरारत का शिकार बनाया जाता है। शरारत जब मार-पिटाई तक पहुंच जाती है तो उसे मजाक बता कर इतिश्री कर ली जाती है। कानूनी पेच से बचने के लिए वे प्रेंक के शिकार लड़के-लड़की को इस बात के लिए रजामंद कर लेते हैं कि उन्हें वीडियो यूट्यूब पर डाउनलोड करने में कोई ऐतराज नहीं। कुल मिला कर यह दर्शाया जा रहा है, मानो लड़कियां केवल यौनेच्छा पूर्ति का साधन हों। मजाक के नाम पर बदचलन लड़कियां भी ऐसा ही दर्शाती हैं कि प्रकृति ने उन्हें जो विशेष शारीरिक संरचना दी है, उसका आजीविका के लिए उपयोग करने में कोई बुराई नहीं है।

यूट्यूब पर लाखों फॉलोअर्स वाले प्रेंक वीडियो मेकर खुले आम धमकी देते भी दिखाई दे जाएंगे। एक तरह से वे ब्लैकमेल कर रहे होते हैं। संभव है इस गोरखधंधे में ऐसे प्रकरण भी हों, जो लाइव आने की बजाय अंदर ही अंदर ब्लैकमेल की वजह बन रहे हों। मगर हमारे कानून की मजबूरी ये है कि जब तक कोई शिकायतकर्ता न हो, कोई कार्यवाही नहीं होती। आपको अजमेर का बहुचर्चित अश्लील छायाचित्र ब्लैकमेल कांड याद होगा, जिसमें काफी समय तक इसलिए कार्यवाही नहीं हो पा रही थी, क्योंकि यौन शोषण की शिकार लड़कियां लोकलाज व बदनामी के डर से सामने ही नहीं आ रही थीं।

मजाकिया वीडियो का चलन मारवाड़ी, हरयाणवी व पंजाबी भाषा में भी आ गया है। उनमें से कुछ तो नैतिकता की सीख के लिए होते हैं, मगर अधिसंख्य में वही घटियापन दिखाई देता है। एक-दो ऐसे वीडियो मेकर ऐसे हैं, जिनका काम ही है, जहां लड़की दिखी, वहीं लाइन मारना और अश्लील शरारत करना। समझ में ही नहीं आता कि आखिर मनोरंजन के नाम पर किस प्रकार खुलेआम कुसंस्कृति की ओर धकेला जा रहा है।

-तेजवानी गिरधर

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सोमवार, 21 सितंबर 2020

क्या श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद की रिकॉर्डिंग की जा सकती है?


विज्ञान मानता है कि कोई भी ध्वनि नष्ट नहीं होती। वह ब्रह्मांड में कहीं न कहीं विचरण करती रहती है। उसी सिद्धांत पर ही तो रेडियो का अविष्कार हुआ। कोई ध्वनि अंतरिक्ष में छोड़ी गई अर्थात ब्रॉडकास्ट की गई। फिर उसी को कैच करने की तकनीक रेडियो या ट्रांसमीटर में काम में ली गई। इसी प्रकार दृश्यों का, वीडियो का प्रयोग करके टेलीविजन बनाया गया। यह सब हमारे सामने हैं। कोई कपोल कल्पित बात नहीं है। दुनिया में कहीं भी, हजारों किलोमीटर दूर क्रिकेट मैच हो रहा होता है और हम उसे उसी समय अपने टेलिविजन पर देख रहे होते हैं। क्या यह किसी चमत्कार से कम है? मगर चूंकि इसे विज्ञान से संभव कर दिखाया है, इस कारण हमें अचरज नहीं होता।

महाभारत में भी इसी का जिक्र है कि संजय ने दिव्य दृष्टि से युद्ध को देख कर उसका पूरा वृतांत धृष्टराष्ट्र को सुनाया था। बेशक, उस वक्त टेलिविजन का अविष्कार नहीं हुआ था, मगर दूरस्थ घटनाक्रम को देखने की क्षमता का ही संजय ने उपयोग किया, जो कि उनको वरदान के रूप में  मिली थी। यह बात दीगर है कि वह विधा कुछ और थी, मगर इसका अर्थ है कि मौलिक रूप से एक स्थान के दृश्य या घटनाक्रम को दूसरे स्थान पर देख पाना संभव था।


अब असल मुद्दे पर आते हैं। ओशो का ख्याल था कि ध्वनि के अंतरिक्ष में सदैव मौजूद रहने के सिद्धांत के आधार पर महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण व अर्जुन के बीच जो संवाद हुआ, उसकी ध्वनि भी अंतरिक्ष में कहीं न कहीं विचरण कर रही होगी। बस जरूरत है तो उसे कैच करने की। सर्वविदित है कि गीता में श्रीकृष्ण व अर्जुन के बीच जो संवाद हुआ, वही हूबहू गीता में बताया गया है। गीता लिखित पुस्तक नहीं है, बल्कि उसमें संवाद को लिपिबद्ध किया गया है। बताया जाता है कि ओशो ने कुछ वैज्ञानिकों की टीम को उस संवाद को रिकॉर्ड करने का सौंपा था। वे वर्षों पुरानी ध्वनि की फ्रिक्वेंसी को नाप कर उसे कैच करने की कोशिश में जुटे थे। ओशो के निधन के बाद उस प्रयास का क्या हुआ, कुछ भी जानकारी नहीं। उनके बाद क्या अब भी उस पर कोई काम दुनिया में कहीं हो रहा है, इसकी भी जानकारी नहीं है। अगर कभी ये संभव हो पाया तो कितना सुखद व आश्चर्यजनक होगा। तब गीता पढ़ी नहीं जाएगी, बल्कि सुनी जाएगी, श्रीकृष्ण व अर्जुन की ऑरीजनल आवाज में। सुधि पाठकों से निवेदन है कि अगर आपके पास इस सिलसिले में कोई जानकारी है तो कृपया उसे शेयर करें, ताकि अन्य सभी पाठक उससे अवगत हो सकें।

-तेजवानी गिरधर

7742067000

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रविवार, 20 सितंबर 2020

अब डंडे की सेटिंग के नाम से कौन चिढ़ाएगा?

अतुल सेठी

नसीराबाद के वरिष्ठ व सुपरिचित पत्रकार श्री अतुल सेठी हमारे बीच नहीं रहे। वे बहुत ऊर्जावान व सक्रिय पत्रकार के साथ हंसमुख, यारबाज व जिंदादिल इंसान थे। अजमेर के पत्रकार जगत को उनका अभाव सदैव खलेगा। उन्होंने पत्रकारों के हितों के लिए पत्रकार संगठनों में भी सक्रिय भागीदारी निभाई। मुझे वे बहुत सम्मान व प्यार दिया करते थे। जब भी मिलते यह कह कर चिढ़ाते कि डंडे की सेटिंग कैसी चल रही है? मुझे भी उनका यह जुमला खूब गुदगुदाता था।

असल में दैनिक न्याय में एक व्यंग्य स्तम्भ में मैंने पुलिस मंथली को डंडे की सेटिंग की संज्ञा दी थी। यह उपमा उनको इतनी भायी कि जब भी अजमेर आने पर मिलते, पहला सवाल ये ही करते कि डंडे की सेटिंग कैसी चल रही है? साथ ही ये कहते कि नसीराबाद कब आ रहे हैं? हालांकि उनके बुलावे पर तो कभी वहां नहीं जा पाया, मगर जब भी खबर के सिलसिले में नसीराबाद जाना होता था, तो उनसे जरूर मिला करता था। अब ख्याल आ रहा है कि जब कभी नसीराबाद जाना होगा तो मुझे डंडे की सेटिंग कैसे चल रही है, के जुमले से कौन चिढ़ाएगा?

बताया जा रहा है कि अस्पताल में इलाज के दौरान कोताही की वजह से उनका निधन हुआ। प्रशासन को इसे गंभीरता से लेना चाहिए और कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए।

प्रसंगवश बता दूं कि उनसे लगाव की एक वजह ये भी रही कि नसीराबाद से मुझे बहुत प्यार है। वहां मैंने कक्षा सात से नौ तक व्यापारिक स्कूल में अध्ययन किया था। सायरओली बाजार में सुबह-सुबह कोने की दुकान से उठती कचोड़े की सौंधी-सौंधी खुशबू आज तक याद आने पर बरबस नथुनों में महक उठती है। शाम को वहीं कोने पर गैस बत्ती की रोशनी में ठेले पर बिकते चाकलेटी मावे का स्वाद आज भी ताजा है।

खैर, भगवान से प्रार्थना है कि स्वर्गीय सेठी की आत्मा को शांति प्रदान करे और उनके परिजन को इस आघात को सहन की शक्ति दें।

-तेजवानी गिरधर

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खुद हमने ही कर रखी है हिंदी की ‘हिंदी‘


हिंदी दिवस हर साल मनाया जाता है। इस साल भी मनाया गया। बड़ी-बड़ी बातें की गईं। मगर नतीजा वही ढ़ाक के तीन पात। हिंदी को अधिकाधिक उपयोग में लेने के नाम पर लाखों, करोड़ों रुपए के बजट स्वीकृत होते हैं, कदाचित उसका कुछ प्रभाव हुआ भी है, हिंदी का मान्यता बढ़ी है, मगर शुद्ध हिंदी लिखने के लिए कुछ नहीं किया गया है। कितने अफसोस की बात है कि दुर्गति शब्द के लिए कुछ लोग मजाक में ‘हिंदी‘ शब्द में लिया करते हैं। जैसे कम से कम हिंदी की ‘हिंदी‘ तो मत करो। मगर खुद हमने ही कर रखी है हिंदी की ‘हिंदी‘। 

कैसी विडंबना है कि यदि अंग्रेजी में हम किसी शब्द की स्पेलिंग गलत लिख देते हैं तो उसकी खिल्ली उड़ाई जाती है, हेय दृष्टि से देखा जाता है, जबकि हिंदी में हम कई गलतियां करते हैं, मगर उन पर कोई गौर ही नहीं करता। मुझे अफसोस होता है कि जिस भाषा को हमने सीखा है, उसके प्रति तो गंभीर हैं, मगर अपनी मातृ भाषा की सुध ही नहीं है। ऐसा नहीं है कि केवल आम आदमी, जिसकी हिंदी के बारे में समझ कम है, वही वर्तनी व व्याकरण की गलतियां करता है, पढ़े लिखे लोग भी धड़ल्ले से त्रुटियां करते हैं। आप देखिए, दुकानों पर लगे साइन बोर्ड्स में कितनी गलतियां होती हैं। चलो, वे तो कम पढ़े लिखे आर्टिस्ट बनाते हैं तो गलतियां स्वाभाविक हैं, मगर साइन बोर्ड बनवाने वालों को तो जानकारी होनी चाहिए। सरकार से अच्छी खासी तनख्वाह लेने वाले भी खूब गलतियां करते हैं। चाहे पुलिस की तहरीर हो, या फिर कोई सरकारी आदेश, उनमें ढ़ेरों त्रुटियां मिल जाएंगी। अखबारों तक में आपको गलतियां मिल जाएंगी। 

कहने का निहितार्थ ये है कि हिंदी के बढ़ावे की तो बात की जाती है, मगर शुद्ध हिंदी की दुर्गति की जा रही है। सरकार व अखबारों तक ने प्रचलित हिंदी शब्दों की जगह अंग्रेजी के शब्द काम में लेने की स्टाइल शीट बना रखी है। आम पाठकों के लिए सुग्राह्य भाषा के नाम पर ऐसा किया जा रहा है। जैसे पहले पुलिस अधीक्षक शब्द प्रचलन में था, मगर उसकी जगह एसपी शब्द को केवल इसीलिए काम में लेने को कहा जाता है, क्योंकि वह आम आदमी को आसानी से समझ में आ जाता है। जिला रसद अधिकारी की जगह डीएओ, जिला परिवहन अधिकारी की जगह डीटीओ, यातायात निरीक्षक की जगह टीआई या ट्रेफिक इंस्पैक्टर शब्द काम में लिया जाता है। इसी प्रकार अभियंता शब्द की जगह इंजीनियर शब्द काम लिया जा रहा है।

आपको जानकारी होगी कि पहले जिलाधीश शब्द काम में लिया जाता था, उसकी जगह सरकार ने ही जिला कलेक्टर शब्द काम में लेने के आदेश दे रखे हैं, क्योंकि जिलाधीश शब्द में अधिनायकवाद की बू आती है। पिछले कुछ समय से देखने में आ रहा है कि अखबारों में शीर्षक को आकर्षक बनाने के नाम पर अंग्रेजी के शब्द घुसेड़े जा रहे हैं।

यह ठीक है कि पूरी शुद्ध हिंदी लिखना तनिक कठिन है। अंग्रेजी के अनेक शब्दों का ठीक-ठीक अनुवाद उपलब्ध नहीं है, इस कारण अंग्रेजी के शब्दों का हिंदी भाषा में उपयोग किया जाता है। जैसे रेलवे, ट्रेन, सिगरेट इत्यादि अनेक ऐसे शब्द हैं, जिनका हिंदी रूपांतरण हुआ ही नहीं है। कुछ साहित्यकारों ने प्रयास किया भी है, मगर वह किताबों में ही दफ्न है। जैसे ट्रेन के लिए लोह पथ गामिनी शब्द गढ़ा गया, मगर उसका उपयोग करता कौन है? इसी प्रकार सिगरेट के लिए श्वेत धूम्रपान दंडिका शब्द बनाया गया, मगर वह कोई भी काम में नहीं लेता। 

कई लोग तो हिंदी बोलते वक्त विशेष रूप से अंग्रेजी के शब्द काम में लेने में अपनी शान समझते हैं। चलो, जो शब्द सहज रूप में हिंदी में शामिल हो गए हैं, उनका उपयोग करने में करने में कोई दिक्कत नहीं है, मगर कई लेखक अपनी लेखनी में अलग तरह का फ्लेवर देने के लिए अंग्रेजी व उर्दू के शब्दों का उपयोग करने लगे हैं। हालांकि यह बहस का मसला है कि ऐसा करना उचित है या नहीं।

एक दिलचस्प तथ्य ये है कि संभवत: हिंदी ही अकेली ऐसी भाषा है, जिसमें जैसा बोला जाता है, वैसा ही लिखा जाता है। उसके बावजूद लोग ठीक से हिंदी नहीं लिख पाते। अंग्रेजी जैसी अंतरराष्ट्रीय भाषा की हालत ये है कि उसमें बी यू टी बट होता है, जबकि पी यू टी पुट बोला जाता है। इसके अतिरिक्त कई ऐसे शब्द हैं, जिनमें कोई अक्षर साइलेंट होता है। वह शब्द में होता तो है, मगर बोला नहीं जाता। 

एक ऐसी गलती की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं, जो आम है। जैसे वर्तनी को लोग वतर्नी लिख देते हैं। अंतर्निहित को अंतनिर्हित लिख देते हैं। ऐसे ही अनेक शब्द हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राथमिक कक्षाओं में ये सिखाया ही नहीं जाता कि आधा र कैसे काम में लिया जाए। जैसे जहां भी उच्चारण में किसी अक्षर से पहले आधा र आता है, तो वह उस अखर के ऊपर लगता है। जैसे वर्तनी। इसी प्रकार उच्चारण में जिस अक्षर के बाद में आधा र आता है तो वह उस अक्षर के नीचे लगाया जाता है। जैसे प्रकार। यह मूलभूत सिद्धांत है, मगर कई लोगों को इसका ज्ञान ही नहीं है। 

शब्दों के गलत इस्तेमाल के भी अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। जैसे- बेफालतू। अब ये शब्द है ही नहीं। शब्द है फालतू। इसका मतलब ये है कि व्यर्थ। मगर कई लोग बेफालतू शब्द का इस्तेमाल किया करते हैं। इसी प्रकार कई लोग ‘बावजूद भी‘ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, जबकि बावजूद में ‘भी‘ शब्द अंतर्निहित है। बावजूद का अर्थ होता है, उसके बाद भी, ऐसे में ‘भी‘ जोडऩा वाकई गलत है।

इसी प्रकार इस नियम की भी जानकारी कई लोगों को नहीं होती कि वर्णमाला के किसी अक्षर के साथ अनुस्वार का आधा अक्षर जोडऩे पर उसी पंक्ति के अंतिम अक्षर को काम में लिया जाता है। जैसे टण्डन, सम्पन्न, हिन्दी। हालांकि अब अनुस्वार के लिए केवल बिंदी को मान्यता दे दी गई है। जैसे टंडन, संपन्न, हिंदी। 

एक शब्द के बारे में तो मुझे लंबे समय बाद जानकारी हुई। संस्कृत की जानकार व आर्य समाजी श्रीमती ज्योत्सना, जब भास्कर में कॉपी डेस्क पर काम करती थीं तो उन्होंने बताया कि आम तौर पर ‘ज्ञान‘ शब्द का उच्चारण हम ‘ग्यान‘ की तरह करते हैं, जबकि असल में उसका उच्चारण ‘ज्यान‘ की तरह होना चाहिए। शब्द की संरचना में भी दिख रहा है कि य के साथ ‘ज्‘ जोड़ा गया है, न कि ‘ग्‘। अब ये ‘ज्यान‘ की जगह ‘ग्यान‘ कब हो गया, पता नहीं। इसी प्रकार धरती के लिए हम पृथ्वी शब्द काम में लेते हैं, जो कि गलत है, असल में वह शब्द है पृथिवी। कुछ इसी तरह हम शमशान शब्द काम में लेते हैं, जबकि वह है श्मशान।

मुझे ख्याल आता है कि दैनिक भास्कर में नौकरी के दौरान नागौर जिले के एक संवाददाता ने एक शब्द विन्यास काम में लिया कि लापरवाही का शीलशीला बदसूरत जारी है। उसकी खूब खिल्ली उड़ी। सवाल ये है कि हिंदी पत्रकारिता में हिंदी भाषा के अल्पज्ञ कैसे प्रवेश पा जाते हैं? एक और प्रसंग याद आता है। भोपाल से संपादन शाखा के एक वरिष्ठ अधिकारी अजमेर इकाई में काम करने वालों का परीक्षण आए थे। एक पत्रकार साथी जब साक्षात्कार देने गए तो स्थानीय संपादक जी ने कहा कि ये शामिल बाजा है। यह सुन कर अधिकारी हंस पड़े। उन्होंने उससे कुछ भी नहीं पूछा। जब वे साथी बाहर आए तो उनसे हमने पूछा कि क्या सवाल किए गए, इस पर उसने कहा कि कुछ नहीं पूछा, केवल स्थानीय संपादक जी ने यह कहा कि यह शामिल बाजा है। हमें उसका अर्थ समझ में नहीं आया। बाद में अकेले में मैने संपादक जी से शामिल बाजा का अर्थ पूछा तो उन्होंने बताया कि बैंड कंपनी में शामिल बाजा उसे कहते हैं, जो अकेले कुछ नहीं बजा पाता, सभी अपने-अपने वाद्य यंत्र बजाते हैं तो वह भी उनके साथ हो जाता है। यानि कि वह किसी भी वाद्य यंत्र को बजाने में पारंगत नहीं होता, केवल सहायक की भूमिका अदा करता है। मैने अपने साथियों को यह नई जानकारी दी तो वे खूब हंसे।

खैर, हिंदी भाषा के बारे में मेरी जो भी जानकारी है, उसमें से कुछ उपयोगी टिप्स पर फिर कभी बात करेंगे।

-तेजवानी गिरधर

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मंगलवार, 15 सितंबर 2020

लड़कों की तुलना में लड़कियां अधिक धोखा देती हैं?


अव्वल तो दुनिया में सच्चा व नि:स्वार्थ प्यार दुर्लभ है। श्रीकृष्ण-राधा के बाद गिनाने भर के लिए हमारे पास लैला-मजनूं, शीरीं-फरहाद, रोमियो-जूलियट, सोनी-महिवाल, ढ़ोला-मरवण जैसे कुछ किस्से ही हैं। तभी तो एक फिल्मी गीत में यह पंक्ति लिखी गई है- किताबों में छपते हैं, चाहत के किस्से, हकीकत की दुनिया में चाहत नहीं है। बावजूद इसके लोग सच्चे प्यार के दावे करते हैं, तो हंसी आती है। चालीस-पचास साल पहले की बात फिर भी और थी, तब प्यार के इजहार के अवसर ही कम मिला करते थे। बंधन भी कई प्रकार के थे, इस कारण प्रेम संबंध उजागर भी कम ही होते थे। अलबत्ता उनमें निभाने जज्बा होता था। मगर अब हालात बदल चुके हैं। सामान्य सजातीय तो बहुत आम बात है, बल्कि अंतर्धामिक व अंतरजातीय प्रेम संबंध भी खुल कर सामने आने लगे हैं। कोई पेरामीटर तो तय नहीं किया जा सकता, मगर फिर भी आज जो प्रेम विवाह हो रहे हैं, उनमें अमूमन समझदार प्रेमी-प्रेमिका शादी से पहले हिसाब-किताब लगा लेते हैं। अर्थात स्टेटस का ख्याल रखने लगे हैं। वैसे यह है उचित, क्योंकि यदि समान आर्थिक हालात नहीं होंगे तो आगे जा कर विसंगति ही उत्पन्न हो सकती है। प्यार में जोड़-बाकी-गुणा-भाग करने के बाद भी ब्रेक अप की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। भारत जैसे विकासशील देशों में अलबत्ता इनकी संख्या कम है, मगर अमरीका जैसे विकसित देशों में हालात बहुत खराब हैं।

ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इसकी वजह क्या है? कदाचित ऐसा इस कारण कि शादी से पहले ही इतनी करीबी हो जाती है कि एक-दूसरे की छोटी-छोटी कमियां भी दिखने लग जाती हैं और शादी की स्थिति आने से पहले ही एक दूसरे से विरक्ति के हालात उत्पन्न हो जाते हैं। जहां तक अरेंज मैरिज का सवाल है, उसमें छोटी-छोटी आदतें शादी के बाद पता लग पाती हैं, जिन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है। सामाजिक दबाव भी इतना अधिक रहता है कि पति-पत्नी संबंध को निभाते हैं। 

जहां तक संबंध विच्छेद या ब्रेक अप का सवाल है, उसमें यह विचारणीय है कि उसकी पहल किस ओर से होती है। हमारी संस्कृति में ऐसा पाया जाता है कि वैवाहिक संबंधों में महिलाएं अमूमन एकनिष्ट होती हैं, जबकि पुरुष अपने आपको इस मर्यादा से मुक्त ही मानता है। परिस्थितियां भी महिलाओं को दायरे से बाहर निकलने की सुविधा कम देती हैं, जबकि पुरुष के मनोनुकूल रहती हैं। एक जमाना था, जबकि किसी लड़की का कोई मित्र भी होता था, तो वह उस संबंध को छिपा कर अपना भाई बताया करती थी। लड़के व लड़की के बीच दोस्ती को अच्छा नहीं माना जाता था। मगर स्वछंद माहौल में फेसबुक जैसी सोशल साइट्स ने काम बहुत आसान कर दिया है। अब लड़कियों को यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं होता कि अमुक लड़का उसका ब्वॉय फ्रेंड है। एकाधिक फेसबुक फ्रेंड होना भी आम बात हो चुकी है। मजे की बात ये है कि कुछ लड़कियां दस मित्रों में से सभी को अलग-अलग यही बताती हैं कि वे ही उनके वास्तविक प्रेमी हैं, बाकी के नौ केवल सिंपल फ्रैंड हैं।

खैर, महिला-पुरुष संबंधों पर मेरे एक परिचित ने कुछ भिन्न राय ही प्रकट की है, जो कबीर की उलटबांसी सी लगती है। पेशे से वे व्यवसायी हैं। कई देशों में घूम चुके हैं, अर्थात रह चुके हैं। अनेक महिलाओं के संपर्क में रहे हैं। उनका शौक भी है। उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर एक बहुत दिलचस्प जानकारी साझा की है।

उनका मानना है कि आपसी संबंधों में महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक धोखा देती हैं। धोखा देने में माहिर भी अधिक होती हैं। उनके मन की थाह पाना बहुत मुश्किल होता है। हमारे यहां तो कहा भी गया है कि स्त्री का चरित्र और पुरुष का भाग्य देवता भी नहीं जान सकते। ऋषि-मुनि तक त्रिया चरित्र को नहीं समझ पाते थे।

एक बात और कही। वह यह कि कोई महिला अगर किसी पर पुरुष के संपर्क में है तो वह उस संबंध की पूरी वसूली करती है। वह जानती है कि जब पुरुष उसका दोहन ही करने आया है, तो उसकी एवज में पूरी वसूली करने में क्या हर्ज है।

बहरहाल, मैं न तो मेरे परिचित की बात से पूरी तरह से सहमत हूं और न ही पूरी तरह से असहमत। तटस्थ हूं, चूंकि अपनी दिमागदानी में बात ठीक से बैठी नहीं। हो सकता है, यह उनका निजी अनुभव हो। अगर उन्होंने इन संबंधों की गहराई में जाने की कोशिश की हो, तो शायद उनकी राय इसलिए बनी हो, क्योंकि पूर्व में अमूमन लड़के ही धोखा देते थे, लड़कियां निभाने की कोशिश करती थीं, जबकि अब वे भी समझदार हो गई हैं, इस कारण उनकी ओर से धोखा देने की घटनाएं बढऩे लगी हैं। स्वाभाविक रूप से यह बहस का विषय हो सकता है। आप ही निर्णय कीजिए। मेहरबानी करके कोई टिप्पणी करें तो उसका मकसद निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए होना चाहिए, न कि बकवास करने के लिए।

-तेजवानी गिरधर

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सोमवार, 14 सितंबर 2020

रहस्यमय गुफा सीसाखान


अजमेर में एक ऐसी रहस्यमय गुफा है, जिसके बारे में कोई प्रमाणिक तथ्य ऐतिहासिक पुस्तकों में मौजूद नहीं हैं, मगर कई दिलचस्प किंवदंतियां प्रचलन में है। इस ऐतिहासिक गुफा की सच्चाई जानने के लिए आजादी के बाद भी कोई अधिकृत प्रयास नहीं किए गए, इस कारण गुफा के रहस्य से आज तक पर्दा नहीं उठ पाया है। इस गुफा का नाम है सीसा खान। यह नाम सुपरिचित है, मगर आज एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं, जिसने गुफा के भीतर जा कर देखा हो कि आखिर माजरा क्या है? आइये, जानते हैं कि इस गुफा के बारे में क्या-क्या धारणाएं किस्से के रूप में मौजूद हैं। डिग्गी बाजार चौक और ठठेरा चौक के बीच रेगरे मोहल्ले के द्वार में घुसने के बाद आगे चल कर एक गुफा है। नाम से अनुमान लगाया जाता है कि किसी जमाने में यहां सीसे की खान रही होगी। बताते हैं कि यह गुफा का रहस्य जानने के लिए आज तक जो भी अंदर गया, वह लौट नहीं पाया। असल में गुफा में आगे जाना व भीतर जा कर देखना संभव ही नहीं, क्योंकि अंदर बहुत अधिक नमी है। यहां तक कि टॉर्च, मोमबत्ती या मशाल बुझ जाती है। नमी का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि गुफा के मुहाने पर गर्मी के मौसम में भी ठंडी हवा चलती है। घुप्प अंधेरे के अतिरिक्त भीतर कई तरह के जहरीले जीव-जंतु हैं, इस कारण कोई भी हिम्मत नहीं जुटा पाता। बताते हैं कि इस गुफा का एक सिरा तारागढ़ से जुड़ा है और दूसरा शहर से बाहर कहीं जगल में। कुछ कहते हैं कि इस प्रकार की सुरंगों की एक शृंखला थी, जो आगरा व दिल्ली तक गुप्त रूप से जाने के काम आती थी। कदाचित इनका उपयोग आक्रमण के समय बच कर निकलने के लिए किया जाता हो। ये भी मान्यता है कि इस सीसा खान गुफा का उपयोग सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय इष्ट देवी चामुंडा माता के मंदिर में जाने के लिए किया करते थे। किंवदंती है कि गुफा के अंदर सात कुएं हैं, जो कि डिग्गी तालाब से जुड़े हुए हैं। इसके अतिरिक्त भीतर की बनावट ऐसी है कि भीतर जाने वाला घनचक्कर हो जाए। शायद इसी कारण जिन लोगों ने कोशिश की हो, उन्हें बाहर निकलने का रास्ता ही न मिला हो और जान गंवा बैठे हों। अजमेर में गुफाकृति के मुख वाली दो और सुरंगे भी बताई जाती हैं, जो कि आनासागर के किनारे बारहदरी के पास व बाबूगढ़ में बताई जाती है। 

 स्वामी न्यूज चैेनल पर यह स्टोरी देखने के लिए इस लिंक पर क्लिक कीजिए https://www.facebook.com/swaminewsajmer/videos/621276961824301/ 

 -तेजवानी गिरधर 
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फेसबुक पर लड़कियों ने बना रखा है लूट का धंधा

शातिर लड़कियों ने फेसबुक व अन्य सोशल साइट्स पर लूट का धंधा बना रखा है। हालांकि इस बारे में फेसबुक एडमिनिस्ट्रेशन सजग है, फिर भी उन पर पूरी तरह से अंकुश नहीं लगाया जा सका है। होता ये है कि ये लड़कियां किसी को भी फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजती हैं। ओके होने पर सीधे उसके मेसेंजर पर आ जाती हैं और हाय-हेलो के बाद उसकी उम्र पूछती हैं। वैवाहिक स्थिति की जानकारी मांगती हैं। स्वाभाविक रूप से लड़के उनकी ओर आकर्षित होते हैं, जैसा कि लड़कों का स्वभाव होता है। लड़का पटता देख, कोई न कोई डिमांड रख देती हैं। जैसे मोबाइल का रिजार्च करवाने, मोबाइल देने अथवा माली हालत खराब बता कर सीधे बैंक अकाउंट में रुपए डालने को कहती हैं। मनचले लड़के उनके झांसे में आ जाते हैं। वसूली के बाद लड़कियां अपना अकाउंट बंद कर देती हैं। ऐसा नहीं है कि केवल लड़कियां ही ऐसा करती हैं, बल्कि कई लड़के भी लड़की के नाम से अकाउंट बना कर ये धंधा कर रहे हैं। वस्तुत: फेसबुक एडमिन बहुत सतर्क हैं, फिर भी उस पर अनेकानेक फर्जी अकाउंट बने हुए हैं। एक-एक आदमी के पांच-पांच अकाउंट हैं। वे उन्हें मैंटेन भी नहीं कर पाते, मगर अकाउंट जारी रखे हुए हैं। दिलचस्प बात ये है कि कई लड़कियों ने लड़कों के नाम से अकाउंट बना रखे हैं और वे लड़कों से ठिठोली करते हैं। विदेशी महिलाओं का तो पूरा रैकेट है। रोचक बात ये है कि उन्होंने अपने आधे नाम भारतीय रख रखे हैं। वे कनेक्ट तो फेसबुक पर होती हैं, मगर मेसेंजर में अनुरोध करती हैं कि उनकी ईमेल आईडी अथवा वाट्स ऐप पर आएं। वहां वे खुद के इकलौते होने व पिता के निधन के बाद लाखों रुपए होने की जानकारी देती हैं। अपने खूबसूरत मुद्रााओं के फोटोज भी भेजती हैं। साथ ही बताती हैं कि अगर उनका साथ दें तो भारत में आ कर रहेंगी व सारा रुपया उनके खाते में डलवा देंगी। एक-दो मामलों में मैने जर्नलिस्टिक अप्रोच के नाते तह में जाने की कोशिश की है। होता ये है कि बात आगे बढऩे पर कोई विदेशी बैंक ईमेल भेजता है व भारतीय बैंक की डिटेल मांगता है। साथ ही पूरा पैसा ट्रांसफर करने के लिए निर्धारित अग्रिम राशि भेजने को कहते हैं। अगर कोई बंदा झांसे में आ गया तो वह रुपए भेज देता है, मगर उसका वह रुपया डूब जाता है। ऐसे अनेक प्रकरण पब्लिक डोमेन भी हैं। मैने गूगल पर भी सर्च किया तो पाया कि वाकई यह माफिया गिरोहों का काम है। कुछ लोगों ने तो अपने साथ हुई चोट का भी पूरा ब्यौरा दे रखा है। धन की लूट के अतिरिक्त सैक्स रैकेट का भी जाल बिखरा पड़ा है। होमो सैक्स करने वाले लड़के भी साथी की तलाश के लिए फेसबुक का इस्तेमाल कर रहे हैं। कई लड़के मसाज के नाम पर झांसा देने की कोशिश करते हैं। फेसबुक पर फर्जीवाड़े की ऐसी ही बहुत सी जानकारियां मुझे इस कारण मिल पाई क्योंकि मुझे अपनी वेबसाइट को प्रमोट करने के लिए अधिक से अधिक फें्रडशिप करने का लालच रहता है। जैसे ही कोई रिक्वेस्ट आती है, बिना देखे मैं मंजूर कर लेता हूं। दो फेसबुक अकाउंट्स में पांच-पांच हजार मित्र हैं। इन दस हजार में ऐसे अनेक प्रसंग आए। यह बात दीगर है कि मैं तुरंत भांप जाता हूं और ब्लॉक कर देता हूं। फरेब से बचने के लिए होना ये चाहिए कि जब भी कोई आपको रिक्वेस्ट भेजे, तो पहले उसका स्टेटस चैक करें। आपके अनुकूल हो तभी रिक्वेस्ट ओके करें। इससे कम से कम धोखे होंगे। -तेजवानी गिरधर 7742067000 tejwanig@gmail.com

रविवार, 13 सितंबर 2020

कॉर्नर का मकान सबसे खराब

शहर के सुपरिचित बुद्धिजीवी श्री कमल गर्ग ने एक बहुत महत्वपूर्ण जानकारी दी है। आपके समक्ष प्रस्तुत है:-

सभी लोग कॉर्नर का मकान लेना चाहते हैं ,या प्लॉट लेना चाहते हैं, मेरे हिसाब से सबसे ज्यादा खराब होता है| इसी प्रकार तिराहे का प्लॉट या *टी* पर स्थित प्लाट होते हैं इसकी वजह इस तरह से बता सकता हूं कि कार्नर प्लॉट पर दो तरफ से प्रदूषण होगा(हवा, धूल एवं आवाज) ट्रैफिक न्यूसेंस दो तरफ रहेगा, दो तरफ बिजली की लाइनें और पानी की लाइन होगी ,उनके वॉल्व, उनके पोल और पोल कें स्टे आदि लगे होंगे इसके अलावा सीवरेज लाइन उनके चेम्बर,नाली / नाला दोनों तरफ बने होने से सीलन- बदबू दोनों और रहेंगे, केवल दोनों और ही नहीं बल्कि तीन से चार गुना क्योंकि प्लाट चोडाई से दो गुना या ज्यादा लम्बाई के होते हैं। टेलीफोन की लाइन या टेलीफोन केबल,अब गेस (ईंधन)की लाईन आदि आदि। कभी इधर मरम्मत तो कभी उधर मरम्मत। मोड़ पर कोई रैम्प या गेट बनाने की स्थिति में हमेशा दुर्घटना का अंदेशा रहेगा, दो तरफ एलिवेशन का सुधार करके अतिरिक्त व्यय करना होगा, दो तरफ गेट देकर उनकी सुरक्षा भी महंगी होगी, इस प्रकार कई ऐसे मसले हैं जो कॉर्नर के प्लॉट के लिए होते हैं । यदि आपका मकान टी पोजिशन पर है तो आने वाले वाहन की हेड लाइट से तेज रोशनी बार बार ओर लगातार आपके मकान पर आयेगी टी पर लेफ्ट या राइट मुडने वाला हार्न बजायगें जो प्रदूषण का कारण बनेगा।कार्नर के मकान पर टर्न करने वाला हार्न बजायगें यदि ट्रेन फगक सिडनल हुआ तो सिगनल पर रुकने से प्रदूषण बढेगा इसके अतिरिक्त मेन रोड पर रिहायशी मकान घातक होता है उसकी वजह प्रदूषण (हवा ,धूल और आवाज का ) हमेशा बना रहता है आपकी प्राइवेसी, आपके मकान के सामने चुनाव जलूस या अन्य समय लाउडस्पीकर एवं डी.जे की तेज आवाज, पार्किगं (अनधिकृत रूप से करने ) की समस्या रहती है। दोनों स्थितियों मे ।इन सब के अलावा इनकी कीमत ज्यादा देनी होती है, पंजीकरण का खर्चा 10% अधिक होता है । तथ्य और भी हैं,जैसे सेटबैक अधिकांश मामले मे चारों ओर छोडना पडता है जिससे कवर एरिया कम मिलता है वास्तु के अनुसार भी यदि सामना पूर्व मे है तो 50% स्थिति मे एक साइड दक्षिण दिशा मे होगी। यदि पश्चिम दिशा मे है तो भी एक साइड 50% मामले में दक्षिण दिशा होगी। यह पिछले 58 वर्षों के मेरे अनुभव पर आधारित हैं *कमलगर्ग* आर्किटेक्ट वास्तु विद पुलिस लाइन अजमेर श्री गर्ग जाने-माने श्रमिक नेता रहे हैं। प्रथम वर्ष कला इंटर ड्राइंग मुम्बई, जी. डी. आर्च, फोटोग्राफी में रीजनल कॉलेज से विशेष प्रशिक्षण प्राप्त और औद्योगिक प्रशिक्षण केन्द्र से सिविल नक्शा नवीस डिप्लोमा किए हुए हैं। उन्होंने जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग को सन् 1963 से सेवाएं दीं और जुलाई 2000 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर नगर निगम व नगर सुधार न्यास के अधिकृत तकनीकी विज्ञ (नक्शा स्वीकृत करने हेतु) के रूप में काम शुरू किया। वर्तमान में अनुपम आर्कीटेक्चुरल वक्र्स का संचालन कर रहे हैं।  लेखन के प्रति भी उनका रुझान रहा है और उन्होंने अनेक संगठनों की स्मारिकाओं का संपादन किया। उनसे 9414725669 पर संपर्क किया जा सकता है।

शनिवार, 12 सितंबर 2020

क्या फ्रिज में आटे का लोया रखने पर उसे भूत खाने को आते हैं?


आजकल की व्यस्त जिंदगी में आमतौर पर गृहणियां आटे को गूंथ कर उसका लोया फ्रिज में रख देती हैं, ताकि जब खाने का वक्त हो तो उसे तुरंत निकाल कर गरम रोटी बनाई जा सके। यह आम बात है। इसको लेकर संस्कृति की दुहाई देते हुए सोशल मीडिया में यह जानकारी फैलाई रही है कि यह उचित नहीं है। वो इसलिए कि आटे का लोया पिंड का रूप ले लेता है, जिसे ग्रहण करने के लिए भूत-प्रेत आ जाते हैं और अनेक प्रकार के अनिष्ट कर देते हैं। 

शास्त्रों का हवाला देते हुए कहा जाता है कि आटे के ये पिंड भूतों-प्रेतों को निमंत्रण देते हैं। ये उन अतृप्त आत्माओं को आकर्षित करते हैं, जिनके पिंड दान नहीं किए गए हैं । इस आटे पर उनकी नकारात्मक ऊर्जा का वास हो जाता है। इस आटे को खाने से पूरे परिवार पर इसका असर पड़ता है। प्रसंगवश बता दें कि इस तथ्य को इस बात से जोड़ा जाता है कि हिंदुओं में पूर्वजों एवं मृत आत्माओं को संतुष्ट करने के लिए पिंड दान की विधि बताई गई है। पिंडदान के लिए आटे का लोया, जिसे पिंड कहते हैं, बनाया जाता है। 

इसी संदर्भ में कहा जाता है कि आटे का लोया गोल होता है, वही मृतात्माओं को आमंत्रित करता है। यदि उस पर कुछ अंकित कर दिया जाए तो प्रेतात्माएं उस ओर आकर्षित नहीं होतीं। इस कारण कई महिलाएं आटे का लोया बनाने के बाद उस पर अंगुलियों के निशान अंकित कर देती हैं। यह निशान इस बात का प्रतीक होता है कि रखा हुआ पिंड पूर्वजों के लिए नहीं, बल्कि आम इंसानों के लिए है। जानकारी में ऐसा भी है कि महिलाएं आटा गूंथने के बाद उस पर अगुलियों के निशान बना कर उसमें पानी भर देती हैं। कुछ देर ऐसा करके रख देने से रोटियां मुलायम बनती हैं।

सवाल ये है कि सच क्या है? क्या वाकई भूत-प्रेत की धारणा के पीछे कोई वैज्ञानिक आधार है? या यूं ही प्रचलित मान्यता? 

जहां तक वैज्ञानिक तथ्य का सवाल है, ऐसा बताया जाता है कि आटा पानी के संपर्क में आने के बाद उसमें कई रासायनिक बदलाव आते हैं। ज्यादा समय तक रखने पर वे नुकसानदायक हो जाते हैं। अगर उसे फ्रिज में रख दिया जाए तो हानिकारक किरणों पर भी प्रभाव पड़ता है। उस आटे से बनी रोटी खाने से कई तरह की बीमारियां होने का खतरा रहता है।

दूसरी ओर जो लोग भूत-प्रेत का अस्तित्व ही नहीं मानते, वे उनके आकर्षित होने को सिरे से नकार देते हैं। जो भूत-प्रेत का अस्तित्व मानते भी हैं, तो उनका मानना है कि आटा गूंथ कर फ्रिज में रखने से भले ही बीमारी का खतरा हो, मगर उसका भूत-प्रेत के आकर्षण से कोई भी सम्बन्ध नहीं है। किसी भी भौतिक वस्तु का सेवन करने के लिए इन्द्रियों की आवश्यकता होती है। बिना इन्द्रियों के भौतिक वस्तुओं का सेवन नहीं किया जाता सकता। मृत्यु के बाद मनुष्य का सूक्ष्म शरीर, जिसे अक्सर भूत-प्रेत समझ लिया जाता है, केवल महसूस कर सकता है, भोग करने के लिए उसे इन्द्रियों की आवश्यकता होती है, जो कि उसके पास नहीं होतीं।

असल में दिक्कत ये है कि आटे के लोये को खाने के लिए भूत-प्रेतों के आने जैसे सवालों का सवाल है, उसका प्रचार करने वाले उसे शास्त्रोक्त तो बता देते हैं, मगर कभी जिक्र नहीं करते कि किस शास्त्र में ऐसा लिखा हुआ है। वे इस बात का भी जिक्र नहीं करते कि अमुक ऋषि ने इतने हजार लोगों पर प्रयोग करके यह तथ्य सिद्ध किया है। इसी कारण ऐसी बातें अंध विश्वास की श्रेणी में गिनी जाती हैं। बावजूद इसके भय के कारण कई उसे मान भी लेते हैं कि मानने में हर्ज ही क्या है? सच तो ये है कि कई लोग प्रचलित धार्मिक मान्यताओं से सहमत नहीं, मगर फिर भी उसकी पालना इसलिए कर देते हैं कि उससे नुकसान तो कुछ है नहीं। दिलचस्प बात ये है कि पिंड को खाने के लिए मृतात्माओं के आने वाली बात को जानते हुए भी अधिसंख्य महिलाएं व्यस्त जिंदगी में समय को बचाने के लिए अथवा आलस्य के कारण आटे का लोया बना कर फ्रिज में रखती हैं। 

हो सकता है कि भूत-प्रेत वाली बातें सच हों, मगर ऐसी बातें करने वालों को बाकायदा उस शास्त्र का हवाला देना चाहिए, अन्यथा लोग उसे अंध विश्वास ही करार देंगे। उनका मकसद भले ही संस्कृति को बचाना हो, मगर उनके बिना आधार के, केवल शास्त्र शब्द का हवाला देते हुए ऐसी बातें करने से उलटा संस्कृति का नुकसान ही होने वाला है। वे संस्कृति का बचाव नहीं, बल्कि उसका नुकसान कर रहे हैं।

-तेजवानी गिरधर

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गुरुवार, 10 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवत कथा में तोता क्यों रखा जाता है?


हालांकि आकाश में स्वछंद विचरण करने वाले किसी पक्षी को पिंजरे में कैद रखना उचित प्रतीत नहीं होता, लेकिन हमारे यहां तोते को पालने का प्रचलन रहा है। उसे शुभ माना जाता है। चूंकि तोते की आवाज मीठी होती है और वह राम-राम जैसे कुछ शब्द आसानी से सीख लेता है, इस कारण कुछ लोग मनोविनोद के कारण उसे पालते हैं। शौक में कई लोग रंग-बिरंगी चिडिय़ाएं यथा लव बर्ड्स भी पालते हैं।

आपने देखा होगा कि जहां भी श्रीमद्भागवत कथा होती है तो वहां पर तोता रखा जाता है। अगर तोता उपलब्ध न हो तो कथा स्थल के मुख्य द्वार पर कार्ड बोर्ड का बना तोता टांगा जाता है। मैने स्वयं ने कई जगह ऐसा देखा है। स्वाभाविक रूप से यह जिज्ञसा होती है कि आखिर ऐसा क्यों किया जाता है?

पौराणिक जानकारी के अनुसार जैसे बंदर में हनुमान जी की उपस्थिति मानी जाती है, उसी प्रकार तोते को शुकदेव जी का प्रतिनिधि माना जाता है। ज्ञातव्य है कि शुकदेव जी ने राजन परीक्षित को श्रीमद्भागवत कथा सुनाई थी। शुकदेवजी का जन्म व्यासजी की पत्नी पिंगला के गर्भ से हुआ था, जिनके पेट में वह तोता 12 साल तक रहा था। उसने हिमालय की गुफा में उस वक्त  कथा सुन ली थी, जब भगवान शंकर पार्वतीजी को यह कथा सुना रहे थे और इस दौरान पार्वती जी को निद्रा आ गई। स्वयं भगवान शंकर के श्रीमुख से कथा के दस स्कंध सुनने के कारण तोते की महिमा हो गई। तोते को शुक भी कहा जाता है।

ऐसी मान्यता है कि तोते की मौजूदगी के बिना व्यास कथा का महत्व नहीं रहता। तोते को आसन दे कर उसकी पूजा किए बिना श्रीमद्भागवत कथा मान्य ही नहीं है। हालांकि कथा करने वाले को कथा व्यास की पदवी होती है, मगर तोते की मौजूदगी के बिना वह कथा फल प्रदान नहीं करती।

प्रसंगवश बता दें कि पक्षियों में तोता ऐसा पक्षी है, जो कि मनुष्य की तरह बोल सकता है, अगर उसे प्रशिक्षित किया जाए। वैज्ञानिकों के अनुसार तोते के मस्तिष्क का सेरीब्रम पार्ट काफी विकसित होता है, इसी कारण उसे मनुष्य की बोली का प्रशिक्षण दिया जा सकता है। 


-तेजवानी गिरधर

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बुधवार, 9 सितंबर 2020

ओशो के प्रभाव से पत्रकार मित्र का सांसारिक जीवन बेकार हो गया

मैं जब नागौर में कॉलेज लाइफ जी रहा था, तब मेरे एक घनिष्ठ मित्र  थे महेन्द्र पाल व्यास। कोई दस साल पहले नागौर जाना हुआ, तब उनके दीदार हुए थे, अब किस हाल में हैं कुछ नहीं पता। हालांकि ओशो के प्रभाव व अत्यधिक दार्शनिकता के कारण उनका सांसारिक जीवन लगभग बेकार हो गया, मगर मुझे एक सीख जरूर मिल गई। किसी में ज्ञान की अधिकता और सांसारिक व्यवस्थाओं के बीच अगर तालमेल न हो तो उसका जीवन कैसा बेकार सा हो जाता है, इसका साक्षात अनुभव उनसे मिला।

असल में वे मूलत: दार्शनिक थे। बहुत अध्ययन करते थे। ओशो को तो उन्होंने बहुत पढ़ा। हिंदी भाषा पर गजब का कमांड। अच्छे वक्ता भी। कॉलेज टाइम में ही पत्रकारिता आरंभ की। दैनिक नवज्योति के लिए नागौर से खबरें भेजा करते थे। उन दिनों मैं भी पत्रकारिता आरंभ कर चुका था। लाडनूं से प्रकाशित लाडनूं ललकार पाक्षिक का सहायक संपादक रहा। इसके अतिरिक्त जयपुर से प्रकाशित दैनिक अरानाद व दैनिक अंबर को खबरें भेजा करता था। हम बहुत अच्छे मित्र थे। लगभग रोजाना मिलते थे। अनेकानेक विषयों पर चर्चा किया करते थे। विशेष रूप से ओशो पर। मेरा भी ओशो पर बहुत अध्ययन था। फर्क सिर्फ इतना था मैंने तो ओशो को जाना मात्र, जबकि वे उसमें ही डूब गए। नजीतजन असामान्य हरकतें करने लगे। एक बार अपना नाम बदल कर मुस्लिम नाम रख लिया। कुछ दिन तक हाथ में तिरंगी छड़ी लेकर घूमते थे। कभी अंगूठे के नाखून पर तिरंगी नेल पॉलिश लगाते थे। खैर, थे बहुत अच्छे बुद्धिजीवी। तक मैं सोचा करता था कि यह आदमी एक दिन जरूर नाम कमाएगा। मगर हुआ उसका उलटा। नागौर छोडऩे के कोई दस साल बाद एक बार नागौर जाना हुआ। मैंने उनका पता किया। वे कलेक्ट्रेट के बाहर जमीन पर चटाई बिछा कर लोगों के हाथ देख रहे थे। मुफलिसी के दौर से गुजर रहे थे। मात्र पांच रुपए में उन्होंने मेरा भी हाथ देखा। कुछ मित्रों से उनके बारे में पूछा तो पता लगा कि दार्शनिकता इतनी अधिक सवार हो गई थी कि न तो रोजगार के लिए कुछ किया और पारिवारिक जीवन पर भी ध्यान नहीं दिया। मुझे बहुत अफसोस हुआ। जिस शख्स में अपार संभावनाएं थीं, वह ज्ञान के अतिरेक में तिरोहित हो गईं। वस्तुत: ज्ञान का बोझ वे सहन नहीं कर पाए। हालत ऐसी हो गई, जैसा वेदांत को जान कर उसी में डूब जाने वालों की होती है। बेशक वेदांत वेदों का सार है, बहुत गहरा ज्ञान, मगर माना जाता है कि जो भी वेदांत को जीवन में अपना लेता है, वह अकर्मण्य हो जाता है। हो ही जाएगा। उसे पेड़, पशु-पक्षी, पत्थर में भी ईश्वर का भान होता है। उसका पूरा व्यवहार भिन्न हो जाएगा। ऐसे में भौतिक जगत में वह मिसफिट हो जाएगा। कमोबेश यही हालत मेरे उस अति विद्वान मित्र की हो गई। 

असल में दुनियाभर में अपने क्रांतिकारी प्रवचनों के कारण प्रसिद्ध ओशो को समझना बहुत मुश्किल है। आम आदमी तो उनकी पुस्तक एक पन्ना तक नहीं समझ सकता। भाषा बहुत सामान्य, मगर निहितार्थ इतने गहरे होते हैं, कि कई लोगों के सिर के ऊपर से गुजर जाते हैं। मेरी समझ में उनके जैसा ज्ञानी व तार्किक अब तक तो दूसरा नहीं हुआ। उन्होंने जीवनभर परंपराओं और व्यवस्थाओं का अतिक्रमण किया। बहुत अति दुस्साहपूर्ण तर्क दिए। इस कारण विवादास्पद भी खूब हुए। वे जिस तरह की बातें करते थे, अगर आदमी उन पर हूबहू चलने की कोशिश करेगा तो दुनिया की व्यवस्थाओं के साथ चल ही नहीं सकता। समझने वाले जानते हैं कि उन्होंने जो तर्क दिए हैं, वे कभी काटे नहीं जा सकते, अकाट्य हैं, जो दृष्टि दी, वह सत्य के बिलकुल करीब है, मगर चूंकि दुनिया उनसे बिलकुल उलट है, उसको स्वीकार करने को तैयार नहीं है, इस कारण उन पर चलने वाला मिसफिट हो ही जाएगा। मुझे बेहद अफसोस है कि मेरे मित्र ने ओशो के ज्ञान का संतुलित उपयोग नहीं किया, नतीजतन उनका सांसारिक जीवन बेकार सा हो गया। जो शख्स बहुत नाम कमा सकता था, वह गुमनामी में खो गया। इसमें दोष ओशो का नहीं। वे सदैव करते रहे कि मेरा अनुकरण या अनुसरण न करें, स्वविवेक से निर्णय करें। मगर मेरे मित्र एक और ओशो बनने के प्रयास में सामान्य मानव व्यवहार को ही भूल बैठे।

यद्यपि इस दुनिया का जितना भी ज्ञान है, वह दर्शन की ही देन है, मगर दार्शनिक कई बार दुनिया में हंसी का पात्र बन जाता है। उनकी खिल्ली उड़ती है। जैसे एक दार्शनिक एक बार एक गांव में गया। उसने देखा कि दीवारों पर गाय का गोबर थापा हुआ है। आम गंवार भी समझ सकता है कि वे कंडे हैं, मगर वह दार्शनिक सोच में डूब गया कि गाय ने आखिर किस प्रकार खड़े हो कर दीवार पर गोबर किया है?

इसी के साथ अपनी बात समाप्त करता हूं। मुझे तो मेरे मित्र ने यही सीख दी है कि निखालिस ज्ञान अर्थात सार व संसार के बीच तालमेल होना ही चाहिए।

-तेजवानी गिरधर

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मंगलवार, 8 सितंबर 2020

बेमिसाल डॉक्टर एन. सी. मलिक का एक और दिलचस्प प्रसंग


मैं हूं अजमेर के हृदयस्थल नया बाजार की गोल प्याऊ। हर राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक हलचल के केन्द्र इस बाजार में होने वाली हताई, सुगबुगाहट व गप्पबाजी की गवाह। गर कहें कि यही नब्ज है अजमेर की तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। शहर में पत्ता भी हिले तो उसकी खबर यहां पहुचंती है। सियासी गणित की गणना यहीं पर होती है। यहीं से हवा बनती है। ऐसे अनेक किस्से मेरे जेहन में दफ्न हैं। पेश है ये किस्सा-


मैं राजेन्द्र प्रसाद शर्मा हूं। मेरा छोटा भाई जगदम्बा प्रसाद, जो कि दिल्ली में रहता है, दिसंबर 1995 में बीमार रहने लगा। हम उसे अजमेर इलाज के लिए लेकर आए। तबीयत उसकी काफी ज्यादा खराब थी। जे एल एन हॉस्पिटल में उसे भर्ती करवाया गया। उसका इलाज बहुत ही कुशल डॉक्टर्स की टीम द्वारा किया जा रहा था। उसको भर्ती हुए पच्चीस दिन से भी ज्यादा समय  हो गया था। 

राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

उस वार्ड में रेजिडेंट डॉक्टर दीपक थे, जो की एक नेक इंसान थे। मैने एक दिन निश्चय किया कि क्यों न इस बारे में डॉक्टर मलिक साहब से सलाह ली जाए। मैं पूरे पेपर्स की फोटो कॉपी करवा कर मलिक साहब के पास गया। उन्होंने सारे पेपर्स देखे और बोले कि ये क्या कोई केमिकल से संबंधित काम करता है। मैने बताया कि पहले वह बिरला टैक्सटाइल में कार्य करता था और वहां इसके विभाग में कलर मिक्सिंग का काम होता था। इस पर वे बोले कि इसको टीबी बताई गई है, जबकि कलर की फ्यूम्स इसके लंग्स में जम गई है। इसको जब तक इन दवाओं के साथ कार्टीसोरोन नहीं दोगे, तब तक ये ठीक नहीं होगा। मैने कहा कि सर, मैं वहां से डिस्चार्ज करवा कर आपसे इलाज करवा लूं। उनका जवाब था कि नहीं पेशेंट को इस कंडीशन में हॉस्पिटल में होना जरूरी है। बहरहाल वार्ड के रेजीडेंट डॉक्टर दीपक को कह कर दूसरे दिन कार्टीसोरोन चालू की गई और तीन-चार दिन में तबीयत में सुधार होना चालू हो गया। इस तरह बिना पेशेंट को देखे उन्होंने अपने अनुभव से इलाज में मदद की।

अगर आपका भी कोई अनुभव हो या आपको कोई पुराना किस्सा याद हो तो मुझ से संपर्क कर सकते है।-

-तेजवानी गिरधर

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रविवार, 6 सितंबर 2020

श्राद्ध में पूर्वज की पसंदीदा वस्तुएं क्यों अर्पित नहीं की जातीं?

क्या मृतात्मा तक भोजन पहुंचता है?

हिंदू धर्म में मान्यता है कि मनुष्य की मृत्यु हो जाने पर पुनर्जन्म होता है। अर्थात एक शरीर त्यागने के बाद आत्मा दूसरा शरीर ग्रहण करती है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब हमारे किसी पूर्वज की आत्मा मत्योपरांत कहीं और, किसी और शरीर में होती है तो श्राद्ध के दौरान हम उन्हें पंडित के माध्यम से जो भोजन अर्पित करते हैं, वह उन तक कैसे पहुंच सकता है? उनके स्वयं आ कर भोजन ग्रहण करने का तो सवाल ही नहीं उठता। बावजूद इसके हम जब श्राद्ध करते हैं तो पंडित को उतना ही सम्मान देते हैं, जितना पूर्वज को। वस्तुत: हम पंडित में हमारे पूर्वज की उपस्थिति मान कर ही व्यवहार करते हैं। भोजन अर्पित करने के विषय से हट कर बात करें तो भी इस सवाल का क्या उत्तर है कि उन्हें हम जो याद करते हैं अथवा श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, वह उन तक कैसे पहुंचती होगी?


इससे जुड़ी एक बात और। क्या किसी ने अनुभव किया है कि पूर्व जन्म में वह क्या था, कहां था? वस्तुत: प्रकृति की व्यवस्था ही ऐसी है कि वह पूर्व जन्म की सारी स्मृतियों को लॉक कर देती है। वह उचित भी है। अन्यथा सारा गड़बड़ हो जाएगा। स्मृति समाप्त हो जाने का स्पष्ट मतलब है कि हमारा पूर्व जन्म से कोई नाता नहीं रहता। तब सवाल ये उठता है कि क्या हमें भी हमारे पूर्वजन्म के परिजन की ओर से किए जा रहे श्राद्ध कर्म का अनुभव होता है? क्या किसी ने अनुभव किया है कि श्राद्ध पक्ष के दौरान किसी तिथी पर पूर्व जन्म के परिजन हमें भोजन करवा रहे हैं? क्या कभी हमने अनुभव किया है कि बिन भोजन किए ही हमारा पेट भर गया हो? यदि हमारा कोई श्राद्ध रहा है तो ऐसा होना चाहिए, मगर होता नहीं है। 

वाकई गुत्थी बहुत उलझी हुई है। अब चूंकि शास्त्र के अनुसार श्राद्ध पक्ष माना जाता है, श्राद्ध कर्म किया जाता है, तो जरूर इस व्यवस्था के पीछे कोई तो विज्ञान होगा ही। हजारों से साल ये यह परंपरा यूं ही तो नहीं चली आ रही। इस बारे में अनेक पंडितों व विद्वानों से चर्चा की, मगर आज तक कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पाया है। हद से हद ये उत्तर आया कि भोजन पूर्वज तक पहुंचता हो या नहीं, मगर श्राद्ध के बहाने हम अपने पूर्वजों को याद करने, उनके प्रति सम्मान प्रकट करने और उनकी बताई गई अच्छी बातों का अनुसरण करने के लिए पखवाड़ा मनाते हैं।

इस बारे प्रसिद्ध मायथोलॉजिस्ट श्री देवदत्त पटनायक का अध्ययन बताता है कि मृत्यु के बाद शरीर का एक हिस्सा, जो उसके ऋणों की याद है, जीवित रहता है। वह हिस्सा वैतरणी पार कर यमलोक में प्रवेश करता है। वहां पितर के रूप में रहता है। यदि वह वैतरणी पार नहीं कर पाता तो प्रेत बन कर धरती लोक पर रहता है और तब तक परेशान करता है, जब तक कि उसका वैतरणी पार करने का अनुष्ठान पूरा नहीं किया जाता। 

वे बताते हैं कि हर पूर्वज के लिए हर साल उसकी पुण्यतिथी पर अनुष्ठान करना संभव नहीं है, इसलिए श्राद्ध पक्ष का निर्धारण किया गया। इस काल में मृतक जीवित लोगों के सबसे करीब होता है। 

उन्होंने एक बहुत दिलचस्प बात भी कही है। वह ये कि हम पूर्वजों को याद तो करते है, सम्मान भी देते हैं, मगर साथ ही डरते भी हैं, उन्हें बहुत सुखद भी अनुभव नहीं करने देते, अन्यथा वे फिर प्रेत बन कर धरती लोग पर आ सकते हैं। 

हालांकि उन्होंने इसका खुलासा नहीं किया है कि उन्हें कैसे सुखद अनुभव नहीं होने देते, मगर लगता ऐसा है कि श्राद्ध के दौरान सामान्य दाल-चावल का भोजन इसीलिए दिया जाता है। विभिन्न स्वादिष्ट व्यंजन नहीं खिलाते कि कहीं वह फिर आकर्षित हो कर पितर लोक छोड़ कर न आ जाएं। 

कई बार मुझे ख्याल आया है कि अगर हम अपने पूर्वजों का बहुत सम्मान करते हैं, उन्हें सुख पहुंचाना चाहते हैं तो पंडित को वह भोजन करवाना चाहिए, जो कि हमारे पूर्वज को अपने जीवन काल में प्रिय रहा हो। यथा हमारे किसी पूर्वज को शराब, बीड़ी, मांसाहार आदि पसंद रहा हो तो, हमें वहीं अर्पित करना चाहिए। मगर ऐसा नहीं करके सादा भोजन परोसते हैं।  मेरी इस शंका का समाधान श्री पटनायक की जानकारी से होता है, अगर उनका अध्ययन सही है तो।

-तेजवानी गिरधर

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शनिवार, 5 सितंबर 2020

बेमिसाल डॉक्टर एन. सी. मलिक के कुछ और दिलचस्प प्रसंग


 मैं हूं अजमेर के हृदयस्थल नया बाजार की गोल प्याऊ। हर राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक हलचल के केन्द्र इस बाजार में होने वाली हताई, सुगबुगाहट व गप्पबाजी की गवाह। गर कहें कि यही नब्ज है अजमेर की तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। शहर में पत्ता भी हिले तो उसकी खबर यहां पहुचंती है। सियासी गणित की गणना यहीं पर होती है। यहीं से हवा बनती है। ऐसे अनेक किस्से मेरे जेहन में दफ्न हैं। पेश है ये किस्सा-

आजकल छोटी से छोटी बीमारी का इलाज भी बिना टेस्ट के नहीं होता। एक जमाना था जब हमारे यहां के वैद्य नाड़ी देख कर बीमारी का पता लगा लेते थे। ऐसे में अगर कोई डॉक्टर बीमार की दास्तां सुन कर इलाज कर दे तो उसे क्या कहेंगे? बेशक, ऐसे डॉक्टर को लंबे अनुभव से शरीर विज्ञान की गहरी समझ हो गई होगी। ऐसे अनुभवी और बेमिसाल डॉक्टर थे डॉ. एन. सी. मलिक। उनके बारे में एक किस्सा शहर के बुद्धिजीवियों में कहा-सुना जाता रहा है।

डॉक्टर मलिक से जुड़े कुछ प्रसंग पिछले ब्लॉग में आपसे साझा किए थे। हाल ही उनके सुपुत्र जाने-माने इंटरनेशनल टेबल टेनिस अंपायर श्री रणजीत मलिक ने डाक्टर साहब के बारे में कुछ और जानकारियां भेजी हैं, जो कि उनको द संस्कृति स्कूल में कार्यरत श्री राजेन्द्र प्रसाद शर्मा ने उनसे साझा कीं। श्री शर्मा की ही लेखनी में संस्मरण हूबहू आपके समक्ष प्रस्तुत है:-

राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

1. यह घटना 1976 की है। उस समय मेरे पिताजी की पोस्टिंग पुलिस हॉस्पिटल में कंपाउंडर के पद पर थी। एक सज्जन, जो कि शास्त्री नगर में रहते थे, की वृद्ध माताजी अस्वस्थ चल रही थीं। उस समय के अच्छे फिजीशियन डॉक्टर आर. एन. माथुर का इलाज चल रहा था। उसके तहत उनके ड्रिप पिताजी द्वारा लगाई जा रही थी। दो दिन तक ड्रिप बराबर चली, लेकिन तीसरे दिन उनको जबरदस्त रिएक्शन हो गया। पिताजी के पास जो भी एंटी डोज थे, वो देकर हालत को काबू किया गया। साथ ही उनको सलाह दी कि वे डॉक्टर माथुर को दिखाएं। उन्होंने भी एंटी रिएक्शन का जो भी ट्रीटमेंट था, वो दिया, लेकिन उनकी हालत में सुधार नहीं हुआ। फिर उन्होंने डॉक्टर एम. एस. माथुर, जो कि अच्छे फिजिशियन माने जाते थे, से इलाज करवाया, लेकिन फिर भी रिएक्शन खत्म नहीं हुआ। आखिर एक दिन वो पापा से सलाह करने आए। पापा ने उनको सलाह दी कि वो डॉक्टर मलिक साहब को दिखाए। उस समय डॉक्टर साहब हरिनगर, शास्त्री नगर में निवास करते थे। डॉक्टर साहब अपने डेकोरम का पूरा ध्यान रखते थे। डॉक्टर साहब से जब उन सज्जन ने घर पर चल कर देखने को कहा तो डॉक्टर साहब ने उनसे अपने डेकोरम के अनुसार टैक्सी लेकर आने को कहा। उन दिनों शहर में गिनी-चुनी टैक्सी हुआ करती थी। टैक्सी लाई गई। डॉक्टर मलिक साहब ने पेशेंट को देख कर एनाल्जिन लिख कर दी। पहले दिन, दिन में तीन बार, दूसरे दिन दो बार व तीसरे दिन एक बार देकर बंद करने की हिदायत दी। साथ ही कहा कि सिर्फ एनाल्जिन ही देनी है, उसका कोई भी सब्सीट्यूट नहीं होना चाहिए। उन सज्जन ने अपना सिर पीट लिया और यह सोच कर तीन दिन तक गोली नहीं दी कि मेरी मां को कोई जुकाम-बुखार-बदन दर्द थोड़े ही है। तीसरे दिन वो पापा के पास झगड़े के मूड से आए कि उन्होंने कहाकि कैसा अच्छा डॉक्टर बतलाया, जो इतना उनका खर्चा भी करवा दिया और दवा के नाम पर केवल एनाल्जिन दे दी। पापा ने उनको समझाया कि अगर मलिक साहब ने लिखी है तो सोच समझ कर लिखी है, वो देकर तो देखें। दूसरे दिन से एनाल्जिन चालू की गई और उनको आश्चर्य तब हुआ जब पहले दिन ही रिएक्शन का आधा असर खत्म हो गया और वो माताजी तीन दिन एनाल्जिन लेकर बिल्कुल स्वस्थ हो गईं।


2. यह घटना 1959 की है। मेरे पिताजी अभी का जवाहर लाल नेहरू चिकित्सालय, जो कि तब विक्टोरिया हॉस्पिटल हुआ करता था, में कंपाउंडर के पद पर कार्यरत थे। उस समय उनके पास हॉस्पिटल के स्टोर का चार्ज था। स्टोर की ऑडिट करने के लिए टीम आई हुई थी। एक दिन टीम के इंचार्ज ने पापा को बताया कि उनके बहुत तेज घबराहट, बेचैनी आदि हो रही है और ये समस्या उनको पिछले काफी सालों से है। उन्होंने कई डॉक्टर्स को दिखा कर इलाज लिया, लेकिन फर्क नहीं पड़ा। पिताजी ने उनसे कहा कि वे घबराए नहीं दोपहर में डॉक्टर मलिक अपने चेंबर में आएंगे, तब उनको दिखा देंगे। डॉक्टर मलिक उस समय विक्टोरिया हॉस्पिटल के मुख्य चिकित्सा अधिकारी थे। डॉक्टर मलिक साहब को दिखाया गया। उन्होंने केवल उनसे उनकी मेडिकल हिस्ट्री पूछी और पिताजी से बोले इनका यूरीन टेस्ट करवा कर लाओ। यूरीन टेस्ट की रिपोर्ट ले जा कर दिखाई तो वे बोले पेट का एक्सरे करवा कर लाओ। एक्सरे की रिपोर्ट देखने के साथ ही डॉक्टर मलिक बोले, मरना चाहता है क्या, ये इतना बड़ा स्टोन पेट में लेकर क्यों घूम रहा है, इसका जल्द से जल्द ऑपरेशन करवाओ। जब वह सज्जन पेट संबंधी कोई बीमारी नहीं बता रहे थे, कई एक्सपर्ट डॉक्टर्स से इलाज ले चुके, लेकिन कोई भी ठीक से डायग्नोस नहीं कर पाया। ऐसे जानकार डॉक्टर थे मलिक साहब।

-तेजवानी गिरधर

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शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

...तो वैज्ञानिकों की पूजा क्यों नहीं होनी चाहिए?


हाल ही मेरे एक मित्र ने मेरे सामने एक ऐसा सवाल खड़ा कर दिया, जिसने मुझे सोचने को मजबूर कर दिया। उनकी बात तर्क के लिहाज से ठीक प्रतीत होती है, मगर होना क्या चाहिए, इस पर आप सुधि पाठक विचार कर सकते हैं।

सवाल है कि सुखी रहने के लिए हम देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। उनके चित्रों-मूर्तियों के आगे दिया-बत्ती, अगरबत्ती जलाते हैं, मगर जिन वैज्ञानिकों ने हमारी जिंदगी में भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए एक से बढ़ कर एक अविष्कार किए, उनकी पूजा तो दूर, याद तक नहीं करते। उनके सवाल में तनिक नास्तिकता झलकती है, वो इसलिए कि उन्होंने जिस ढ़ंग से सवाल किया, वह ऐसा आभास देता है। उन्होंने एक उदाहरण देते हुए कहा कि पंक्चर ठीक करने वाला एक दुकानदार सुबह दुकान खोलने पर किसी न किसी देवता के आगे अगरबत्ती जलाता है, इस उम्मीद में कि उसकी रोजी-रोटी ठीक से चले। पता नहीं, अगरबत्ती करने से ऐसा होता भी है या नहीं, पता नहीं, क्योंकि बावजूद पूजा के उसके जीवन में कष्ट होते ही हैं। सुख के साथ सारे दु:ख भी भोगता है। कोरोना महामारी में लॉक डाउन के दौरान सभी देवी-देवताओं के मंदिरों के पट बंद हो गए। वे पूजा-अर्चना से वंचित रह गए। वे महामारी के असर से अपने आपको नहीं बचा पाए। इसके आगे वे कहते हैं कि वह दुकानदार ऐसे ही देवी-देवता के आगे अगरबत्ती करता है, मगर जिन वैज्ञानिकों के अविष्कारों के बदोलत वह पंक्चर ठीक कर पाता है, उनका उसे ख्याल ही नहीं। जिन विज्ञान ऋषियों के सदके उसकी रोजी-रोटी चलती है, उनका उसे कोई स्मरण ही नहीं। जिस वैज्ञानिक ने बिजली की खोज की, जिस वैज्ञानिक ने प्रेशर पंप बनाया, क्या उसके चित्र के आगे उसे अगरबत्ती नहीं करनी चाहिए? उसके मन में ये विचार क्यों नहीं आता कि जिन वैज्ञानिकों के कारण उसकी आजीविका चल रही है, उनका चित्र लगा कर भी अगरबत्ती कर दे। सच तो ये है जिन वैज्ञानिकों ने विज्ञान के मूलभूत सिद्धांतों का प्रतिपादन किया, उसी की बदोलत में हमारे जीवन में सारे भौतिक सुख-सुविधाओं के साधन मौजूद हैं। जिस प्रकार ज्ञान के भंडार वेदों की ऋचाएं किसी एक ऋषि ने नहीं लिखी, एक लंबी शृंखला है ऋषियों की। उनकी वजह से ही हमें आध्यात्मिक समझ है। ठीक उसी प्रकार वैज्ञानिकों की भी एक लंबी शृंखला है, जिन्होंने उत्तरोत्तर नई नई खोजें कीं। सुख-सुविधाओं के साधनों के नाम पर आज क्या नहीं है हमारे पास।

बहरहाल, मेरे मित्र का सवाल सीधे-सीधे तो मेरे गले नहीं उतरा, क्योंकि देवी-देवता अपनी जगह हैं, वैज्ञानिक अपनी जगह। वस्तुत: देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना आस्था का सवाल है। हमें यकीन है कि हमारे शास्त्रों में जो कुछ भी बताया गया है, वह सही है। कई लोगों ने अनुभव भी किया होगा कि देवी-देवता आराधना, पूजा-अर्चना करने पर वे फल देते हैं। अत: उस पर तो सवाल बनता ही नहीं। हां, ये ठीक है कि जिन वैज्ञानिकों ने वास्तव में प्रत्यक्षत: हमारे जीवन में सुख के साधन जुटाएं हैं, वे भी सम्मान के पात्र हैं। जब हम अपने पूर्वजों, अपने नेताओं की मूर्तियों के आगे हर साल जयंती व पुण्य तिथी पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, तो वैज्ञानिकों को क्यों नहीं श्रद्धा के साथ याद करना चाहिए? क्या उनके नाम भी एक दिया नहीं बनता?

-तेजवानी गिरधर

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बुधवार, 2 सितंबर 2020

उबासी आने पर चुटकी क्यों ली जाती है?


उबासी व जम्हाई एक सामान्य शारीरिक क्रिया है। हर किसी को आती है उबासी। उसके अपने कारण हैं, लेकिन कई लोग उबासी आने पर होंठों के आगे चुटकी बजाते हैं। संभव है, इसकी आपको भी जानकारी हो। आप भी चुटकी बजाते हों। मगर ये चुटकी क्यों ली जाती है, उसका ठीक-ठीक क्या कारण है, यह ठीक से नहीं पता। जाहिर तौर पर उबासी ऊब, थकावट या नीरसता अनुभव होने का संकेत है। हो सकता है ऊब मिटाने के लिए चुटकी ली जाती हो। यह भी हो सकता है कि ऐसा इसलिए भी किया जाता हो कि उबासी के दौरान मुंह खुला रहने के दौरान कोई मक्खी-मच्छर श्वास के साथ भीतर न प्रवेश कर जाए।

बहरहाल उबासी के दौरान चुटकी लेने का एक प्रसंग रामायण में आता है। जरा इस पर बात कर लेते हैं।

वस्तुत: भक्त हनुमान द्वारा भगवान राम की निरंतर सेवा से सीता जी, भरत, लक्ष्मण आदि ईष्र्या करने लगे थे। भगवान राम के राज्याभिषेक के बाद सब कुछ आनंद से चल रहा था। हनुमान जी भी अयोध्या में ही रह कर भगवान राम की सेवा करते थे। हर वक्त, यहां तक शयन कक्ष में भी हनुमान सेवा में उपस्थित रहते थे। ईष्र्यावश सीता जी, भरत व लक्ष्मण ने एक योजना बनाई, ताकि हनुमान को सेवा से दूर रखा जा सके। राम दरबार में भरत ने राम की ओर से एक आदेश सुनाया। इसके तहत उन्होंने शयन कक्ष में सिर्फ सीता जी के, दरबार में भरत जी के और भोजन और भ्रमण के दौरान लक्ष्मण जी ने सेवा के अधिकार ले लिए। हालांकि भगवान राम ने हनुमान के लिए सेवा के लिए कुछ न छोडऩे पर संशय किया था, मगर सब टाल गए। अपने लिए सेवा का अवसर न बचने पर हनुमान हनुमान गढ़ी में दुखी हो कर रोने लगे। अपनी सेवा में हनुमान जी को न पाकर श्रीराम का भी मन नहीं लगा, तब उन्होंने हनुमान का पता करवाया और उनको बुलावा भेजा। हनुमान के दु:ख कारण जान कर भगवान राम ने उनसे सेवा को कोई मौका मांगने को कहा। चतुर हनुमान ने भगवान राम को उबासी आने पर चुटकी बजाने की सेवा मांगी। भगवान राम ने स्वीकृति दे दी। हनुमान से ईष्र्या करने वाली मंडली को यह बहुत ही सामान्य सी सेवा लगी, सो उन्होंने कोई ऐतराज नहीं किया। लेकिन इस सेवा के बहाने हनुमान हर पल भगवान राम के साथ ही रहने लगे। पता नहीं कब उबासी आ जाए और उन्हें चुटकी बजानी पड़े। एक दिन रात में सीता जी ने हनुमान को शयन कक्ष से बाहर भेज दिया। भगवान राम ने उबासी ली, और उनका मुंह खुला का खुला रह गया। यह स्थिति देख कर सभी घबरा गए। किसी को कुछ नहीं समझ आया कि क्या किया जाए। इस पर हनुमान को बुलवाया गया। उनके चुटकी बजाते ही भगवान राम सामान्य हो गए। है न दिलचस्प प्रसंग।

खैर, उबासी आती क्यों है, इस पर विदुषी निशी खंडेलवाल ने एक विस्तृत आलेख लिखा है। आइये, उसके कुछ अंश जान लेते हैं। 

जानकारी ये है कि हम ही नहीं, बल्कि गर्भस्थ शिशु भी उबासी लेता है। अल्ट्रा साउंड निरीक्षण के दौरान 20 सप्ताह के शिशुओं की गर्भ में उबासिया रिकॉर्ड की गई हैं। इससे तो ऐसा लगता है कि उबासी का आना हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण है और इस पर नियंत्रण कर पाना सम्भव नहीं। रात को सोने से पहले, सुबह उठने के बाद, किसी काम को लगातार करते रहने से, बहुत ज्यादा थकान महसूस होने जाने आदि-आदि परिस्थितियों में सभी के उबासी लेने के अनुभव हैं।

उबासी क्यों आती है, इसका पता लगाने और किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए बहुत-से अध्ययन किए गए हैं। सन् 1986 में महाविद्यालय के कुछ छात्रों पर किए गए प्रयोगों में पाया कि उस समय उबासी ज्यादा आती है, जब छात्रों को बोरियत महसूस होती है। 

एक मान्यता थी कि उबासी तब ली जाती है, जब शरीर को ज्यादा ऑॅक्सीजन की जरूरत होती है, लेकिन मैरीलैण्ड विश्वविद्यालय के डॉ. रॉबर्ट प्रॉविन द्वारा किए गए अध्ययनों ने अन्तत: इस धारणा को खारिज कर दिया। 

ऐसा माना जाता है कि थके होने पर उबासी ज्यादा आती है। यह देखा जाता है कि अक्सर उबासी नींद आने की स्थिति में आती है। व्यावहारिक अध्ययन भी लगातार यह बताते हैं कि सबसे ज्यादा उबासी सोने से पहले और सो कर उठने के समय आती है, क्योंकि इस समय सक्रियता का स्तर बहुत कम होता है। परन्तुु बाद में हुए कुछ प्रयोगों से यह पता चला कि सतर्कता का स्तर अक्सर उबासी के बाद नहीं, उससे पहले बढ़ जाता है और सतर्कता के अन्य सम्भावित कारण भी पाए गए। तो यह परिकल्पना भी बहुत सटीक साबित नहीं हुई।

कई जानवर उबासी लेते हैं - शेर-बिल्ली, कुत्ते-भेडि़ए, बन्दर-वानर, सांप, मछली, चूहे, घोड़े, तोते, पेंग्विन, उल्लू आदि। मनुष्यों की तरह सामाजिक समूहों में रहने वाले जानवरों में किसी को उबासी लेते हुए देख कर अन्य को भी उबासी आ जाती है। इनमें चिम्पैन्ज़ी, बॉनबो और तोते शामिल हैं। शोध से यही पता चला है कि कुत्ते अपने मालिक को उबासी लेते देख खुद उबासी लेने लगते हैं। अर्थात उबासी एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में भी फैल सकती है।

1986 में रॉबर्ट प्रॉविन द्वारा उबासी पर अध्ययन अध्ययन किए। इनमें प्रमुख रूप से उबासी को ऑक्सीजन की कमी की आपूर्ति करने हेतु, कान के पर्दे को दबाव से बचाने की जरूरत के लिए, जैव-विकास की प्रक्रिया में बनी एक आदत की तरह या मस्तिष्क के तापमान को सामान्य बनाए रखने के लिए पडऩे वाली एक जरूरत के रूप में समझने-समझाने की कोशिश की गई, लेकिन अब तक किए गए सभी अध्ययन सम्पूर्ण रूप से उबासी की प्रक्रिया की व्याख्या नहीं कर पाए हैं।


-तेजवानी गिरधर

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